रविवार, 12 अप्रैल 2020

बुतशिकनी

ये कैसा आलम है, हे प्रभु यह क्या हो रहा है|
जिंदा आदमी, भला क्यूँ एक बुत को रो रहा है|
उसी ने बुततराशी, और की बुतपरस्ती भी|
ये कैसा इन्सान है, लहू अपनों का पी रहा है|
खुदा भी रो रहा होगा, अपनी इस करनी पर,
कि जन्नत बनाई, और जिंदा इन्सान भी उसको
बुत बना दिया मुझे, और दस्तक हवा में दे रहा है|
फिजाओं में कहर, और जहर है ज़हन में आज
इन्सानियत भूला कि बस खुद को ढो रहा है|
दिया एक सा रंग लहू का और एक रूप सबको |
फिर भी वो है कि हिन्दू और मुसलमाँ हो रहा है|
चश्मगश्तः अलग-अलग बना ली दुनिया अपनों से
बदी सीख गया है बस, बद से बदनाम हो रहा है|
अक्लमंद ही बचेगा, सियासतों की साजिशों से
कौन की बुत शिकन है, और कौन दिल जोड़ रहा है|
दस्तगीर होना होगा इस मुश्किले वक्त हम सबको
सूरते हाल है कि जरूरतमंद हकारत झेल रह है|
डाॅ़ भूपेन्द्र हरदेनिया 'मौलिक'

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