गोस्वामी तुलसीदास की वर्तमान
प्रासंगिकता
डॉ0 भूपेन्द्र हरदेनिया
(व्याख्याता] माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय भोपाल
आधुनातन
संदर्भ में कुछ प्रश्न हमारे सामने हमेशा आ खड़े होते हैं कि क्या आज के इस
आधुनिकतावादी दौर में हमारा धर्म
हमारा आध्यात्म हमारी
आस्था कहीं टिक पाएंगी। वर्तमान की जो स्थिति बाजारवाद ने उत्पन्न की हैं उससे
भौतिकतवाद का अंधड़ आया है उसने हमारे देश की आस्था और विश्वास को हिलाकर दख दिया है। आज हम
जिस दोराहे पर खड़े हैं] वहॉं से आगे अगर सिर्फ हमें कुछ दिखाई पड़ता
है तो
वह है अंधविश्वास] अनास्था] आशंका] अधंकार] अनिश्चितता] और किंकर्तव्यवमूढ़ता। इसका एक कारण आज का भौतिकवादी जीवन और हितसाधन
की होड़ में बड़ते दुनिया के लोगों के कदम। भारतीय मानस आज इस कदर से द्वन्द्व का
जीवन जी रहा है, जिसमें उसे दूसरों के लिए तो छोड़ो अपने लिए ही सोचने का अवकाश नहीं
है। ऐसे समय हमेशा हमारा सहारा साहित्य ही बना है, जो हमें रास्ता दिखाता है। हमें
भी एक ऐसे साहित्य की आवश्यकता हमेशा महसूस होती है जो हमें इस स्थिति से उबार सके
और त्याग] बलिदान] आशा] उम्मीद] करूणा] दया तथा
कर्तव्य परायणता की ओर बलवती कर सके। जब हम सोचते हैं कि आखिर ऐसा क्या पढ़ा जाए
जिसमें जीवन के सारे प्रश्नों के समाधान उपलब्ध हों, वो कौन सा साहित्य है जो इस
बाजारवाद के युग में भी अपनी उपयोगिता सिद्ध कर रहा है तो हमारे सामने हमेशा तुलसी
साहित्य अग्रिम पंक्ति में खड़ा हुआ दिखाई देता है। लड़खड़ाती आस्था और चलायमान
निष्ठा के इस उपयोगितावादी, अर्थप्रधान अराजक हो रहे युग में किसी को भी बिना विचारे जो मन आए कह देने का
फैशन हो गया है। इसके पीछे समाचार पत्रों की सुर्खियों में आना और स्वयं को
क्रान्तिकारी दिखाना भी होता है
चाहे चिन्तन कितना ही सतही हो। गोस्वामी
तुलसीदास जी न इसके अपवाद हैं न उनके आराध्य भगवान राम। इनके जन्म-स्थान आदि के
बारे में तो विवाद न जाने कब से चल रहे हैं पर उनकी प्रासंगिकता पर
प्रश्नचिह्न कुछ नये हैं विशेषकर उन लोगों द्वारा जिनका गोस्वामी जी ने बातुल
भूति बिबस मतवारे जे नहिं बोलहिं बचन सॅंभारे
कहा था।
चाहे कोई
भी रचनाकार हो अगर उसकी रचना प्रत्येक काल में अपनी सार्थकता सिद्ध करती हैं और उसकी
उपयोगिता हमेशा बनी रहती है तो वह रचना और रचनाकार दोनों ही कालजयी हो जाएॅंगे।
प्रत्येक रचनाकार की प्रासंगिकता को उसके साहित्य में आये पात्रों] चरित्रों] संवादों] उक्तियों] चिंतनों] नीतियों
और दर्शन के विविध पक्षों के आधार पर परखा जा सकता है। पुराण पुरुषों को युगीन परिस्थितियों
के अनुसार समाज का पथ-प्रदर्शन करते रहना पड़ता है। पौराणिक महानायकों के चरित्र
इसीलिए पढ़े जाते हैं और बार-बार रचनाओं के विषय बनाए जाते हैं। राम और कृष्ण जैसे
महानायकों का वर्चस्व इसी कारण से बना हुआ है कि वे मानवता के उद्धारक के रूप में
आज भी समाज के अनुकरणीय आदर्श बने हुए हैं। उन्होंने एक ऐसा आदर्श] ऐक ऐसा
उदाहरण समाज के सामने प्रस्तुत किया जिससे समाज अपना पथ प्रदर्शन कर सके तथा एक
आदर्श समाज की स्थापना हो सके-
तुलसी मीठे वचन से सुख उपजत
चहुॅं ओर।
अनहोनी होनी नहीं होनी हो सो
होय।।
तुलसी एक ऐसे रचनाकार हैं जिनकी
प्रासंगिकता हमेशा बरकरार रहेगी। तुलसी के राम उनकी रामचरितमानस और उस मानस के
पात्र हमेशा कालजयी और प्रासंगिक रहेंगे। जब तक इस संसार रावणत्त्व शेष रहेगा] तब तक
राम की आवश्यकता का अनुभव किया जाएगा]
जब तक राम की आवश्यकता का अनुभव किया जाए
तब तब उनके अनन्य भक्त तुलसी प्रासंगिक बने रहेंगे।
आज की सबसे भीषण और गंभीर
समस्या साम्प्रदायिकतावाद है] साम्प्रदायिकता की चादर और आज का जनमानस के हृदय में धर्म के नाम एक
गहरी खाई उत्पन्न हो रही है। हिन्दू-मुस्लिम प्रशंग तो आज का विशेष मुद्दा है। कुल
मिलाकर साम्प्रादायिकता आज भी भीषण समस्या है। वह किस प्रकार बलवती होती है] यह जानना
हो तो परशुराम का प्रसंग लें। परशुराम भी विष्णु के अवतार थे] एकान्त
शौर्य के ऐसे प्रतिमान] जिनकी जोड़ शायद ही कहीं मिले। वे चाहते तो रावण को रोक सकते थे] उसकी
अनीति पर अंकुश लगा सकते थे] पर दोनों एक ही सम्प्रदाय (शैव) के थे] अतः रावण
की अनदेखी करते गए। साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने वाले आज भी उससे निबट नहीं पर
रहे हैं। जब तक साम्प्रदायिकता का विष विश्व को दग्ध करता रहेगा, विश्व-शान्ति
को बन्धक बनाए रखेगा, तब तक तुलसी प्रासंगिक बने रहेंगे। तुलसीदास सबसे भाई-चारा रखने के
लिए कहते है-
तुलसी इस संसार में भांति-भांति
के लोग।
सबसे हस मिल बोलिए, नदी नाव
संजोग
परशुराम-प्रसंग राम के चरित्र, उनके
आचार-विचार] उनकी
व्यवहार-कुशलता एवं उनकी मर्यादा की भी सबसे वड़ी कसौटी है। यहाँ उनके विरोध में
खड़े हैं उनके पूर्व के अवतारपुरुष भृगुवंशी परशुराम, जिनकी सात्त्विक अहम्मन्यता
उनकी शक्ति भी है और उनके अवतारी स्वरूप की परिसीमा भी। राम यहाँ भी अपनी मर्यादा
से विचलित नहीं होते। वे ‘हृदय न हरसु विषाद कछु‘
के अपने समत्वभाव को बिना त्यागे विनम्र और
शिष्ट-शालीन बने रहते हैं। वे उन्हें ‘समसील धीर मुनि ज्ञानी‘
कहते हुए-
राम मात्र लघु नाम हमारा । परसु
सहित बड़ नाम तुम्हारा ।।
देव एक गुन धनुष हमारे । नवगुन
परम पुनीत तुम्हारे ।।
सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे ।
छमहु बिप्र अपराध हमारे ।।
आदि कहकर एक ओर अपने मर्यादित
व्यवहार की बानगी देते हैं, तो दूसरी ओर परशुराम के आत्मविश्वास एवं अहंकार को भी क्षीण करते
हैं।
गोस्वामी जी ने वर्तमान संदर्भ
को परिलक्षित करके ‘जौ अनीति कछु भाखौ भाई,
तौ मोहि बरजहु भय बिसराई‘ राम से
कहलाकर तुलसीदास जी ने लोकतंत्र की आधारशिला को पारिभाषित किया है। आज के लोकतंत्र
की सबसे बुनियादी आवश्यकता है तो वह है निर्भयता बिना इसके चल ही नहीं सकता यह
लोकतंत्र की आधारशिला है। रामराज में उनके अधीनस्थों को जितनी स्वच्छंदता थी उतनी
आज तक और कोई भी नहीं दे पाया, बल्कि वर्तमान के इस मिरेकल और पारदर्शी युग में शासक को संविधान और
न्यायालयों की पकड़ से बाहर रखने का क्या निहितार्थ है, यह और
बात है कि इतनी स्वतंत्रता का दुरुपयोग भी हुआ। सीता के द्वितीय बनवास के मूल में
वाणी की स्वतंत्रता ही थी। प्रजानुरंजनार्थ राम ने उसे भी स्वीकारा] पर
सियनिन्दकों को दण्डित करना दूर भला-बुरा भी नहीं कहा। अपने व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठकर राजधर्म
निभाया, स्वयं
दुःखी होकर भी प्रजा की मॉंग का अनुमोदन किया। इसका अभिप्राय यह भी है कि कुछ
स्वनिर्मित सीमायें रहें ताकि सभी प्रसन्न रह सकें। राम के अपार गुण आज के जनमानस
को वैश्विक सुन्दरता की ओर ले जा सकते हैं-
सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य
सील दृढ़ ध्वजा पताका।।
बल बिवेक दम परहित घोरे। क्षमा
कृपा समता रजु जोरे।।
ईसभजनु सारथी सुजाना। बिरति
धम्र संतोष कृपाना।।
दान परसु बुधि शक्ति प्रचंडा।
बर बिज्ञान कठिन कोदंडा।।
अगम अचल मन त्रोन समाना। सम जम
नियम सिलीमुख नाना।।
सखा धर्ममय अस रथ जाकें। जीतन
कहॅं न कतहुं रिपु ताकें।
पदलोलुप
सत्तासीन पुरुषों का स्वार्थ आज बहुत घातक हो रहा है] और यह
स्वार्थ और कितना घातक हो सकता है,
अगर में हमें यह जानना है तो हमें रामचरित
मानस का प्रतापभानु प्रसंग पढ़ना चाहिए। वे एक ऐसे उच्चकोटि के श्रेष्ठ सम्राट तो
थे ही साथ वे अत्यन्त धर्मनिष्ठ और धर्मात्म स्वरूप से आवृत व्यक्तित्व के धनी थे, पर कपटी
मुनि द्वारा वरदान मॉंगने को कहे जाने पर उन्होंने न राज्य के लिए कुछ मॉंगा न
परिजनों अथवा पुरजनों के लिए। मॉंगा तो केवल अपने लिए-जरा भरन
दुखरहित तनु समर जितै जनि कोइ। एक छत्र रिपुहीन महि राजु कलप सतहोइ।।‘इसका
परिणाम भी तत्कार मिल गया वे समूल नष्ट हो गए। जब तक शासक अपनी हित-साधना में लगे रहेगे तब तक
तुलसी की प्रासंगिकता बनी रहेगी।
नौकरशाही
युग के समर्थ और सक्षम अधिकारी आज अपने सुविधाभोगी जीवन के चक्कर मे किस तरह देश
को बर्बाद करने में जुटे हैं उसको वर्तमान परिप्रेक्ष्य में जानने के लिए हमें कुम्भकर्ण के
उदाहरण को लेना पडे़गा। रावण का अगर कोई विश्वासपात्र सेनापति था तो वह था
कुम्भकर्ण। अगर कुम्भकरण चाहता तो रावण को पथ-भ्रष्ट होने और उसकी स्वेच्छाचारिता
को सीमातीत होने से रोक सकते थे पर उन्हें सोने से फुरसत ही कहॉं थी। रावण के
द्वारा सीता हरण की सूचना दिये जाने पर उनका व्यथापूर्ण उद्गार-‘अहह बंधु
तैं कीन्हि खोटाई प्रथमहिं मोकि न जनाएसि आई‘-यही तो है कि पहले बताया जाता तो वे उसको रोकते। जब तक सेनापति अपने
कर्तव्य से विमुख होकर सुख की नींद सोते रहेंगे तक तुलसी प्रासंगिक बने रहेंगे।
इसके अलावा भाइयों की मर्यादा, उनके
सम्मान की रक्षा राम ने जिस प्रीतिभाव से की है वह अनुकरणीय है। चित्रकूट में
भरत के अयोध्या वापस लौट चलने के अनुरोध को वे अपनी सहज मर्यादा से ही साधते हैं।
उस प्रसंग में राम-भरत वार्तालाप ‘सत्यं प्रिय हितं च यत‘
की शास्त्रोक्त वार्तालाप शैली का उत्कृष्ट
उदाहरण है। इसके साथ ही भरत का चरित्र भी तो बहुत ही अद्भुत शक्ति से परिपूर्ण है।
उनका दिए हुए राज्य को भी स्वीकार न करना तुलसी के समकालीन शासकों के मुॅंह पर एक
तमाचा था जो अपने अत्यन्त निकटस्थों तक की हत्या करके राज्यासीन हो रहे थे। भरत का
अवदान त्याग तक ही सीमित नहीं था उनका शौर्य और राजगता भी अद्वितीय है। हनुमान
द्रोणगिरि को लिए हुए हिमालय से लंका तक गए,
पर मध्य रात्रि के उस घनघोर अन्धकार में भी
वे भरत की सजगता को चकमा नहीं दे सके,
जबकि उस पूरे सैकड़ों योजन लम्बे मार्ग में
किसी और को पता ही नहीं लगा। रावण की सारी गुप्तचर व्यवस्था कालनेमि के भरोेसे
निश्चित बैठी रही। जब तक भरत जैसे सजग प्रहरी की आवश्यकता अनुभव की जाएगी, तब तक
तुलसी प्रासंगिक बने रहेंगे।
प्रतीकात्मक
अर्थ में दशरथ और कैकेयी को लें तो जब तक बूढ़े (अशक्त) शासक कैकेयी (दुव्यवस्था)
के चंगुल में फॅंसे रहेंगे, तब तक तुलसी प्रासंगिक बने रहेंगे। जामवन्त और हनुमान का प्रसंग लें
तो जब तक पुरानी पीढ़ी (जामवन्त) नयी पीढ़ी (हनुमान) को जगाने का काम करती रहेगी और
नयी पीढ़ी उसके बताए मार्ग पर चलने की इच्छुक रहेगी, तब तक तुलसी प्रासंगिक बने
रहेंगे।
अतः निष्कर्षतः कहा जा सकता है
कि तुलसी का पात्र एवं कथानक-चयन सोद्देश्य है। एक आदर्श राज्य क्या होता है, सर्वश्रेष्ठ
गुणवान राजा कौन हो सकता है, इसके अलावा श्रेष्ठ प्रजा]
श्रेष्ठ भाई] पत्नी पिता] पुत्र
आदि सभी रिस्ते-नाते कैसे होने चाहिए इन सबकी सुन्दर प्रस्तुती तुलसी साहित्य बड़े
ही व्यावहारिक ढंग से व्यक्त करता है]
साथ तुलसीदास के साहित्य का ध्येय एक ऐसे मानवतावादी साहित्य
की स्थापना हमेशा रहा जो अपने मानवीय मूल्यों पर आधारित हो। नैतिक मूल्यों की
आवश्यकता हमेशा और हर युग मे रहती है]
और इन नैतिक मूल्यों की स्थापना करता हुआ
तुलसी का साहित्य साहित्य के मोर मुकुट के रूप में हमारे समक्ष इस युग में ही नहीं
अपितु प्रत्येग युग में उपस्थित होता नजर आएगा।
और उसमें अन्तर्निहित उनके मानवतावादी उद्देश्य उन्हें सदैव प्रासंगिक बनाए
रखेंगे। तुलसीदास दूसरे के हित से बढ़कर कोई हित नहीं मानते थे-‘परहित
सरिस धर्म नहीं भाई अपने निज हित को छोड़कर दूसरे के हित से बढ़कर कोई धर्म न मानने वाला
तो कोई महात्मा ही हो सकता है] ऐसे महात्मा तुलसीदास को हमारा युग-युगान्तर तक नमन] अस्तु।
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