शनिवार, 1 अगस्त 2020

माँ

कहने को शब्द मात्र, एक उद्बोधन
उस स्त्री के लिये
जो हमारी जन्मदात्री है|
पर वह अपनी गुरुता में
दुनिया के सभी शब्दों से भारी है|

वह एक ध्वनि है 
नाद के मामले में सबसे अधिक ध्वन्यात्मक,

एक अंतर्ध्वनि है वह
जो गुंजायमान होती है हृदय पटल से लेकर
आत्मा की उन गहराइयों में
जहाँ सदैव ऊँकार रहता है विद्यमान,

परा तक पहुँचकर वह शब्द घुला लेता
अपने में परमात्मा के उस उच्चारण को भी
जिसे हम माँ से विलग कर जपते हैं हमेशा,

एक कठोर ढाल है वह
विपत्ति के समय तूणीरों और तलवारों के समक्ष 
आकर अड़ जाती है उससे जो उसके
अंश के लिए घातक है

माँ वह शब्द जो देयता में सर्वोच्च दानवीर है| 
हम
सब याचक हैं उसके समक्ष,

फिर भी हम भागते हैं कई बार
काल के और माया के वशीभूत होकर 
इस शब्द से,

लेकिन वह करता रहता है
पीछा हमेशा और हम दौड़ते रहते हैं
अपने प्रमाद में,
हम दौड़ते रहते हैं अपने सामर्थ्यानुसार,

पर थककर रुकते ही यह शब्द
आ पकड़ता है फिर हमारी बाँह 
धँस जाता है हृदय की
अंतरतम गहराइयों में फिर से
अपने दुलार, वात्सल्य, प्रेम 
और बचपन की उन खूबसूरत यादों के साथ 
जिनका लौटना संभव नहीं है अब

वे सारे बिम्ब हमारे समक्ष
उभर आते हैं, वैसे ही जैसे
हम जीते थे तब अपने अबोध रूप में
और फिर हम कहते हैं
सिर्फ़ और सिर्फ़
माँ!  हे माँ!

लेकिन 
माँ नहीं होती 
फिर!
(पूर्णत: स्वरचित, अप्रकाशित और मौलिक)

© डॉ. भूपेन्द्र हरदेनिया
सबलगढ़ जिला मुरैना मध्य प्रदेश

*जंगल के स्कूल का रिजल्ट :-*

हुआ यूँ कि जंगल के राजा शेर ने ऐलान कर दिया कि अब आज के बाद कोई अनपढ़ न रहेगा। हर पशु को अपना बच्चा स्कूल भेजना होगा। राजा साहब का स्कूल पढ़ा-लिखाकर सबको Certificate बँटेगा।

सब बच्चे चले स्कूल। हाथी का बच्चा भी आया, शेर का भी, बंदर भी आया और मछली भी, खरगोश भी आया तो कछुआ भी, ऊँट भी और जिराफ भी।

FIRST UNIT TEST/EXAM हुआ तो हाथी का बच्चा फेल। अब हाथी की पेशी हुई स्कूल में, मास्टरनी बोली,"आपने पैदा करके मुसीबत छोड़ दिये हो मेरे लिये ? औलाद पर ध्यान दीजिए, फेल हो गए हैं। जनाब, इनके कारण मेरा रिजल्ट खराब होगा। तुम्हारे नालायक बेटे के कारण मेरा रिजल्ट खराब हो, ये मुझे मंजूर नहीं।" "किस Subject में फेल हो गया जी?" "पेड़ पर चढ़ने में फेल हो गया, हाथी का बच्चा।" "अब का करें?" "ट्यूशन रखाओ, कोचिंग में भेजो।" अब हाथी की जिन्दगी का एक ही मक़सद था कि हमारे बच्चे को पेड़ पर चढ़ने में Top कराना है।

किसी तरह साल बीता। Final Result आया तो हाथी, ऊँट, जिराफ सब फेल हो गए। बंदर की औलाद first आयी। Principal ने Stage पर बुलाकर मैडल दिया। बंदर ने उछल-उछल के कलाबाजियाँ दिखाकर। गुलाटियाँ मार कर खुशी का इजहार किया। उधर अपमानित महसूस कर रहे हाथी, ऊँट और जिराफ ने अपने-अपने बच्चे कूट दिये। नालायकों, इतने महँगे स्कूल में पढ़ाते हैं तुमको, ट्यूशन-कोचिंग सब लगवाए हैं। फिर भी आज तक तुम पेड़ पर चढ़ना नहीं सीखे। सीखो, बंदर के बच्चे से सीखो कुछ, पढ़ाई पर ध्यान दो।

फेल हालांकि मछली भी हुई थी। बेशक़ Swimming में First आयी थी पर बाकी subject में तो फेल ही थी। मास्टरनी बोली,"आपकी बेटी  के साथ attendance की problem है।" मछली ने बेटी को ऑंखें दिखाई। बेटी ने समझाने की कोशिश की कि,"माँ, मेरा दम घुटता है इस स्कूल में। मुझे साँस ही नहीं आती। मुझे नहीं पढ़ना इस स्कूल में। हमारा स्कूल तो तालाब में होना चाहिये न?" नहीं, ये राजा का स्कूल है। तालाब वाले स्कूल में भेजकर मुझे अपनी बेइज्जती नहीं करानी। समाज में कुछ इज्जत Reputation है मेरी। तुमको इसी स्कूल में पढ़ना है। पढ़ाई पर ध्यान दो।"

हाथी, ऊँट और जिराफ अपने-अपने Failure बच्चों को कूटते हुए ले जा रहे थे। रास्ते में बूढ़े बरगद ने पूछा,"क्यों कूट रहे हो, बच्चों को?" जिराफ बोला,"पेड़ पर चढ़ने में फेल हो गए?"

बूढ़ा बरगद सबसे पते की बात बोला,"पर इन्हें पेड़ पर चढ़ाना ही क्यों है ?" उसने हाथी से कहा,"अपनी सूंड उठाओ और सबसे ऊँचा फल तोड़ लो। जिराफ तुम अपनी लंबी गर्दन उठाओ और सबसे ऊँचे पत्ते तोड़-तोड़ कर खाओ।" ऊँट भी गर्दन लंबी करके फल पत्ते खाने लगा। हाथी के बच्चे को क्यों चढ़ाना चाहते हो पेड़ पर।मछली को तालाब में ही सीखने दो न?

*दुर्भाग्य से आज स्कूली शिक्षा का पूरा Curriculum और Syllabus सिर्फ बंदर के बच्चे के लिये ही Designed है। इस स्कूल में 35 बच्चों की क्लास में सिर्फ बंदर ही First आएगा। बाकी सबको फेल होना ही है। हर बच्चे के लिए अलग Syllabus, अलग subject और अलग स्कूल चाहिये।*

हाथी के बच्चे को पेड़ पर चढ़ाकर अपमानित मत करो। जबर्दस्ती उसके ऊपर फेलियर का ठप्पा मत लगाओ। ठीक है, बंदर का उत्साहवर्धन करो पर शेष 34 बच्चों को नालायक, कामचोर, लापरवाह, Duffer, Failure घोषित मत करो। *मछली बेशक़ पेड़ पर न चढ़ पाये पर एक दिन वो पूरा समंदर नाप देगी।*

यह बात माता-पिता / अभिभावक को समझने चाहिए।🙏🙏🙏🙏🙏🙏

तूतीनामा

आजकल 
बोला जा रहा है अधिकाधिक
राजनीति पर
भ्रष्टाचार पर
चाटुकारिता पर,

उन तथाकथितों द्वारा
विशेष तौर पर
जिनके सरोकार कभी रहे
इन्हीं से,

आज वे गरिया रहे हैं
उन तुच्छ नेताओं को
जिनके विपक्षी से 
सरकार होने पर करवाते रहे, 
स्थानांतरण और नियुक्तियां,

क्या उनके सरोकार 
नहीं रहे कभी राजनीतिक
भ्रष्ट आचरण किया न होगा
उन्होंने कभी,

आज हर कोई बोल रहा है उसी पर,
जो पहले खुद भी करता था वही,

मनसा वाचा कर्मणा 
कह सकता है कोई
हमेशा रहे वे बिल्कुल पाक साफ,
यदि नहीं तो आज के हमारे वचन
सिवाय बेईमानी के कुछ भी नहीं।

आज हम सिर्फ चरितार्थ करते
'सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली'
मुहावरे को,

पाप के घट में
बूंद बूंद का परिणाम है 
आज की राजनीति
जिसके जिम्मेदार भी हम ही हैं,

सही होते यदि हम, आप और वे सभी 
जो आज हांक रहे हैं डींगें
तो न देखना पड़ते ये दिन,

पर अब सभी की आवाज़ 
उस तूतीनुमा है
जो नक्कारखाने में बज रही है।

© डॉ. भूपेन्द्र हरदेनिया

प्रेमचंद की प्रासंगिक उक्तियां-(प्रेमचंद जयंती पर स्मृति शेष-सादर नमन)

हिन्दी के महान कथाकार मुंशी प्रेमचंद पहले ऐसे साहित्यकार रहे हैं, जिन्होंने भाषा-साहित्य को नया कलेवर प्रदान किया। प्रेमचंद से पहले हिन्दी में साहित्य के नाम पर पौराणिक व काल्पनिक कथाओं का ही चलन था। कई भाषाओं पर अच्छी पकड़ रखने वाले प्रेमचंद का समाज के वंचित तबके से खास जुड़ाव रहा और ये उनकी रचनाओं में भी झलकता रहा. उनकी रचनाओं की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है.

दुनिया को लेखन के नए आयामों से परिचित कराने वाले प्रेमचंद का साहित्यिक सफर खास लंबा नहीं रहा लेकिन थोड़े ही समय में उन्होंने कई कालजयी रचनाएं लिखीं. नाटक लेखन से शुरुआत कर उन्होंने कहानियां, उपन्यास, बच्चों के लिए कहानियां लिखीं और अनुवाद भी किया. कितने ही तो संपादकीय लिखे. दर्जनभर से ज्यादा उपन्यास और तीन सौ के लगभग कहानियां लिखने वाले प्रेमचंद ने लेखन में नए-नए प्रयोग किए. एक तरफ गोदान जैसा उपन्यास तो दूसरी ओर चंद पंक्तियों में खत्म होने वाली कहानी राष्ट्र का सेवक दोनों ही अपने में अनुपम हैं.
प्रेमचंद की अनुभूयमान संवेदनाओं की अभिव्यक्ति, भोग्यमान संवेदनशील अभिव्यक्ति से कहीं कमतर नहीं हैं, उनके कथा साहित्य के विभिन्न पात्रों में केवल प्रेमचंद ही नहीं जीते, बल्कि आप हम और हर अन्त्यज जीवंत हो जाता है| जितना मर्म अपनी रचनाओं में प्रेमचंद उत्पन्न करते हैं वह असाधारण कार्य है| अभी तक मैं आतंकवादी फतवों को जानता था, लेकिन साहित्यिक आतंकवाद से अब रू-ब-रू हो रहा हूँ,  वह भी सिर्फ़ कुख्यात या प्रख्यात होने की सोची समझी गई साजिश के साथ| धन्य हैं आज के विचारक| मुझे तो लगता है कि प्रायोजित हरकतें चंद लोगों की आदतें बन गई हैं |
आधुनिक कथा साहित्य के तुलसीदास मुंशी प्रेमचंद ने यथार्थवादी लेखन की शुरुआत कर हिंदी में एक नई परंपरा को चलन में लाया वह पुनर्जागरण के प्रबल समर्थक थे, उनकी कई उक्तियां आज भी प्रासंगिक हैं-

१- अमीरी की कब्र पर बनती हुई गरीबी बड़ी जहरीली होती है।
२- सफलता में दोषों को मिटाने की विलक्षण शक्ति है।
३- डरपोक प्राणियों में सत्य भी गूंगा हो जाता है।
४- लगन को कांटों की परवाह नहीं होती।
५- यश त्याग से मिलता है धोखाधड़ी से नहीं।
६- दया मनुष्य का स्वाभाविक गुण है।
७- आत्म सम्मान की रक्षा हमारा सबसे पहला धर्म है।
८- कर्तव्य कभी आग और पानी की परवाह नहीं करता कर्तव्य पालन में ही चित्त की शांति है।
९- जीवन का वास्तविक सुख दूसरों को सुख देने में है ना कि उन्हें लूटने में।
१०- विपत्ति से बढ़कर अनुभव सिखाने वाला कोई विद्यालय आज तक नहीं खुला।
११- चिंता रोग का मूल कारण है।
१२- अन्याय में सहयोग देना अन्याय के ही समान है।
१३- कार्य कुशल व्यक्ति की सभी जगह जरूरत होती है।
१४- मन एक भीरु शत्रु है जो सदैव पीठ के पीछे से वार करता है।
१५- चापलूसी का ज़हरीला प्याला आपको तब तक नुकसान नहीं पहुँचा सकता जब तक कि आपके कान उसे अमृत समझ कर पी न जाएँ।
१६- महान व्यक्ति महत्वाकांक्षा के प्रेम से बहुत अधिक आकर्षित होते हैं।
१७- जिस साहित्य से हमारी सुरुचि न जागे, आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न मिले, हममें गति और शक्ति न पैदा हो, हमारा सौंदर्य प्रेम न जागृत हो, जो हममें संकल्प और कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने की सच्ची दृढ़ता न उत्पन्न करे, वह हमारे लिए बेकार है वह साहित्य कहलाने का अधिकारी नहीं है।
१८- आकाश में उड़ने वाले पंछी को भी अपने घर की याद आती है।
१९- जिस प्रकार नेत्रहीन के लिए दर्पण बेकार है उसी प्रकार बुद्धिहीन के लिए विद्या बेकार है।
२०- न्याय और नीति लक्ष्मी के खिलौने हैं, वह जैसे चाहती है नचाती है।
२१- युवावस्था आवेशमय होती है, वह क्रोध से आग हो जाती है तो करुणा से पानी भी।
२२- अपनी भूल अपने ही हाथों से सुधर जाए तो यह उससे कहीं अच्छा है कि कोई दूसरा उसे सुधारे।
२३- देश का उद्धार विलासियों द्वारा नहीं हो सकता। उसके लिए सच्चा त्यागी होना आवश्यक है।
२४- मासिक वेतन पूरनमासी का चाँद है जो एक दिन दिखाई देता है और घटते घटते लुप्त हो जाता है।
२५- क्रोध में मनुष्य अपने मन की बात नहीं कहता, वह केवल दूसरों का दिल दुखाना चाहता है।
२६- अनुराग, यौवन, रूप या धन से उत्पन्न नहीं होता। अनुराग, अनुराग से उत्पन्न होता है।
२७- दुखियारों को हमदर्दी के आँसू भी कम प्यारे नहीं होते।
२८- विजयी व्यक्ति स्वभाव से, बहिर्मुखी होता है। पराजय व्यक्ति को अन्तर्मुखी बनाती है।
२९- अतीत चाहे जैसा हो, उसकी स्मृतियाँ प्रायः सुखद होती हैं।
३०- मैं एक मज़दूर हूँ। जिस दिन कुछ लिख न लूँ, उस दिन मुझे रोटी खाने का कोई हक नहीं।
३१- बल की शिकायतें सब सुनते हैं, निर्बल की फरियाद कोई नहीं सुनता।
३२- दौलत से आदमी को जो सम्‍मान मिलता है, वह उसका नहीं, उसकी दौलत का सम्‍मान है।
३३- संसार के सारे नाते स्‍नेह के नाते हैं, जहां स्‍नेह नहीं वहां कुछ नहीं है।
३४- जिस बंदे को पेट भर रोटी नहीं मिलती, उसके लिए मर्यादा और इज्‍जत ढोंग है।
३५- खाने और सोने का नाम जीवन नहीं है, जीवन नाम है, आगे बढ़ते रहने की लगन का।
३६- जीवन की दुर्घटनाओं में अक्‍सर बड़े महत्‍व के नैतिक पहलू छिपे हुए होते हैं!
३७- नमस्‍कार करने वाला व्‍यक्ति विनम्रता को ग्रहण करता है और समाज में सभी के प्रेम का पात्र बन जाता है।
३८- अच्‍छे कामों की सिद्धि में बड़ी देर लगती है, पर बुरे कामों की सिद्धि में यह बात नहीं।
३९- स्वार्थ की माया अत्यन्त प्रबल है |
४०- केवल बुद्धि के द्वारा ही मानव का मनुष्यत्व प्रकट होता है 
४१- सौभाग्य उन्हीं को प्राप्त होता है, जो अपने कर्तव्य पथ पर अविचल रहते हैं |
४२- कर्तव्य कभी आग और पानी की परवाह नहीं करता | कर्तव्य~पालन में ही चित्त की शांति है |
४३- अन्याय में सहयोग देना, अन्याय करने के ही समान है |
४४- मनुष्य कितना ही हृदयहीन हो, उसके ह्रदय के किसी न किसी कोने में पराग की भांति रस छिपा रहता है| जिस तरह पत्थर में आग छिपी रहती है, उसी तरह मनुष्य के ह्रदय में भी ~ चाहे वह कितना ही क्रूर क्यों न हो, उत्कृष्ट और कोमल भाव छिपे रहते हैं|
४५- जो प्रेम असहिष्णु हो, जो दूसरों के मनोभावों का तनिक भी विचार न करे, जो मिथ्या कलंक आरोपण करने में संकोच न करे, वह उन्माद है, प्रेम नहीं|
४६- मनुष्य बिगड़ता है या तो परिस्थितियों से अथवा पूर्व संस्कारों से| परिस्थितियों से गिरने वाला मनुष्य उन परिस्थितियों का त्याग करने से ही बच सकता है|
४७- चोर केवल दंड से ही नहीं बचना चाहता, वह अपमान से भी बचना चाहता है| वह दंड से उतना नहीं डरता जितना कि अपमान से|
४८- जीवन को सफल बनाने के लिए शिक्षा की जरुरत है, डिग्री की नहीं| हमारी डिग्री है ~ हमारा सेवा भाव, हमारी नम्रता, हमारे जीवन की सरलता| अगर यह डिग्री नहीं मिली, अगर हमारी आत्मा जागृत नहीं हुई तो कागज की डिग्री व्यर्थ है|
४९- साक्षरता अच्छी चीज है और उससे जीवन की कुछ समस्याएं हल हो जाती है, लेकिन यह समझना कि किसान निरा मुर्ख है, उसके साथ अन्याय करना है|
५०- दुनिया में विपत्ति से बढ़कर अनुभव सिखाने वाला कोई भी विद्यालय आज तक नहीं खुला है|
५१- हम जिनके लिए त्याग करते हैं, उनसे किसी बदले की आशा ना रखकर भी उनके मन पर शासन करना चाहते हैं| चाहे वह शासन उन्हीं के हित के लिए हो| त्याग की मात्रा जितनी ज्यादा होती है, यह शासन भावना उतनी ही प्रबल होती है|
५२- क्रोध अत्यंत कठोर होता है| वह देखना चाहता है कि मेरा एक~एक वाक्य निशाने पर बैठा है या नहीं| वह मौन को सहन नहीं कर सकता| ऐसा कोई घातक शस्त्र नहीं है जो उसकी शस्त्रशाला में न हो, पर मौन वह मन्त्र है जिसके आगे उसकी सारी शक्ति विफल हो जाती है|
५३- कुल की प्रतिष्ठा भी विनम्रता और सद्व्यवहार से होती है, हेकड़ी और रुबाब दिखाने से नहीं|
५४- सौभाग्य उन्हीं को प्राप्त होता है जो अपने कर्तव्य पथ पर अविचल रहते हैं|
५५- दौलत से आदमी को जो सम्मान मिलता है, वह उसका नहीं, उसकी दौलत का सम्मान है|
५६- ऐश की भूख रोटियों से कभी नहीं मिटती| उसके लिए दुनिया के एक से एक उम्दा पदार्थ चाहिए|
५७-किसी किश्ती पर अगर फर्ज का मल्लाह न हो तो फिर उसके लिए दरिया में डूब जाने के सिवाय और कोई चारा नहीं|
५८- मनुष्य का उद्धार पुत्र से नहीं, अपने कर्मों से होता है| यश और कीर्ति भी कर्मों से प्राप्त होती है| संतान वह सबसे कठिन परीक्षा है, जो ईश्वर ने मनुष्य को परखने के लिए दी है| बड़ी~बड़ी आत्माएं, जो सभी परीक्षाओं में सफल हो जाती हैं, यहाँ ठोकर खाकर गिर पड़ती हैं|
५९- नीतिज्ञ के लिए अपना लक्ष्य ही सब कुछ है| आत्मा का उसके सामने कुछ मूल्य नहीं| गौरव सम्पन्न प्राणियों के लिए चरित्र बल ही सर्वप्रधान है|
६०- जीवन का वास्तविक सुख, दूसरों को सुख देने में हैं, उनका सुख लूटने में नहीं |
६१- उपहार और विरोध तो सुधारक के पुरस्कार हैं |
६२- जब हम अपनी भूल पर लज्जित होते हैं, तो यथार्थ बात अपने आप ही मुंह से निकल पड़ती है |
६३- अपनी भूल अपने ही हाथ सुधर जाए तो, यह उससे कहीं अच्छा है कि दूसरा उसे सुधारे |

बतकही

मुखिया ने कहा
मंत्रियों ने सुना,

मंत्रियों ने
कहा अधिकारियों से,
 
उन्होंने ने भी वैसे ही सुना
जैसे मंत्रियों ने सुना था,

कर्मचारियों के कान तक,
पहुँची वही बात 
जो अधिकारियों के द्वारा
सरकार से चली थी
जनता तक पहुँचा दी गई,

जनता कह रही है  जनता से ही
अब वही बात, 

हमारी बतकही 
सरकार की बात के साथ
सिर्फ विस्तार पाती है बस

© डॉ. भूपेन्द्र हरदेनिया