अवसरवादी राजनीति पर एक व्यंग्यात्मक कविता
कुकुरमुत्ते
उग आए हैं,
सियासी चाल लिए,
चुनावी बरसात के
मौसमी कुकुरमुत्ते।
जगह-जगह
हर जगह
वह फैला रहे हैं
अपनी बिसात,
इन्हें याद आता है,
केवल एक सत्र
जो उनके मनमाफिक बैठता है,
रंक को राजा
राजा को महाराजा
बनाने वाले
इस समय में
उग आते हैं वे
और कोशिश करते हैं,
एक से बढ़कर एक
दिखने की,
अपनी छतरीनुमा
टोपी को
कर लेना चाहते हैं
स्वर्ण सा रत्न जड़ित,
लगाते हैं
गुलाबों के साथ
अन्य साथी कुकुरमुत्ता पर
आरोप-प्रत्यारोप
स्वयं के अपराध बोध
को भूलकर,
और स्वार्थ सिद्ध
होते ही,
गायब होते हैं ऐसे,
जैसे गधे के सिर से
सींग।
लेकिन वास्तव में
गायब नहीं होते वे
बदल लेते हैं
केवल भेष अपना,
बन बैठते हैं
गुलाब,
वही निराला के
कुकुरमुत्ते का गुलाब
जो अशिष्ट है
खून पीता है
खाद का
और इतराता भी है
कैपिटलिस्ट की तरह,
बन जाते हैैं
ऐक्टिविस्ट की तरह वह,
जो उस समय
देखने और कहने को थे आपके
थे आपके दर पर
जैसे हाथी के दांत,
आज खुद महलों में
शोभायमान हैं
सात पीढ़ियों के बंदोबस्त में
उन्हें नहीं रहती सुध आपकी,
करें भी क्यूं
पीढ़ियां सुरक्षित हैं उनकी,
भूल जाते हैं,
वह जानबूझकर
अपने कर्म पथ को
अपने आधार को,
अपनी जमीन को,
कि वह भी थे
कभी
कुकुरमुत्ते।
© डॉ. भूपेन्द्र हरदेनिया
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