शुक्रवार, 17 जनवरी 2020

कुकुरमुत्ते

अवसरवादी राजनीति पर एक व्यंग्यात्मक कविता

कुकुरमुत्ते

उग आए हैं,
सियासी चाल लिए,
चुनावी बरसात के
मौसमी कुकुरमुत्ते।

जगह-जगह
हर जगह
वह फैला रहे हैं
अपनी बिसात,

इन्हें याद आता है,
केवल एक सत्र
जो उनके मनमाफिक बैठता है,

रंक को राजा
राजा को महाराजा
बनाने वाले 
इस समय में 
उग आते हैं वे
और कोशिश करते हैं,
एक से बढ़कर एक
दिखने की,

अपनी छतरीनुमा
टोपी को 
कर लेना चाहते हैं
स्वर्ण सा रत्न जड़ित,

लगाते हैं
गुलाबों के साथ
अन्य साथी कुकुरमुत्ता पर
आरोप-प्रत्यारोप
स्वयं के अपराध बोध
को भूलकर,

और स्वार्थ सिद्ध
होते ही,
गायब होते हैं ऐसे,
जैसे गधे के सिर से
सींग।

लेकिन वास्तव में
गायब नहीं होते वे
बदल लेते हैं
केवल भेष अपना,

बन बैठते हैं
गुलाब,
वही निराला के
कुकुरमुत्ते का गुलाब
जो अशिष्ट है
खून पीता है
खाद का
और इतराता भी है
कैपिटलिस्ट की तरह,

बन जाते हैैं
ऐक्टिविस्ट की तरह वह,

जो उस समय
देखने और कहने को थे आपके
थे आपके दर पर
जैसे हाथी के दांत,

आज खुद महलों में
शोभायमान हैं
सात पीढ़ियों के बंदोबस्त में
उन्हें नहीं रहती सुध आपकी,

करें भी क्यूं
पीढ़ियां सुरक्षित हैं उनकी,

भूल जाते हैं,
वह जानबूझकर
अपने कर्म पथ को
अपने आधार को,
अपनी जमीन को,
कि वह भी थे
कभी
कुकुरमुत्ते।

© डॉ. भूपेन्द्र हरदेनिया

तीसरी बेटी

तीसरी बेटी
दो बेटियों के बाद उम्मीद थी,
एक बेटा होने की।
आस थी, कर सकेगा सहयोग?
हमारा? घर में?
पर इत्तफाकन
जगह बेटे के, हुई तीसरी बेटी
उसका आगमन
उल्लास की जगह रूदन
सिर्फ खामोषी और मातम
पर कारण क्या
न पाल पाने का या डर समाज का
गरीबी का या असुरक्षा का
दहेज का या सिर्फ अज्ञान का
या सिर्फ और सिर्फ
लड़की होने का।
अब क्या हो
कुछ नहीं,
निर्णय सिर्फ यही
कि अब इसे नहीं रखा जा सकता
पालन-पोषण  इसका यहॉं
किया नहीं जा सकता
मजबूरी है सरकार
इसके आने से घर पर
पड़ेगा अतिरिक्त भार
अब इसका क्या करना होगा
किसी को गोद दे कर
या इसे दान कर
किसी सूनी को गोद भर देना होगा
जानती हो भागवान
यह भी एक पुण्य कर्म होगा
लेकिन
जगह बेटी के
होता अगर तीसरा बेटा
तो क्या
 यह पुण्य कर्म कोई करता
कोई किसी की सूनी कोख भरता।
क्या फिर उस लड़के का दान हो पाता।।
फिर लड़कियों का दान क्यॅंू?
यह एक सवाल है
जबाव सिर्फ
लड़की होने का है
इसीलिए दान भी उसी का है
कन्यादान इत्यादि।



ख्वाहिशें और खयाल

ख्वाहिशें और खयाल

बेटियांँ अक्सर 
खूबसूरत ख्वाहिशों के साथ
पला, बढा़ करती हैं,

पर गुजा़र देती हैं 
पूरी ज़िंदगी
अपनों का खयाल रखने में ,

अपना
हर लम्हा
पुष्पार्पित करती हैं
परिवार के देवालय में,

खयाल रखती हैं वह
हर रूप में हर किसी का
हर जगह अपनी प्रस्थिति
भूमिका के साथ,

हर संबंध को 
एक कुशल कलाकार की कलाकारी 
कारीगर की कारीगरी की तरह 
करते हुए निर्वहन
समाये रहती हैं एक अलग 
वृहद संसार को
अपने आप में
अन्तर्मन में
गढ़ती रहती है एक मूर्ति
नित खंडित कर
स्वयं को,

सम्बन्धों में विस्तार पाती बेटियाँ
जो संकुचित ही रहती हैं 
स्वयं में हमेशा,
बहुत बडे़ दायरे को 
समेटते समेटते
खुद की सिकुड़न के साथ
अधूरी रह जाती हैं
तो सिर्फ 
और सिर्फ 
उनकी ख्वाहिशें
और वह,

 ख़्वाहिशें 
सिर्फ़ खयालों में|

डाॅ. भूपेन्द्र हरदेनिया

अम्मा का करवा चौथ

अम्मा का करवा चौथ

एक बर्तन वाली अम्मा
जो सुबह सुबह जगा जाती है
परिवार जनों को
बर्तन माँझने के बहाने
और कभी कभी सुनाती है
किस्से
अपने उन बीते दिनों के
जो उसने 
जिये नहीं थे
थे सिर्फ भोगे 
काटे थे गुजारे थे,

वो सुनाती है
किस्सा अपना
कभी बेचा था
उसे
उसके ही पति ने 
किसी दूसरे आदमी को,

आज विक्रयी अम्मा
करवा चौथ के प्रश्न पर
सिर्फ प्रश्न चिह्न है
जबाव भी एक प्रश्न
वह यह
कि व्रत किसके लिये
अपने क्रेता पति के लिये
या विक्रेता पति के लिये


डायरी के पन्ने

डायरी के पन्ने

एक दिन पुरानी डायरी का एक पन्ना
अचानक जैसे कुछ कहने लगा
उभरकर कर आए अचानक कुछ नाम 
जो सम्बन्धित थे

एक खुशी से और वह थी भविष्य में,
घर में बच्चे के जन्म लेने जैसी घटना की 
पिता बनने की
इसीलिए अति उत्साह का संचार भी अंतरंग में
साथ इसी के जन्म लेती है एक योजना
योजना अजन्मे बच्चे के नामकरण की

योजना एक विलग किस्म के नाम की,संस्कार की

सोचा गया,पड़ताल की गई,खंगाला गया
शब्दकोशों और विश्वनाम कोशों को,
विवेचना हुई,हुआ विमर्श 
कुछ श्रेष्ठ नामों और उनके अर्थ-पर्यायों पर 
नाम जो निष्कर्षतः सामने थे
जिन्हें चुना गया था मेरे द्वारा सामूहिक रूप से
वे थे वैदिकविनायक,अध्वर्यु,, सिद्धार्थ,ऋषभ,व्योमहर्ष,जलजविलोचन,नलिनकैवल्य
शिशु के जन्म के अट्ठारह माह बाद
वे नाम जो कभी लिखे थे किसी पृष्ठ पर
वे पृष्ठ मानो जानबूझकर कर रहे थे इंतजार समय का
दिखाने के लिए आईना।
इसीलिए वे पुनः उपस्थित हुए मेरे समक्ष
वे ही पृष्ठ मुझे मेरी तत्कालिक मनः स्थिति के लिए कोस रहे हैं
दे रहे हैं उलाहना उन्हीं नामों को प्रत्यक्षदर्शी बनाकर
अभिशप्त,श्रापित-सा मुझे छोड़ पलट जाते हैं फेरकर मुंह अपना 
लौट जाते हैं अपने पन्ने साथियों के पास 
धकेल जाते हैं पछताने के लिए 
अकेला अग्निवन मेंझुलसने के लिए मुझे।