गुरुवार, 16 जुलाई 2020

पुनर्जन्म

अभी तक पुनर्जन्म के
सुने और सुनाये गये
किस्से कई,

कई बार सिरे से
किया गया खारिज
इस अवधारणा को

अनसुलझे से
रह गये प्रश्न कई 

माना जाता रहा 
इसके बारे में 
व्यक्ति के इहलोक
त्यागने के बाद होता है
पुनर्जन्म अनेकों बार

पर 
हम शायद
बहुत दूर की कौड़ी 
खोज रहे होते हैं उस समय,

नहीं जानते
बच्चों के जन्म के साथ ही
हम ले लेते हैं पुनर्जन्म
हमारा दुहराव
समक्ष  रहता है हमारे,

वर्ण, स्वर, आकृति
सत्व, बुद्धि 
बच्चे का सब कुछ तो 
होता ही वैसा 
जैसे होते अभिभावक,

इस उत्पत्ति में 
माता-पिता की 
आत्मा का होता है प्रवेश
संतान में 

और दोनों की आत्मा ही 
संचार करती है संतान में,

वह अवयवी होकर
बच्चों में ही जन्म लेते हैं
इसी तरह चलता रहता
पुनर्जन्म का सिलसिला
पीढ़ी दर पीढ़ी
परिवेश और समाज के साथ 
एक नये रूप में 

डाॅ. भूपेन्द्र हरदेनिया

सोमवार, 13 जुलाई 2020

न्यायकारिता

आज पुनः मार दिया
एक कुख्यात 
प्रख्यात,
दहशतगर्द
हत्यारा
गुंडा
अपने हत्यारे
साथियों के साथ,

कुछ अन्य 
खाकी
खादी 
मित्रों की
मिली भगत से,

और बच गये वे सभी
जो थे अन्य कई
हत्याओं और वारदातों के दोषी,
 
कब्र में दफना दिये गये 
कई राज
कई भेद
काले कारनामों के चिट्ठे
फिर से जला दिये गये
पहले की तरह ही,

न्यायकारिता
जाँच एजेंसियांँ
हमेशा की तरह हासिए
पर हैं, 

स्वाभाविक भी है
इनमें भी समाहित हैं,
अन्याईयों की शक्तियांँ|

डाॅ. भूपेन्द्र हरदेनिया

सत्य हाशिए पर रहता है

हर व्यक्ति समझदार होता है
कब तक ?

जब तक
उसमें झूठ सहन करने की
छल को झेलने की 
कपट को पी जाने की
दुराव-छुपाव के साथ
की गई चालाकियों को 
समझते हुए भी
नासमझ रहने की 
सारे भावों-कुभावों
को हृदय की गुहा में
समाये रखने की
चाटुकारिता की
चारणवृत्ति की
विरुदावली गायन की
दलगत भावना को
बनाये रख
केवल दृष्टा बने रहने की
रहती है समझदारी ,

जब सारे भाव 
छलकते हैं
कुम्भोच्छलनवत्
अतिरेक होने से,

कहने लगता है
सत्य वह
यथार्थ के साथ
जिसे करता था
नज़रअंदाज कभी,

लोगों को 
लगने लगते हैं
विद्रोही स्वर

माना जाने लगता है
अब नहीं रहा
समझदार वह
कई तथाकथितों की 
नज़रों में,

सबका होते हुए भी
नहीं रहता किसी का,
उनका भी जिनका कभी था,

आखिर
हाशिए पर 
रख दिया जाता है वह
हर जगह 
सत्य के साथ|

डाॅ. भूपेन्द्र हरदेनिया

सोमवार, 6 जुलाई 2020

ग़ज़ल जिन्दगी की, गीत सावन का



बादल घिर आएँ सावन में,  तो मजा लीजिएगा
पर गुज़िश्ता की सताए याद, तो क्या कीजिएगा|

वे छूटे खूबसूरत पल, वैसा नहीं दिखता ज़माना
कोई बिगड़कर बिछड़ जाये, तो क्या कीजियेगा|

कोयल की कूक सुकून सी, मन खुश होता था,
किसी दिल में उठे  हूक,  तो क्या कीजियेगा|

मतवारी मल्हारें मधुर,  झूलों के किस्से सावन के
कोई समझ न पाए मर्म,    तो क्या कीजियेगा|

हल्की बूँदें हवाओं के गीत, आम की खट्टी कैरियाँ|
कड़वे  रिश्तों में छायी उदासी,  तो क्या कीजियेगा|

आसमान छूती पतंगों की लटकती डोरियाँ हाथों में|
हारे प्रेम में होंसले पस्त हो, तो क्या कीजियेगा|

पानी में डालते ही तैर गईं, बच्चों की कश्तियांँ
बड़प्पन में सारे ख्वाब डूब जाए, तो क्या कीजियेगा

मोरों का नर्तन और कीर्तन, बीज फूटते सावन में
हो जाए फ़ाक़ाकश इंसान , तो क्या कीजियेगा|

रिमझिम फुहारों के मौसम, फैली बहार हर तरफ
 मन रेगिस्ताँ दिल दश्त हो, तो क्या कीजियेगा

अब उपमानों में ही रह गया है, वो मदमस्त सावन
प्यार का अहसास बदल जाये, तो क्या कीजियेगा

सब चलता है, चलता रहेगा ये जीवन "मौलिक" है |
व्यस्त जिन्दगी भूले बचपन, तो क्या कीजिएगा||

डाॅ. भूपेन्द्र हरदेनिया "मौलिक"

गुजिश्ताँ-भूतकाल
दश्त-उजाड़ जंगल
फ़ाक़ाकश-रोजी रोटी को मोहताज़
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