सोमवार, 6 जुलाई 2020

ग़ज़ल जिन्दगी की, गीत सावन का



बादल घिर आएँ सावन में,  तो मजा लीजिएगा
पर गुज़िश्ता की सताए याद, तो क्या कीजिएगा|

वे छूटे खूबसूरत पल, वैसा नहीं दिखता ज़माना
कोई बिगड़कर बिछड़ जाये, तो क्या कीजियेगा|

कोयल की कूक सुकून सी, मन खुश होता था,
किसी दिल में उठे  हूक,  तो क्या कीजियेगा|

मतवारी मल्हारें मधुर,  झूलों के किस्से सावन के
कोई समझ न पाए मर्म,    तो क्या कीजियेगा|

हल्की बूँदें हवाओं के गीत, आम की खट्टी कैरियाँ|
कड़वे  रिश्तों में छायी उदासी,  तो क्या कीजियेगा|

आसमान छूती पतंगों की लटकती डोरियाँ हाथों में|
हारे प्रेम में होंसले पस्त हो, तो क्या कीजियेगा|

पानी में डालते ही तैर गईं, बच्चों की कश्तियांँ
बड़प्पन में सारे ख्वाब डूब जाए, तो क्या कीजियेगा

मोरों का नर्तन और कीर्तन, बीज फूटते सावन में
हो जाए फ़ाक़ाकश इंसान , तो क्या कीजियेगा|

रिमझिम फुहारों के मौसम, फैली बहार हर तरफ
 मन रेगिस्ताँ दिल दश्त हो, तो क्या कीजियेगा

अब उपमानों में ही रह गया है, वो मदमस्त सावन
प्यार का अहसास बदल जाये, तो क्या कीजियेगा

सब चलता है, चलता रहेगा ये जीवन "मौलिक" है |
व्यस्त जिन्दगी भूले बचपन, तो क्या कीजिएगा||

डाॅ. भूपेन्द्र हरदेनिया "मौलिक"

गुजिश्ताँ-भूतकाल
दश्त-उजाड़ जंगल
फ़ाक़ाकश-रोजी रोटी को मोहताज़
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