शुक्रवार, 23 अक्टूबर 2020

हूंक

🕉🕉🛐
👀चालाकियां 
चारों तरफ,
➖➖➖
विरक्तियां 
सब के मन में,
➖➖➖
मजबूरियां
फॅंसती हैं सबके साथ,
➖➖➖
सुनना
किसी की नहीं है,
➖➖➖
समझदार 
सब ,
❓❓❓
समझना
कोई नहीं चाह रहा,
🤔🤔🤔
जमाना
बदलता जा रहा ,
➿➿➿
संवेदनाएं
मर चुकी हैं,
🎶🎶🎶
करुणा
गुजरे जमाने की बात हुई,
🔯🔯🔯
धन
माई बाप सबका,
💲💲💲
त्यागी
बनना नहीं चाहता कोई,
♦♦♦
त्याग 
सब चाहते हैं  दूसरों से,
🔔🔔🔔
पालिटिक्स
गांव गांव घर-घर
🎭🎭🎭
डॉ. भूपेन्द्र हरदेनिया

आइऐ जाने असली पर्यावरण योद्धा पीपल बाबा कोजिन्होंने लगाए दो करोड़ से अधिक पौधे

पीपल बाबा या स्वामी प्रेम परिवार एक पर्यावरणविद् है जिन्होंने अपनी टीम के साथ भारत के 18 राज्यों में 202 जिलों में 20 मिलियन से अधिक पेड़ लगाए हैं। 

मिलिए दो करोड़ से भी ज्यादा पेड़ लगवाने वाले पीपल बाबा से!

पीपल बाबा का मानना है कि अगर कोई 16 पेड़ काटेगा तो वह 16 हज़ार पेड़ लगा देंगे।

जलती धरती जलता आसमान
दिन दिन झेल रहे प्रदूषण की मार
साथ में आ पड़ी ये आपदा विकराल
अब कौन करेगा इसका समाधान

अगर पीपल बाबा की मानें तो इन सबका सिर्फ एक ही समाधान है और वो हैं पेड़। इस बात को हममें से शायद ही कोई नकारेगा। इसलिए तो पीपल बाबा यानी स्वामी प्रेम परिवर्तन ने पेड़ लगाने को ही अपनी रोज की नौकरी बना ली और जीवन इसी सेवा भाव में न्यौछावर कर दिया। पीपल बाबा ने पिछले करीब 44 साल में 2 करोड़ से ज्यादा पेड़ लगाए हैं और उनका ये सफर इस कोरोना काल में भी जारी है।

उन्होंने उत्तर प्रदेश, दिल्ली-एनसीआर, हरियाणा, महाराष्ट्र, जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और राजस्थान समेत 18 राज्यों के करीब 202 जिले में पेड़ लगवाए हैं और इनका साथ दे रहे हैं देश के करीब 14 हजार वॉलेंटियर। जबकि इनके खुद के ‘एनजीओ गिव मी ट्रीज ट्रस्ट’ में 30 फुल टाइम वर्कर काम करते हैं।

स्वामी प्रेम परिवर्तन उर्फ़ पीपल बाबा

कैसे हुई शुरुआत?

ये साल 1977 की बात है। स्वामी प्रेम परिवर्तन का बचपन का नाम आजाद था और पिता सेना में डॉक्टर थे। चौथी कक्षा में पढ़ने वाले आजाद को उनकी टीचर अक्सर पर्यावरण के महत्व के बारे में बताती थीं। साथ ही सचेत भी करती थीं कि आगे चलकर नदियां सूख जाएंगी। तो 10 साल के आजाद ने 26 जनवरी के दिन अपनी मैडम से पूछ ही लिया कि मैडम हम क्या कर सकते हैं? इसका जवाब मैडम ने ये दिया कि क्लाइमेट चेंज, ग्लोबल वॉर्मिंग, प्रदूषण सबका उपाय पेड़ है। आजाद ने घर आकर ये बात अपनी नानी को बताई। नानी भी पेड़ों के महत्व को अच्छे से जानती थीं। आजाद जब उदास भी होते तो उन्हें पेड़ों के नीचे ही बैठने के लिए कहती थीं। तो उस दिन भी नानी ने कहा कि हाँ तुम पेड़ लगाओ।

प्रेम बताते हैं, ‘‘मैं उसी दिन अपने माली काका की साइकिल पर बैठकर गया, नर्सरी से 9 पौधे खरीदे। वो आज भी आपको रेंज हिल रोड, खिड़की कैंटोनमेंट, पुणे में 9 पेड़ आपको मिल जाएंगे।’’ उस दिन के बाद से उनकी जो यात्रा शुरू हुई है वो आज भी जारी है। पीपल बाबा सिर्फ पेड़ लगाकर छोड़ नहीं देते हैं बल्कि उनका ख्याल भी रखते हैं।

बच्चों के साथ पेड़ लगाते पीपल बाबा

पीपल बाबा ने अपनी पढ़ाई इंग्लिश में पोस्ट ग्रेजुएशन तक की है। इसके बाद उन्होंने अलग-अलग कंपनियों में 13 साल तक इंग्लिश एजुकेशन ऑफिसर के तौर पर काम किया। इसी के साथ ही उनकी पेड़ लगाने की यात्रा चलती रही। इसके बाद उन्होंने इसे फुल टाइम काम बना लिया। हालांकि अपने जीवनयापन और फैमिली के लिए वो ट्यूशन्स देते रहे और आज भी देते हैं। परिवार ने उनका इस काम में पूरा साथ दिया।

साल 2010 में फिल्म स्टार जॉन अब्राहम ने इनके काम को नोटिस किया। उन्होंने ही एक इस काम को बड़े स्केल पर ले जाने और सोशल मीडिया पर आने की सलाह दी। जिसके बाद पीपल बाबा ने 2011 में गिव मी ट्रीज ट्रस्ट की स्थापना की।

कोरोना में भी जारी है पेड़ लगाने का काम?

पेड़ लगाने की तैयारी करते हुए पीपल बाबा के एनजीओ के लोग

पीपल बाबा करीब 44 साल से पेड़ लगा रहे हैं। क्योंकि पिता मिलिट्री में थो देश के हिस्सों में काम करने का मौका मिला। पिछले 20 साल से उन्होंने दिल्ली को अपना बेस कैंप बनाया हुआ है। अपनी संस्था के जरिए देशभर में पेड़ लगवाते हैं। इसी सिलसिले में पौधे लेने के लिए 19 मार्च को वह हरिद्वार पहुंचे थे। वह जहां गए थे वहां कोरोना पोजेटिव केस आने की वजह से इलाके को सील कर दिया गया। वहां रहते हुए भी उन्होंने आसपास के गांवों में 1 हजार 64 पेड़ लगवा दिए। इसके अलावा दिल्ली लौटने के बाद उन्होंने लखनऊ, नोएडा और दिल्ली में पड़े लगवाए। कुल मिलाकर कोरोना काल में भी पीपल बाबा ने अब तक 8064 पेड़ लगवा दिए हैं।

एक-एक पेड़ का हिसाब रखने पर जब उनसे सवाल पूछा गया तो उन्होंने कहा, “हमें अपने कर्मों को ऑडिट करते रहना चाहिए। तभी मैं एक एक पेड़ का हिसाब रखता हूँ। मेरे पास पुरानी फाइल्स भी हैं जिनमें से आप जबका पूछोगे मैं तब बता सकता हूं कि कौन सा पेड़ कब लगाया।”

पीपल बाबा नाम कैसे पड़ा?

पीपल बाबा ने जो 2 करोड़ से ज्यादा जो पेड़ लगाए हैं, उनमें करीब सवा करोड़ पेड़ नीम और पीपल के हैं। उनका कहना है, “हम इंडियन अपनी रूट से जुड़े हैं जिन्हें आम चीजें ज्यादा समझ आती है, लोगों को नीम, पीपल और बरगद के पेड़ ज्यादा समझ आते हैं। वैसे हम जामुन, अमरूद, इमली और जगह के हिसाब से अलग अलग पेड़ लगाते हैं। लेकिन पीपल पवित्र पेड़ माना जाता है। इस पेड़ से कई तरह की धार्मिक भावनाएं जुड़ी होती हैं, कई मान्यताएं और पौराणिक महत्व भी हैं। जिससे वैसे तो कोई इसे लगाता नहीं लेकिन लगा दिया तो इसे कोई काटने नहीं आता।”

पहली बार किसने बुलाया पीपल बाबा?

स्वामी प्रेम परिवर्तन बताते हैं, “मैं राजस्थान के पाली जिला में गया था किसी के साथ। तो किसी ने कहा कि कुएं सूख रहे हैं तो इसका उपाय बताइए। तो हमने बचपन में पंजाब के किसानों से सुना था कि आप बड़ का पेड़ लगाएँ क्योंकि उसकी जड़ें पानी खींचती हैं। वो वहां आसपास के कई जिलों पर हमने पीपल और बड़ के बहुत पेड़ लगाए। तो पाली में एक चौपाल लगी थी और वहां के सरपंच ने मेरा इंट्रोडक्शन पीपल बाबा के नाम से कराया। जिसे सुनकर मैं खुद चौंक गया और उसे बाद हर तरफ मुझे पीपल बाबा ही कहा जाने लगा।”

क्या पेड़ों को बचाने की भी किसी मुहिम में हिस्सा लेते हैं पीपल बाबा?

वॉलंटियर्स के साथ पीपल बाबा

इस पर पीपल बाबा कहा कहना है, “इस जीवन में मेरे पास धरना देने या ऐसी चीजों का समय नहीं है। मैं अगर आधा घंटा भी बैठूंगा तो इनती देर में मेरे 7-8 पेड़ और लग जाएंगे। कितने पेड़ काटेंगे? 16 काटेंगे हम 16 हजार लगा दें। मेरी नानी कहा करती थीं आप पेड़ लगाने वालों की संख्या बढ़ाओ, आप पेड़ काटने वालों की संख्या घटा नहीं सकते।”

पीपल बाबा आम लोगों से भी आग्रह करते हैं कि हम सभी को पेड़ लगाने चाहिए। अगर आप भी पीपल बाबा के वॉलेंटियर बनना चाहते हैं या उनकी किसी तरह से मदद करना चाहते हैं तो उनकी संस्था गिव मी ट्रीज ट्रस्ट से जुड़िए। या उन्हें 88003 26033 पर संपर्क कर सकते हैं।

https://www.google.com/amp/s/hindi.thebetterindia.com/40194/meet-peepal-baba-who-has-planted-more-than-two-crore-trees-ecofriendly-rohit-maurya/

आज हमारे पास डिग्रियां तो बहुत हैं पर नैतिक मूल्य नहीं है

मशहूर फिल्म कलाकार आशुतोष राणा की शिक्षा व्यवस्था पर एक अच्छी पोस्ट-

आज मेरे पूज्य पिताजी का जन्मदिन है सो उनको स्मरण करते हुए एक घटना साझा कर रहा हूँ।

बात सत्तर के दशक की है जब हमारे पूज्य पिताजी ने हमारे बड़े भाई मदनमोहन जो राबर्ट्सन कॉलेज जबलपुर से MSC कर रहे थे की सलाह पर हम ३ भाइयों को बेहतर शिक्षा के लिए गाडरवारा के कस्बाई विद्यालय से उठाकर जबलपुर शहर के क्राइस्टचर्च स्कूल में दाख़िला करा दिया। 
मध्य प्रदेश के महाकौशल अंचल में क्राइस्टचर्च उस समय अंग्रेज़ी माध्यम के विद्यालयों में अपने शीर्ष पर था। 

पूज्य बाबूजी व माँ हम तीनों भाइयों ( नंदकुमार, जयंत, व मैं आशुतोष ) का क्राइस्टचर्च में दाख़िला करा हमें हॉस्टल में छोड़ के अगले रविवार को पुनः मिलने का आश्वासन दे के वापस चले गए।

मुझे नहीं पता था कि जो इतवार आने वाला है, वह मेरे जीवन में सदा के लिए चिह्नित  होने वाला है, 

इतवार का मतलब छुट्टी होता है लेकिन सत्तर के दशक का वह इतवार मेरे जीवन की छुट्टी नहीं "घुट्टी" बन गया। 

इतवार की सुबह से ही मैं आह्लादित था, ये मेरे जीवन के पहले सात दिन थे,  जब मैं बिना माँ- बाबूजी के अपने घर से बाहर रहा था। 
मेरा मन मिश्रित भावों से भरा हुआ था, हृदय के किसी कोने में माँ,बाबूजी को इम्प्रेस करने का भाव बलवती हो रहा था , 
यही वो दिन था जब मुझे प्रेम और प्रभाव के बीच का अंतर समझ आया। 

बच्चे अपने माता पिता से सिर्फ़ प्रेम ही पाना नहीं चाहते वे उन्हें प्रभावित भी करना चाहते हैं। 

दोपहर ३.३० बजे हम हॉस्टल के विज़िटिंग रूम में आ गए•• 

ग्रीन ब्लेजर, वाइट पैंट, वाइट शर्ट, ग्रीन एंड वाइट स्ट्राइब वाली टाई और बाटा के ब्लैक नॉटी बॉय शूज़.. ये हमारी स्कूल यूनीफ़ॉर्म थी। 

हमने विज़िटिंग रूम की खिड़की से, स्कूल के कैम्पस में- मेन गेट से हमारी मिलेट्री ग्रीन कलर की ओपन फ़ोर्ड जीप को अंदर आते हुए देखा, जिसे मेरे बड़े भाई मोहन जिन्हें पूरा घर भाईजी कहता था, ड्राइव कर रहे थे और माँ बाबूजी बैठे हुए थे। 

मैं बेहद उत्साहित था मुझे अपने पर पूर्ण विश्वास था कि आज इन दोनों को इम्प्रेस कर ही लूँगा। 
मैंने पुष्टि करने के लिए जयंत भैया,  जो मुझसे ६ वर्ष बड़े हैं, उनसे पूछा मैं कैसा लग रहा हूँ ? 

वे मुझसे अशर्त प्रेम करते थे, मुझे ले के प्रोटेक्टिव भी थे, बोले, शानदार लग रहे हो !   

नंद भैया ने उनकी बात का अनुमोदन कर मेरे हौसले को और बढ़ा दिया।

जीप रुकी.. 

उलटे पल्ले की गोल्डन ऑरेंज साड़ी में माँ और झक्क सफ़ेद धोती - कुर्ता ,गांधी - टोपी और काली जवाहर - बंडी में बाबूजी उससे उतरे, 

हम दौड़ कर उनसे नहीं मिल सकते थे, ये स्कूल के नियमों के ख़िलाफ़ था, सो मीटिंग हॉल में जैसे सैनिक विश्राम की मुद्रा में अलर्ट खड़ा रहता है , एक लाइन में हम तीनों भाई खड़े-खड़े  माँ बाबूजी का अपने पास पहुँचने का इंतज़ार करने लगे, 

जैसे ही वे क़रीब आए, हम तीनों भाइयों ने सम्मिलित स्वर में अपनी जगह पर खड़े- खड़े  ही Good evening Mummy!
 Good evening Babuji ! कहा। 

मैंने देखा good evening सुनके बाबूजी हल्का सा चौंके फिर तुरंत ही उनके चेहरे पे हल्की स्मित आई,  जिसमें बेहद लाड़ था !

मैं समझ गया कि ये प्रभावित हो चुके हैं ।

 मैं जो माँ से लिपटा ही रहता था,  माँ के क़रीब नहीं जा रहा था ताकि उन्हें पता चले कि मैं इंडिपेंडेंट हो गया हूँ .. 

माँ ने अपनी स्नेहसिक्त - मुस्कान से मुझे छुआ, मैं माँ से लिपटना चाहता था किंतु जगह पर खड़े - खड़े मुस्कुराकर अपने आत्मनिर्भर होने का उन्हें सबूत दिया। 

माँ ने बाबूजी को देखा और मुस्कुरा दीं, मैं समझ गया कि ये प्रभावित हो गईं हैं। 

माँ, बाबूजी, भाईजी और हम तीन भाई हॉल के एक कोने में बैठ बातें करने लगे हमसे पूरे हफ़्ते का विवरण माँगा गया, और 

६.३० बजे के लगभग बाबूजी ने हमसे कहा कि अपना सामान पैक करो, तुम लोगों को गाडरवारा वापस चलना है वहीं आगे की पढ़ाई होगी•• 

हमने अचकचा के माँ की तरफ़ देखा।  माँ बाबूजी के समर्थन में दिखाई दीं। 

हमारे घर में प्रश्न पूछने की आज़ादी थी।  घर के नियम के मुताबिक़ छोटों को पहले अपनी बात रखने का अधिकार था, सो नियमानुसार पहला सवाल मैंने दागा और बाबूजी से गाडरवारा वापस ले जाने का कारण पूछा ? 

उन्होंने कहा,  *रानाजी ! मैं तुम्हें मात्र अच्छा विद्यार्थी नहीं, एक अच्छा व्यक्ति बनाना चाहता हूँ !* 

*तुम लोगों को यहाँ नया सीखने भेजा था पुराना भूलने नहीं !* 

*कोई नया यदि पुराने को भुला दे तो उस नए की शुभता संदेह के दायरे में आ जाती है,*

*हमारे घर में हर छोटा अपने से बड़े परिजन,परिचित,अपरिचित , जो भी उसके सम्पर्क में आता है, उसके चरण स्पर्श कर अपना सम्मान निवेदित करता है !*

   *लेकिन हमने  देखा कि इस नए वातावरण ने मात्र सात दिनों में ही मेरे बच्चों को, परिचित छोड़ो , अपने माता पिता से ही चरण-  स्पर्श की जगह Good evening कहना सिखा दिया। मैं नहीं कहता कि इस अभिवादन में सम्मान नहीं है, किंतु चरण स्पर्श करने में सम्मान होता है,  यह मैं विश्वास से कह सकता हूँ !*

*विद्या व्यक्ति को संवेदनशील बनाने के लिए होती है संवेदनहीन बनाने के लिए नहीं होती !* 

*मैंने देखा , तुम अपनी माँ से लिपटना चाहते थे लेकिन तुम दूर ही खड़े रहे, विद्या दूर खड़े व्यक्ति के पास जाने का हुनर देती है , नाकि अपने से जुड़े हुए से दूर करने का काम करती है !* 

*आज मुझे विद्यालय और स्कूल का अंतर समझ आया, व्यक्ति को जो शिक्षा दे, वह विद्यालय और  जो उसे सिर्फ़ साक्षर बनाए वह स्कूल !*

*मैं नहीं चाहता कि मेरे बच्चे सिर्फ़ साक्षर हो के डिग्रियों के बोझ से दब जाएँ, मैं अपने बच्चों को शिक्षित कर दर्द को समझने, उसके बोझ को हल्का करने की महारत देना चाहता हूँ !* 

*मैंने तुम्हें अंग्रेज़ी भाषा सीखने के लिए भेजा था, आत्मीय भाव भूलने के लिए नहीं!* 
*संवेदनहीन साक्षर होने से कहीं अच्छा, संवेदनशील निरक्षर होना है इसलिए बिस्तर बाँधो और घर चलो !*

 हम तीनों भाई तुरंत माँ बाबूजी के चरणों में गिर गए, उन्होंने हमें उठा कर गले से लगा लिया.. व शुभ -आशीर्वाद दिया कि 

*किसी और के जैसे नहीं स्वयं के जैसे बनो..* 

पूज्य बाबूजी ! जब भी कभी थकता हूँ या हार की कगार पर खड़ा होता हूँ तो आपका यह आशीर्वाद "किसी और के जैसे नहीं स्वयं के जैसे बनो" संजीवनी बन नव ऊर्जा का संचार कर हृदय को उत्साह उल्लास से भर देता है । आपको प्रणाम
Ashutosh Rana
नोट :- *अपनी संस्कृति , सभ्यता और आचरण की सहज सरलता भुलाकर डिग्री भले हासिल हो जाये ,ज्ञान नहीं प्राप्त हुआ , निःसंदेह*। आज हमारे पास डिग्रियां तो बहुत हैं पर नैतिक मूल्य नहीं है पैसे की अंधी दौड़ में हम आगे तो बढ़े चले जा रहे हैं लेकिन हम अपने आसपास के और चारों के माहौल को बिगाड़ते जा रहे हैं, पर्यावरण की चिंता भी हमें नहीं हो रही। संस्कृति के विभिन्न पहलू क्षीण होते जा रहे हैं, आपसी वैमनस्यता बढ़ती जा रही है, घर से बाहर सभी जगह केवल प्रतियोगिता का दौर है क्या यही है हमारी वास्तविक शिक्षा।

महिला किसान

एक अलग ही खाके में रची बसी रहती हैं वे,
अपार पुरुषत्व, वज्र देह,
अपने मजबूत हाथों
और पैरों की फटी विमाइयों के साथ
नाप लेती हैं अपनी पूरी जिंदगी की धरती
घर से खेतों की मेंढ़ों तक
फिर वापस अपने ज़हान में,

सबसे पहले उन्हें ही पता पड़ता है
सुबह का,

रात भी बतियाती है उन्हीं से,

ब्रह्म बेला में चौपायों के गले की घंटी से
शुरू उनकी जिंदगी 
खेत में काम करते हुए
चिलचिलाती झुलसा देने वाली धूप
और बहुत कुछ वज़न के साथ चलती रहती है,

सुकून पाती हैं धान की फुनगियां भी
उसकी देह की छांव में

सब काम निपटाकर
किसानी के लिए अपने हार पर जाना
लौटते हुए सिर पर घास का गट्ठर
हाथ में एक बाल्टी पानी और हंसिया सहित
काटती हैं अपनी ज़िंदगी,

महिला किसान का सफर
घर के सभी सदस्यों के भोजन,  बर्तन तक भी
खत्म नहीं होता, 

सभी को सुलाकर 
वह ठंडी पड़ जाती है रात की तरह
सुबह-सुबह फिर से जो तपना है उसे।
करना है युद्ध हर दिन की तरह।

महिला किसान 
वाकई में होती हैं
तप की देवियां 
वही होती हैं वास्तव में
विधाता की भी विधाता।

© डॉ. भूपेन्द्र हरदेनिया

महाभोज अतिथि विद्वानों पर

उन्होंने दिए धरने 
कुछ सत्ताधारी आये 
वे वादा करके चले गए
और उन्होंने धरना खत्म किया…....

वे भूल गए।

उन्होंने फिर धरने दिए

वे फिर आए, 
अब विपक्ष में थे वे,

सरकार में आने पर 
वादा पूरा करने का आश्वासन 
दिया गया 
फिर से
कहा गया अबकी पक्का।

सत्ता में आते ही
वे फिर भूल गए, प्रवृत्तिगत
अबकी ऐसा भूले
कि पहचानने से ही कर रहे
इंकार,

सत्ता, विपक्ष और फिर सत्ता में आने के अंतराल में
कई धरनाकार मारे गए,
कइयों के बच्चे हुए अनाथ
कई हुईं विधवाएं

 गरीबी, 
अभाव, 
कुछ बीमारी का इलाज
न करा पाने के कारण

पर वादाकारों के कांनों
रेंगी नहीं जूं तक

हमेशा सरकारें, नेता
या वास्तव में वे अभिनेता
धरनाकारों के अरमानों से खेलते रहे हैं,
वे सपने बेचते रहे हैं।

इस प्रकार
अतिथि विद्वानों
जो धरनाकार थे कभी
उनकी लाशों पर
करते रहे हैं वे महाभोज श्वानों की तरह

© डॉ. भूपेन्द्र हरदेनिया

वास्तविक शिक्षा

अगर हम अपने आस-पास के माहौल से हैं अनभिज्ञ
नहीं सोचते अपनी संस्कृति के बारे में।

वे छोटी-छोटी सी चीजें जो धीरे-धीरे
आ रहीं हैं अपने वृहद और विकराल रूप में
बन रहीं हैं मानव जीवन को खतरा
उनसे नहीं हैं हम वाकिफ
या करते रहते हैं नजरअंदाज उन्हें।

हमारे अंदर अगर प्रस्फुटित नहीं होतीं
मानवीय संवेदनाएं
कपट, कुटिलता, चालाकियों और छद्माभेष से
करते रहते हैं, अपने घर से लेकर बाहर तक सबको भग्न।

हम अगर नहीं करते फ़िक्र
अपने आस पड़ोस, गली मोहल्ले, शहर, देश
वहां की आवोहवा की
प्रकृति, पर्यावरण, नदियों, तालाबों और पहाड़ों की।

प्रदूषित होने देते हैं नदियों को।

टूटने देते हैं पहाड़ों को
बदलने देते हैं उन्हें खदानों और गहरे गड्ढों में,
कटने देते हैं हरे भरे पेड़ों को,
नष्ट होने देते हैं
जंगल और निरीह जीव जंतुओं को।

तालाब में छेद कर मरने छोड़ देते हैं उसे
मुर्गे को हलाल कर छोड़ देते हैं जिस तरह
ताकि की जा सके खेती,
बन सके वहां भी मकानात
घेरा जा सके उस जगह को भी कभी

ध्यान नहीं रखते स्वच्छता का
बस करते रहते हैं अधारणीय विकास

बहने देते हैं वगैर टोंटी वाले नलों से बेतहाशा पानी 
कई लीटर जल बर्बाद होने पर हमारी आत्मा 
यदि हमें नहीं कचोटती 
तो वाकई हम 
आदिमानव से भी गये बीते होते हैं।

हो सकते हैं हम धनवान
कई उपाधियां और सम्मान 
भले ही हों हमारे नाम
साक्षर ही होते हैं हम बस तब
वास्तविक शिक्षित नहीं।

© डॉ. भूपेन्द्र हरदेनिया