शुक्रवार, 23 अक्टूबर 2020

महिला किसान

एक अलग ही खाके में रची बसी रहती हैं वे,
अपार पुरुषत्व, वज्र देह,
अपने मजबूत हाथों
और पैरों की फटी विमाइयों के साथ
नाप लेती हैं अपनी पूरी जिंदगी की धरती
घर से खेतों की मेंढ़ों तक
फिर वापस अपने ज़हान में,

सबसे पहले उन्हें ही पता पड़ता है
सुबह का,

रात भी बतियाती है उन्हीं से,

ब्रह्म बेला में चौपायों के गले की घंटी से
शुरू उनकी जिंदगी 
खेत में काम करते हुए
चिलचिलाती झुलसा देने वाली धूप
और बहुत कुछ वज़न के साथ चलती रहती है,

सुकून पाती हैं धान की फुनगियां भी
उसकी देह की छांव में

सब काम निपटाकर
किसानी के लिए अपने हार पर जाना
लौटते हुए सिर पर घास का गट्ठर
हाथ में एक बाल्टी पानी और हंसिया सहित
काटती हैं अपनी ज़िंदगी,

महिला किसान का सफर
घर के सभी सदस्यों के भोजन,  बर्तन तक भी
खत्म नहीं होता, 

सभी को सुलाकर 
वह ठंडी पड़ जाती है रात की तरह
सुबह-सुबह फिर से जो तपना है उसे।
करना है युद्ध हर दिन की तरह।

महिला किसान 
वाकई में होती हैं
तप की देवियां 
वही होती हैं वास्तव में
विधाता की भी विधाता।

© डॉ. भूपेन्द्र हरदेनिया

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