गुरुवार, 28 मई 2020

यह लाँकडाउन है,

यह लाँकडाउन है,

चल पड़े,
इसे लगते ही
वे मीलों के सफर
पैदल ही तय करने
कोई सौ, कोई पाँच सौ,
कई हजारों की दूरी ,
हालत खस्ता,
पस्त
रक्तल्प धमनियांँ
और शिराएँ
पैर अंकिश्त,
पेट चिपका
पीठ से,
अधोमुख
और
दिल की धड़कन डाउन है,
यह लाॅक डाउन है

झुलसा चेहरा
लथपथ काया
पैरों में
विवाँई
गहरे घाव
छालों के साथ
रक्त का आखिरी
कतरा
बस
दौड़ रहा है
पारे की एक बूँद की तरह
जीर्ण देह में,
एक आस
घर पहुँचने की
मंजिल दूर
विदीर्ण हृदय है,

पर क्या करना उन्हें
जिनके सर पर क्राउन है
यह लाॅक डाउन है
उपार्जन की
ऊम्मीद पर
चले थे
शहर की ओर
छिन गया
सब कुछ,
किसी को बेचनी पडी़
अपनी पायल,
तो किसी को अपने बैल
कइयों को
खुद ही जुतना पडा़,

नौनिहालों
को कंधों बिठाये
वत्सला
और
माँ को पीठ पर
लादे पुत्र

खाली पेट,
एक मुट्ठी
भुँजे चने
कुछ सिके आटे

भरपूर उम्मीद
के बल पर
कर रहे मैराथन
उन्हें नहीं पता
पुरस्कार
स्वरूप
जायेगी जान
यह
मौत का कामडाउन है|
यह लाॅक डाउन है|

निस्पृह
तीन दिन बाद
खाना देखकर रो उठती है
बदनसीबी
और दिल
दहल जाता है
हमारा,
अज़हल
इख्तिराई बयानों
को सुनकर
लगता है
खाल उतारकर
चमडा़
रंगने
की तैयारी है,
झूठे भरोसे
आश्वासनों ने
छला उन्हें
वहाँ चर्बआखोर निगहबान है,
यह लाॅक डाउन है|
इंतज़ाम के
अख़लकंद
से मूर्ख बनती
गरीब अवाम,

मधुप की तरह
जिसका
सार शहद
निचोड़कर
छोडा़ गया
झुण्ड में
मवेशियों के माफिक
भूख से रिरियाती हुईं
इस तपती गर्मी में
बदइंतजामी के शिकार
इनकी आफत में जान है,
नींद
कैसे आती होगी
उन्हें
जो इस देश के हुक्मरान है|
यह लाॅक डाउन है| -भूपेन्द्र हरदेनिया

शब्दार्थ-अंकिश्त-जली हुई लकड़ी
निष्पृह-जो मिल जाये उसी पर गुज़ारा करना
इख्तिराई-फर्जी
चर्बआखोर-मुफ्तखोर
अख़लकंद-झुनझुना
अज़हल-मूर्खतम
निगहबान-देखरेख करने वाला


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