केवल एक ही जन्म मानने (this is the first and last life) वाली पाश्चात्य धारणा से उत्पन्न विचार (बस यही एक जीवन है जिसे जितना जैसे मिले खा पीकर मौज करो, eat, drink and be marry) ही भौतिकवाद है। जहां से यह चला वहां लोगों ने इसे पचा लिया लेकिन हम इसे नहीं पचा पाए। अपितु यह हमारे जीवन पर दिनों दिन हावी होता चला गया।हमारे हाथ लगते ही यह अति भौतिकवाद में परिवर्तित होता चला गया।
आज हम सिर्फ भौतिक संसाधनों की सोचते है (घर होते हुए भी एक बड़े और नए घर की सोचते हैं, बहुत कुछ होते हुए भी और बहुत सारा, ज्यादा बेहतर और उस जैसा मेरे पास क्यों नहीं) की विचारधारा ने भारतीय मानसिकता का बंटाधार कर दिया है, लोगों के पास सुकून है, लेकिन उसको महसूस नहीं कर पा रहे हैं| खुशियां हैं, जिन्हें वे ढूंढ ही नहीं पा रहे हैं, या यह कहें कि उन्होंने इन खुशियों को इसी वजह से खो दिया| बहुत कुछ है, उनके पास वह है जो औरों के पास नहीं लेकिन वे उसे पहचान ही नहीं पा रहे हैं।
प्रतिस्पर्धा अच्छी हो सकती है, लेकिन प्रतिद्वंद्विता मेरी दृष्टि में शायद नहीं।
जो लोगों का है, वैसा ही या वह भी मेरा हो जाए या मैं सबसे ऊंचा प्रतिष्ठित हो जाऊं के विचार के चलते ही हम हमारे पीछे वालों को लात मार कर आगे बढ़ रहे हैं।
हम अपने दुख से दुखी व सुख से सुखी ना होकर दूसरे के दुख से सुख व सुख से दुखी होकर जी रहे हैं, इसी प्रकार समाज वैमनस्यता की ओर बढ़ जाता है।
शायद यही समाज में हो रहे अनाचार और सरकारों में हो रहे भ्रष्टाचार का आधार हो।
भौतिकवाद गलत हाथों में पड़ गया है इसे वही बचा सकता है जिसके अंदर करुणा व आध्यात्मिक चिंतन हो।
- डॉ. भूपेंद्र हरदेनिया
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