वे सोये थे
निश्चिंत भाव से
रेल की पटरी पर
उन्हें पता था कि
समय के साथ
कुछ चीजें
ठहर गईं हैं
अपनी जगह
पटरी भी शांत पडी़ है
ठंडी, शीतल
अंतर्ध्वनि रहित
उन्हें पता था
सब थिर है,
अभी
चल रहे हैं तो
केवल हम|
और वे सो जाते हैं
ठहराव के साथ
काल के भरोसे
अचानक!
रेल
धड़ाधड़ निकल गई
उनके ऊपर से
रेल के पहिये
कुचलते चले गये,
उनको,
उनकी पहचान को,
उनके भरोसे और ईमान को
उनके सपने और अरमान को
उनकी मेहनत को,
घर पहुँचने की छटपटाहट को
कई यादों को
कुछ उम्मीदों को
बहुत सारे जज्बों
और जिजीविषा को,
खेतों की सौंधी सुगंध
चारों ओर हरीतिमा युक्त
गाँव के एहसास को
पर यह पहली बार हुआ?
क्या पहले कभी कुचले नहीं गये वे
हाँ यह सच है
कि वे हमेशा से ही कुचले गये|
बस अब
रेल के पहियों ने उन्हें दबा दिया
पर क्या वे कभी दबाए नहीं गये
रेल बड़ी क्रूरता से
खाल उधेड़ती चली गई उनकी
लेकिन इससे पहले भी तो
उधेडी़ जाती रही उनकी खाल
रेल के पहियों ने उडा़ दिया
उनके चिथडो़ं को इस कदर
जिस तरह कभी
साहूकार उडा़ दिया करता था
गाँव में,
जब वह किसान था
शहर में मजदूर बनने के ठीक पहले|
शहर ने भी कहाँ बख्शा उन्हें
शहर को इतना कुछ तो दिया उन्होंने
भवन, अट्टालिकाएँ, चौडी़ सड़कें
न जाने क्या कुछ
जिनमें उनके रक्तिम पसीने की बूँदे
समाहित हैं,
पर शहर ने
क्या दिया उन्हें
वहाँ भी वे कुचल दिये गये
उसी तरह फुटपाथ पर
कई साहिबजादों द्वारा|
लगा दिया ग्रहण
उनकी आशाओं की किरणों पर
उन सेठों और मिल मालिकों ने
जिनसे जुड़े थे वे|
अब वे उन मजदूरों को
नहीं पहचानते
जिन्होंने दिन-रात मेहनत
कर अगणित व्यापार बढा़या
नक्काशीदार, स्वर्ण जडि़त
महलों को किया था तैयार,
पर साहूकारों ने नहीं की चिंता उनकी
अपनी पूँजी का तुच्छ हिस्सा भी
नहीं खर्च करना चाहते थे
इस महामारी में भी|
यन्त्रणा से ग्रसित
शायद इसलिए
अब वह सो जाना चाहते हैं
चिर निद्रा में
एक लम्बे आगोश में,
हमेशा के लिये|
सब कुछ लुट जाने
छूट जाने के बाद
अब कोई फर्क नहीं पड़ता उन्हें
वे जानते हैं
मरना ही उनकी
नियति है|
शहर हो
मिल हो
चाल हो
फुटपाथ हो
या
हो रेल की वह पटरी
जिस पर वह सो गया
या
वह गाँव
जहाँ पहुँचकर
उसे मरना ही था
अकाल से
भुखमरी से
अभाव से
घृणा से
हीनता से
या
फिर किसी न किसी के हाथों
-डाॅ. भूपेन्द्र हरदेनिया
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