एक कविता शिकायत भरी-
(गुरुदेव की याद में)
काल तुझसे शिकायत है मेरी
तू क्यूँ छलता आया है,
इस सम्पूर्ण मानव सृष्टि को
मुझे, मुझसे
मेरे अपने मेरे सपने,
जिसे हमेशा ही अपने छलावे से,
तूने छीना है मुझे,
मुझसे ही मेरे अपने
और मेरे सपने|
मेरा और उनका
समय आने से पहले
एक उत्तम गेंदबाज
की फेंकी गई तुम्हारी
गेंद पर
हमेशा ही चकमा खाकर
हुये हैं खेल से बाहर
मैं, मेरे अपने
और मेरे सपने
तूने नहीं होने दिया साकार
उन सपनों को जो मैंने देखे थे
अपनों के लिये
उलट
घनी धुंध का डालकर पर्दा
कर दिया उन्हें ओझल
और बिछड़ गया मैं
और वो मेरे अपने, मेरे सपने|
सूनी डायरी के नीरस पृष्ठों सी
मेरी जिंदगी
जिस पर लिखी जानी थी
कोई खुशी, कुछ प्रेम
कई फ़लसफ़े
कोई तरक्की
या
कुछ खट्टी मीठी यादें, कुछ इबारतें
लेकिन तूने नहीं बख्शा
जला दिया उन्हें
अपनी प्रचंड अग्नि से
कुछ इस तरह
कि खुलते जाते
जलते जाते
वे पन्ने एक-एक कर, बारी बारी से
एक-एक दिन की तरह
अलिखित-अदिखत|
नहीं चखने दिया स्वाद इसका तुमने|
गला दिया
जैसे पिघलते मोम सी टपकती जिंदगी|
तेरे गाल में समा चुके
मेरे अपने मेरे सपने|
तेरे छल से छले गये
हमेशा वे और खुद मैं भी|
तुम निष्ठुर
इतने क्रूर कैसे हो सकते हो
क्या तुम्हें मालूम नहीं
मेरे अपनों का जाना
मेरे जाने जैसा ही है
वह मेरे अपने ही थे
मेरे सपनों में शामिल
कुछ इस तरह कि
वह मेरे अपने नहीं
उनमें मैं ही था
और वो मुझमें
पर वे नहीं गये कहीं
गया फिर से मैं ही
अब मैं फिर मर चुका हूँ
और हमेशा
मैं ही........
अधूरा जीवन लेकर
कई अधूरी ख्वाहिशों के साथ
इसकी शिकायत है
और हमेशा रहेगी
काल तुझसे शिकायत है मेरी
डाॅ. भूपेन्द्र हरदेनिया
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