बचपन से
सिखाया जाता था हमेशा
खरीदनी चाहिए पुस्तकें
नवीन पोशाकों को परे रखकर भी
और हम खरीदते रहे
पढ़ने के लिए उन्हें,
ढेर सारी पुस्तकें
लाते रहे अपनी पाकेट मनी से,
इसी कारण
पुस्तकें बढ़ती गईं
हम सम्भालते गये
दिन ब दिन उनको
हर त्यौहार पर उतारी गई धूल
सजाई जाती रहीं हमेशा अलमारी में
कि कभी तो फुरसत मिलेगी
तब तराशा जायेगा जीवन
इनमें लिखी इबारतों से,
लेकिन जीवन की किताब,
उसके व्यस्त पन्नों
आपाधापी के अध्यायों में
खरीदी गई किताबें रह गईं अनछुई सी
सिर्फ अपने शोकेस में सजी हुई
कभी नहीं पढ़ी जा सकीं जी भर कर,
हम सुनते रहे उलाहना
उन्हीं किताबों के नाम पर
कि आखिर क्या होगा इतनी किताबों का,
वे बेशकीमती किताबें
जो अरमानों के बदले लाई गई थीं
चली जाती हैं रोती बिलखती
रद्दी के मोल
मिट्टी के भाव
धीरे-धीरे
हम भी मिट्टी में
अनपढे़ से।
© भूपेन्द्र हरदेनिया
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