मानव की सांस्कृतिक क्षमता का रहस्य उसकी जैविक रचना में निहित है। जब किसी संस्कृति के आधारभूत मूल्य किसी समाज के बहुसंख्यक वर्ग को प्रेरित करना बन्द कर देते हैं, तो क्रमशः संस्कृति का अवसान हो जाता है, लेकिन अगर ये मूल्य एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक संवाहित होते रहते हैं, तो संस्कृति वैयक्तिक संवृद्धि का साधन तो बनी ही रहती है, साथ ही यह सामाजिक व्यवस्था को जीवंतता भी प्रदान करती रहती है। यह बड़े गर्व की बात है कि पौरस्त्य संस्कृति का अस्तित्व अभी भी यथावत बरकरार है, क्योंकि आज भी इसके मूलभूत मूल्यों को समाज की स्वीकृति प्राप्त है।
पौरस्त्य संस्कृति अर्वाचीन और विविध आयामी है, और इन आयामों में से एक आयाम है, पौरस्त्य संस्कृति के पर्व। इन पर्वों में कुछ लोक बाल पर्व भी आते हैं, जैसे-सॉंझी, टेसू और झॉझी। यह पर्व आंचलिकता, परम्परा, मनोरंजन, ऐतिहासिकता, लोक चित्र शैली और आध्यात्मिकता की दृष्टि से तो अति महत्त्वपूर्ण हैं ही, साथ ही ये पर्व भारतीय लोक-पर्वों के एक अंग के रूप में स्थापित हैं, जिनसे तत्कालीन समाज और संस्कृति के साथ-साथ पुरावृत्तीयता और पुरातनता की झॉंकी हमारे सम्मुख प्रस्तुत होती है।
भारत की हृदय स्थली मध्यप्रदेश में चंबल की लहरों का विशाल निनाद सुन रहे नगर सबलगढ़, मुरैनाऔर उसकी क्षेत्रीय परिधि में मनाये जाने वाले लोक बाल पर्व-सॉंझी, टेसू और झॉंझी मध्यप्रदेश ही नहीं अपितु समीचीन भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर और पहचान है।
ये तीनों पर्व (सॉंझी, टेसू और झॉझी) चम्बल क्षेत्र मुरैना के अतिरिक्त, ब्रजप्रदेश, बुंदेलखंड, अवधप्रान्त, निमाण, मालवा, राजस्थान और सौराष्ट्र की लोक परम्पराओं और संस्कृति को अपने में आत्मसात किए हुए है।
जिला मुरैना अपनी चंबल क्षेत्रीय संस्कृति, ऐतिहासिकता और लोक परम्परा के कारण सर्वप्रसिद्ध है। कहा जाता है कि महान स्वतंत्रता सेनानी रामप्रसाद विस्मिल का जन्म भी
मुरैना जिले के एक छोटे से गॉंव वरवई में हुआ था। इसके अलावा इस जिले की एक तहसील अंबाह में स्थापित शैव (ककनमठ) मंदिर, जिसे शनि की जन्मस्थली भी कहा जाता है। अपनी ऐतिहासिकता, अर्वाचीनता और पुरातात्विक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
चंबल क्षेत्रीय भू-भाग मुरैना ब्रज क्षेत्र के अलावा बुंदेलखण्ड तथा राजस्थान से भी प्रभाव ग्रहण किए हुए है। जिसके कारण इस अंचल विषेष की भाषा न तो शुद्ध बुंदेली ही है और न ही शुद्ध ब्रजी तथा राजस्थानी। ब्रज क्षेत्र के संपर्क में ज्यादा होने के कारण हम यहॉं की भाषा बुंदेली मिश्रित ब्रजी भी कह सकते हैं। इस भाषा के रूप की झलक मुरैना के लोक पर्व और उनके गीतों में दिखाई स्पष्ट पड़ती है।
1-सॉंझी :
भारत का केन्द्र बिन्दु मध्यप्रदेश पौरस्त्य संस्कृति के विविध फलकों को अपने में संजाए हुए है, जिनमें से एक फलक लोक बाल पर्व रूप भी हैं। मध्यप्रदेश में ग्वालियर से 45 किलोमीटर की दूरी पर बसा मुरैना जिला और और वहां से लगभग 70 कमी पर बसा सबलगढ़ भी इससे अछूता नहीं रहा। इस अंचल की उत्सवधर्मिता अपने आप में कला, संस्कृति, परम्परा के साथ-साथ अन्यानेक लोक पर्वों को समेटे हुए हैं। इन पर्वों में सॉंझी एक प्रमुख बाल पर्व है।
बलिकाओं द्वारा मनाये जाने वाले इस पर्व (सॉंझी) का नामकरण सायंकालीन बेला में मनाये जाने के कारण ‘सॉंझी‘ (मालवा में संजा) हुआ।
मुरैना अंचल में बालिकाएं दीवार पर गोबर से सॉंझी का चित्रांकन करती हैं। प्रचलित पारम्परिक मान्यताओं के अनुसार सॉंझी लोक देवी आदिशक्ति पार्वती का ही एक प्रतीक रूप है। सॉंझी के पूजन में मुख्यतः कन्याएं सुन्दर वर, चिर सौभाग्य, सुखी दाम्पत्य जीवन के अलावा पारिवारिक सदस्यों की सुख-शांति की कामना भी करती हैं।
मुरैना में सॉंझी के निर्माण और इस पर्व को मनाने की प्रक्रिया श्राद्धारम्भ के प्रारंभ दिवस भाद्रपक्ष शुक्ल पूर्णिमा से शुरू होती है। जिसका प्रतिदिन नवीन रूप में चित्रांकन किया जाता है। यह पर्व पंद्रह दिन तक सतत् रूप से मनाया जाता है। जिसमें विविध लोकगीतों के माध्यम से सॉंझी की आरती, बधाई, प्रशंसा आदि बालिकाओं द्वारा की जाती है, जिसमें मनोकामना की भावना भी निहित रहती है।
मुरैना के लोकबाल पर्व सॉंझी के प्रथम दिन ‘पंचगुटा‘ का चित्र बनाया जाता है। यह ‘पंचगुटा‘ एक ऑंचलिक खेल चौपड़ का प्रतीक है, लेकिन फिर भी ‘पंचगुटा‘ को खेलने का तरीका चौपड़ से कुछ भिन्न होता है। इस खेल में लड़कियॉं पत्थर के पॉंच गुट्टे बनाकर उनसे खेलती हैं।
संजा पर्व के प्रथम दिन ‘पंचगुटा‘ को गोबर से निर्मित कर उसे विविध फूल पत्तियों से सजाया जाता है, तत्पषश्चात एक थाली में कुमकुम, चावल, दीपक आदि रखकर सॉंझी के इस प्रथम रूप की आरती उतारी जाती है, और भोग लगाया जाता है और यह गीत गाया जाता है-
तुम करौ चंदा लल की बैन, संजाबाई की आरती करौ।
प्यारे का फल होय, भईया फल होय, भतीजो फल होय।
मेरी माई संजा की आरती करौ।।
आरती और भोग का क्रम प्रतिदिन चलता रहता है, इसके अतिरिक्त कुछ अन्य गीत भी प्रतिदिन इस अवसर पर गाये जात हैं-
1- छोटी सी गाड़ी लुड़कत जाय, बामे सॉंझी बाई बैठी जाय।
चूड़ला खनकाती जाय, घाघरो घुमकाती जाय।
छोटी सी गाड़ी लुड़कत जाय, लुड़कत जाय।।
2- हमारी सॉझी रानी,
कुम्हार की मौड़ी कानी
भल्ला बेटा पानी।।
3- हमाई सॉंझी लडुआ खाय, पेड़ा खाय।
औरन की सॉंझी रोटी खाय, साग खाय।।
हमाई सॉंझी कचौड़ी खाय, समौसा खाय।
औरन की सॉंझी भूखी मरे, प्यासी मरे।।
4- हल्दी गांठ गठीली, भैया बैठके गइयो।
ऊपर मोर नचईयो, नीचे घॅुंघरू बजइयो।।
मुरैना में संजा पर्व के दूसरे दिन चौक बनाया जाता है, जो कि भारतीय लोक संस्कृति में किसी मेहमान और त्यौहार के आगमन का प्रतीक तो है ही साथ ही मंगल का प्रतीक भी है। यह संजा पर्व के आरम्भ का प्रतीक भी है। संजा पर्व के तीसरे दिन ‘गणेश‘ जी का चित्र गोबर के माध्यम से निर्मित किया जाता है। ‘गणेश‘ किसी भी मंगल कार्य के आरम्भ का प्रतीक होने के साथ-साथ, एकाग्रता और धैर्य का प्रतीक हैं। चौथे दिन गमले में लगा तुलसी का पौधा बनाया जाता है, जो कि हमारी भारतीय संस्कृति में पूज्य माना जाता है, साथ ही वह देवी-देवताओं और पितृ-गणों का निवास स्थान माना जाता है। पॉंचवे दिन सॉंतिया बनाया जाता है जो सुख-समृद्धि और किसी शुभ कार्य में होने वाले विघ्न बाधा को दूर करने, अमंगल का नाश करने और मंगल का विधान करने का प्रतीक है। छटवें दिन चॉंद तारे और सूरज का रूप बनाया जाता है। सूरज जहॉं ऊष्मा और प्रकाश का प्रतीक है, वहीं चॉंद तारे शीतलता का प्रतीक हैं । सातवें दिन मोर निर्मित किया जाता है, जो हमारा राष्ट्रीय पक्षी है। आठवें दिन हाथी बनाया जाता है, जोकि धीर और गम्भीरता का प्रतीक है। नौवे दिन चक्र बनाया जाता है, जो कि श्री कृष्ण के सुदर्शन चक्र के साथ-साथ सुरक्षा की भी प्रतीक है। दशवें दिन बीजना का निर्माण किया जाता है, जो कि मुरैना जिले की लोक परम्परा (जिसमें शादी के अवसर पर बीजने से भोजन के लिए बैठे मेहमानों की हवा बतौर मेहमाननवाजी घर की महिलाओं द्वारा की जाती है) का प्रतीक तो है ही, साथ ही महिलाओं द्वारा इसे शुभ भी माना जाता है। ग्यारहवें दिन सफाई कर्मी का चित्र बनाया जाता है, जोकि साफ और स्वच्छता का प्रतीक है। बारहवें दिन ऊॅं का चित्र बनाया जाता है जो कि एकाग्रता और शांति का प्रतीक होने के साथ-साथ ब्रह्म-प्राप्ति का सूत्र भी है। तेरहवें दिन कमल बनाया जाता है जो कि मॉं सरस्वती का आसन होने के साथ-साथ हमारा राष्ट्रीय पुष्प भी है। चौदहवें दिन मूड़फोड़ा का चित्र बनाया जाता है, जिसे सॉंझी का भाई माना जाता है, और वह उसे लिवाने के लिए आता है, लेकिन वह सॉंझी के लिए उपहार स्वरूप कुछ नहीं लाता, तब बालिकाएं में यह गीत गाती हैं-
ऐरे मूड़फोरा हमाई सॉंझी का बिन्दा कौं नई लाओ।
अबकी तो भूलो बहना, परकी लियांगो।
अबकी परकी तू करै, बिन्दा कबहॅूं न लावे।
ऐरे मूड़फोरा हमाई सॉंझी को झुमका कौं नई लाओ।
अबकी तो भूलो बहना, परकी लियांगो।।
इस तरह बालिकाएं गीत के माध्यम से मूड़फोरा से परस्पर संवाद करती हैं, और प्रश्न पूछती हैं।
मुरैना जिले में सॉंझी पर्व के पंद्रहवें और आखिरी दिन किला कोट बनाया जाता है, जिसमें सॉंझी का रूप प्रस्तुत किया जाता है, और उन सम्पूर्ण चित्रों को भी उस किलाकोट में पुनः एक साथ चित्रित किया जाता है, जो पूर्व में चौदह दिन तक बनाए जाते हैं । इस अवसर पर यानि कि सॉंझी के आखिरी दिन कुछ विशेष भोजन इत्यादि का आयोजन किया जाता है, तथा उस सॉंझी के एकत्रित गोबर इत्यादि सामग्री को जल में विसर्जित कर दिया जाता है, और इस तरह इस लोक बाल पर्व का समापन हो जाता है।
2-टेसू (किशोर पर्व) :
भारत में अनेक त्यौहार प्रचलित एवं प्रसिद्ध हैं, जिसमें से एक जिसे कुआर मास की नवरात्रि के पश्चात् यानि कि शरद पूर्णिमा के दिन बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है, उसे टेसू पर्व (टेसू पूर्णिमा या टिसवारी पूनो) कहा जाता है। इस पर्व का हरियाणा, ब्रज, बुन्देलखण्ड, एवं कन्नौज क्षेत्र में प्रचलन बहुत है। मुरैना अंचल में टेसू पर्व ग्रामीण बालकों द्वारा बड़े ही उत्साह से मनाया जाता है। दशहरे के दिन टेसू बनाया जाता है। इस टेसू के निर्माण के लिए तीन बॉंस की लकड़ियों आपस में जोड़ा जाता है, तथा उस पर मिट्टी का आवरण चढ़ाया जाता है। बॉंस की लकड़ियों को बीच में से आपस में इस तरह जोड़ा जाता है कि लकड़ियों का ऊपर का हिस्सा हाथ और सर का रूप ले ले और नीचे का हिस्सा पैर का, तथा वह पृथ्वी पर अच्छे से टिक सके। फिर मिट्टी से हाथ, पैर और मुॅंह का रूप दिया जाता है। टेसू के चेहरे पर बड़ी-बड़ी मूंछें तथा हाथ में ढाल तलवार सुशोभित रहती है। मिट्टी के सिर बनाकर उसमें कौड़ी की तथा गाय के पॅूंछ के बाल की चोटी लगाते हैं। तीनों लकड़ियों के बीच में दीपक जलाकर बच्चे अपने आस-पड़ोस में सायंकालीन बेला में प्रतिदिन घर-घर जाकर अन्न, पैसा इत्यादि एकत्रित करते हैं, किशोर टेसू के गीत गाते हुए कहते हैं-
टेसू आये बड़े द्वार,
खोलो रानी चन्द किबाड़,
चन्द-चन्द के टिक बनाये,
इन गलियों में इनते आये,
इनते-बिनते धरो सिंगाओ
टेसू के मोंह में दियो बनाओ।।
इमली की जड़ते निकरी पतंग,
नौ से कौआ नौ से रंग।
एक रंग मैंने मॉंग लिया,
चल घोडे़ सवार किया।
किया है भई किया है,
दिल्ली जाए पुकारा है,
मार सिकन्दर पहली चोट
चोट गई चूले की ओट।
ये गीत किशोरों द्वारा सामूहिक रूप से लयबद्ध रूप में गाये जाते हैं। लयात्मकता, छन्दात्मकता के अलावा टेसू के गीतों फैंटेसी की झलक भी हमें कई स्थानों पर प्राप्त हो जाती है। असंगत और असम्बद्ध वार्तालाप की प्रधानता भी इन गीतों में है-
टेसू टेसू कां गये थे, पत्ता तोड़न गये थे,
पत्ता ले गओ कौआ, टेसू हो गयो नौआ,
नौआ ने मूड़े मू़ड़, टेसू हो गये ठॅूंठ,
ठॅूंठ में रखो अंगरा, टेसू हो गये बंदरा,
बांदरा ने खायी पाती, टेसू हो गये हाथी,
एक अन्य गीत इस प्रकार है-
टेसू आय बन वीर, हाथ लिये सोने का तीर,
एक तीर मार दिया, दिल्ली को सलाम किया,
देखो मेरा काला कोट, मार सिकन्दर पहली चोट।।
टेसू की परम्परागत उत्पत्ति के पीछे कहा जाता है कि ‘‘हिडम्बा का पुत्र घटोत्कच बड़ा बलशाली था, जिसने सुन्दरदानव की कन्या शालकटकटा से उसकी पहेली का उत्तर देकर विवाह किया। उसी से एक पुत्र हुआ, जिसका नाम बर्बरीक या टेसू रखा गया। इसका नाम बभ्रुवाहन भी कहा जाता हैं टेसू बड़ा बलवान था। इसके पास एक सिद्ध का दिया हुआ चूर्ण था। महाभारत के संग्राम में इसने अपना अद्भुत पराक्रम दिखाना चाहा, जैसे ही उसके चूर्ण की गंध मात्र से बड़े-बड़े वीर मूर्छित होने लगे, भगवान श्री कृष्ण ने उसका सिर काट दिया। अब घटोत्कच और भीमसेन महादुखी हुए अतएव भगवान श्री कृष्ण ने इसके को पुनः जोड़कर जीवित कर दिया तथा उसकी इच्छानुसार अट्ठारह दिन तक महाभारत का युद्ध दिखाया। टेसू की कथा स्कन्द पुराण में दो अध्याओं में वर्णित है।
एक अन्य कथा के अनुसार सुआटा नामक दैत्य किशोरी कन्याओं को परेशान करता था। जब वे वनविहार को जाती तो वह उन्हें परेशान करता तथा अपनी पूजा कराने को बाध्य करता। दैत्य के उत्पीड़न से तंग होकर कन्याओं ने मॉं गौरी की आराधना की। इसी बीच टेसू नामक वीर का उद्भव हुआ, जिसने सुआटा दैत्य का वध कर उसकी पुत्री झिंझिया से विवाह रचाया। इसीलिए शारदीय नवरात्र में कन्याएं ‘नौरता‘ के नाम से मॉं दुर्गा की उपासना करती हैं। नौरता के खेल में सुआटा नाम के राक्षस की विशालकाय प्रतिमा गोबर से बनाई जाती है। इसी खेल का अगला भाग टेसू विवाह होता है। लोक जीवन में टेसू
शब्द भोले भाले तथा मूर्ख व्यक्ति का पर्याय भी है। टेसू बर्बरीक का प्रतीक है जो श्री कृष्ण के द्वारा छला गया था, इसलिए इसे टेसू कहा जाता है। टेसू लेकर बाल मण्डली जिस घर पर पहॅुंचती है, उस घर से अनाज अथवा पैसे अवश्य मिलते हैं। टेसू की लम्बी मूंछ, सिर पर साफा, ढाल, तलवार तथा तीर कमान से यह सिद्ध होता है कि वह वीर पुरूष रहा होगा। कुछ गीतों में टेसू का अड़ियल स्वभाव का जबरन धन उगाहने वाला व्यक्ति दर्शाया है।
-टेसू आए टेशन तें
रोटी खाई बेसन तें
पानी पियो कींच को
धर दे नोट बीस को
-हमारा टेसू हेईं अड़ा
खाने को मांगे दही बड़ा।
3-झॉंझी-
झॉंझी पर्व भी टेसू पर्व के साथ ही मनाया जाता है। झॉंझी के निर्माण के लिए किशोरियॉं एक कच्ची मिट्टी की मटकी लेती हैं, जिसमें चारों तरफ छिद्र कर लिया जाता है, तथा उसमें एक जलता हुआ दीपक रख दिया जाता है। इसको लेकर बालिकायें घर-घर जाती हैं और यह गीत गाती हैं-
हमाई झॉंझी को नाम झंझरिया रे,
तुम्हाए घर आई वो लिवईया रे।
टेसू की प्रतिमा से झॉंझा को छुपाकर रखा जाता है। दशहरे से लेकर शरद पूर्णिमा तक संध्या के समय बालिकायें झॉंझी के साथ घर-घर जाकर धन व अन्न एकत्रित करती हैं। इकट्ठा किए हुए अनाज या धन से शरद पूर्णिमा की रात टेसू का झॉंझी के साथ धूमधाम से विवाह सम्पन्न होता है। विवाह उपरान्त सभी भोजन इत्यादि ग्रहण करते हैं। नाच गाने आदि से खुशियां मनाते हैं।
अंततः कहा जा सकता है कि मुरैना जिले के या लोक बाल पर्व (सॉंझी, टेसू और झॉंझी) भारतीय लोक संस्कृति, उसकी विविधता एवं भावप्रवणता के अलावा सरस रंग योजना, आकर्षण रेखा संगठन तथा अनेक मूर्तिशिल्प एवं चित्रोपम गुणों के कारण अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। इन पर्वों में धार्मिक सौहार्द, संवादात्मकता, हास्य-व्यंग्यात्मकता तत्कालीन प्रचलित खेलकूद, लोक मान्यताएं राष्ट्रीय बोध, लालित्य बोध, शांति, सुरक्षा, बेलबूटों की सजावट आदि का स्पष्ट चित्रांकन होने के साथ ही इसमें आनुष्ठानिक बोध स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। सांझी, टेसू और झॉंझी के गीत हास-परिहास से परिपूर्ण होते हैं, ये स्वस्थ मनोरंजन के अच्छे साधन हैं। ये रीति-रिवाज एवं सामाजिक मान्यताओं की स्थापना करते हैं। ये गीत किशोर-किशोरियों में फैली विविध कुप्रथाओं को समाप्त कर परस्पर आत्मीयता, सहयोग, उत्तरदायित्व की भावना एवं जिज्ञासा वृत्ति आदि गुणों को विकसित करते हैं। बालवृन्द में इन गीतों से मस्तिष्क की उर्वरता व तर्कशक्ति का विकास होता है। कहने का आशय यह है कि इन गीतों में हास्य व्यंग्य के पुट के साथ सामाजिक कुरीतियों पर अच्छी छींटाकशी है।
मुरैना जिले में आज से लगभग पन्द्रह से बीस वर्ष पूर्व इन पर्वों का कलात्मक स्वरूप और स्पष्ट तथा मान्यताएं अपने चरम पर थीं, परन्तु आज यह बिल्कुल समाप्ति की ओर है। इसका कारण बदलता हुआ परिवेश, नगरीकरण, आधुनिक और पाश्चात्य मानसिकता है। लेकिन फिर भी हम इन पर्वों की सूत्रात्मक अभिज्ञानता को सहेजकर, सुरक्षित कर भारतीय संस्कृति के इन अंगों को क्रियात्मक रूप में नही ंतो, अभिलेखित रूप में तो जीवित कर सकते हैं। इन्हें जीवित रखने और पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित करने की भी महती आवश्यकता है यह तभी संभव है जब उसका परिज्ञान बड़े लोग अपने बच्चों को कराएं।
डॉ0 भूपेन्द्र हरदेनिया