शुक्रवार, 2 दिसंबर 2022

हिमालय सा देवत्व -प्रो. आनंद वर्धन शर्मा की टिप्पणी -

यों तो साक्षात्कार किसी भी व्यक्ति से लिया जा सकता है, पर विशेष रूप से जब किसी ऐसे साहित्यकार से साक्षात्कारकर्ता प्रश्न करते हैं जो रचनाकार होने के साथ-साथ किसी विशेष आंदोलन का प्रणेता भी रहा हो तो वह साक्षात्कार और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। इस दृष्टि से डॉ. भूपेन्द्र हरदेनिया द्वारा संपादित की गई यह पुस्तक ‘‘हिमालय सा देवत्व‘‘ जो गंगा प्रसाद विमल से लिये गए साक्षात्कारों पर आधारित है, विमल जी के साहित्यिक अवदान को भली भांति रेखांकित करती दिखती है।
                  इस पुस्तक में कुल नौ साक्षात्कार संकलित किए गए हैं जिनमें से अधिकतर साक्षात्कार युवतर साक्षात्कारकर्ताओं द्वारा लिए गए हैं और यही वजह है कि युवाओं के मन में उठने वाले तमाम सारे प्रश्न और जिज्ञासाएं इन साक्षात्कारों में सामने आती हैं जिनका विमल जी ने विस्तार से समाधान करते हुए उत्तर दिया है। साहित्य को लेकर उनकी एक स्पष्ट दृष्टि थी जिसकी चर्चा स्वयं उन्होंने अपनी पुस्तकों की भूमिका में भी की है।
किसी साहित्यकार से लिए गए साक्षात्कार के माध्यम से हम उसके व्यक्तित्व, कृतित्व शैली और जीवन के प्रति उसके दृष्टिकोण से भी भलीभांति परिचित होते हैं। यह भी आवश्यक है कि स्वयं साक्षात्कारकर्ता भी साक्षात्कार लेने से पहले न केवल उस व्यक्ति के साहित्य का, उसकी कृतियों का आलोड़न विलोड़न करे बल्कि उसकी भी कोई न कोई कोई साहित्यिक अभिरुचि अवश्य होनी चाहिए तभी वह अपने साक्षात्कार में ऐसे बिंदु उठा सकेगा जो रचनाकार की सोच और समझ की परतों को खोलने में सफल होंगे। इस दृष्टि से भी जिन साक्षात्कारों का चयन डॉक्टर भूपेन्द्र हरदेनिया ने किया है वे उल्लेखनीय हैं। .             
 विमल जी को पढ़ते हुए पाठक एक ऐसी दुनिया में पहुंचता है, एक ऐसे लोक में जहां कल्पना की उड़ान भी है, फैंटेसी भी, सच भी और एक रहस्य भी। यह रहस्य बिल्कुल पहाड़ों की दुनिया जैसा है। एक के पीछे एक, परत दर परत खुलती हुई खिड़कियां। उनके बचपन में भारत स्वतंत्र हुआ और विस्थापन को उन्होंने अपनी आंखों से देखा, उसकी त्रासदी को बहुत गहराई से महसूस किया और उसे अपनी रचनाओं का हिस्सा बनाया। विमल जी जिस पहाड़ में जन्मे थे वह उनसे कभी भी नहीं छूटा। उनके पात्र और खुद वे बिल्कुल किसी पहाड़ी झरने जैसे निर्मल और तरल थे । उनके साक्षात्कारों पर केन्द्रित यह पुस्तक उन्हें और उनके रचना कर्म को याद करने का सराहनीय प्रयास है और इसके लिए पुस्तक के संपादक डॉ. भूपेन्द्र हरदेनिया बधाई के पात्र हैं।
                                           
प्रो. आनंद वर्धन, भारतीय विद्या विभाग
सोफिया विश्वविद्यालय, बुल्गारिया

सत्य हाशिये पर रहता है -प्रो. मणिमोहन मेहता की टिप्पणी

डॉ. भूपेन्द्र हरदेनिया एक ऐसे युवा रचनाकार हैं जो एक साथ कई विधाओं में शिद्दत के साथ सक्रिय हैं। अकादमिक सृजन से लेकर समकालीन विमर्शों तक उनकी व्यापक पैठ है और वे इन पर लगातार काम कर रहे हैं। हिन्दी साहित्य के अनेक कवियों पर उन्होंने आलोचनात्मक लेखन भी किया है और अब उनका पहला कविता संकलन ‘सत्य हाशिये पर रहता है‘ हमारे सामने है। एक युवा आलोचक, समीक्षक और विभिन्न कला माध्यमों पर सतत् लिखने वाले इस रचनाकार की कविताओं से रुबरू होना एक दिलचस्प अनुभव रहेगा।
     इस संकलन की कविताएँ पढ़ते हुए जो एक बात चौंकाती है वह है रचनाओं का वैविध्यपूर्ण संसार। इस संकलन में घर परिवार के आत्मीय रिश्तों के साथ-साथ प्रकृति, परिवेश, समकालीन राजनीतिक परिदृश्य आदि पर अनेक महत्त्वपूर्ण रचनाएं मौजूद हैं। 
     यह अकारण नहीं है कि इस किताब की अनेक कविताओं में बार बार ‘हाशिया‘ शब्द आता है। भूपेन्द्र का कवि मन बार बार हाशिये पर फेंक दिए गए सत्य, विचार और जीवन मूल्यों की पड़ताल करते हुए दिखाई देता है। उनका कवि मन एक तरफ जहां तीसरी बेटी के जन्म के बाद एक स्त्री के भीतर जन्मे सवालों का ज़िक्र करता है, तो दूसरी तरफ अपनी अन्य कविताओं में इसी स्त्री के साहस, धैर्य और जिजीविषा को भी सेलिब्रेट करते हुए भी वह देखे जा सकते हैं। 
     भूपेन्द्र हरदेनिया अकादमिक दुनिया के नागरिक हैं, हिन्दी साहित्य और भाषा के पठन-पाठन और शोध से जुड़े हैं, लेकिन उनकी काव्य भाषा बहुत प्रांजल है, बौद्धिक आतंक से एकदम मुक्त एक आत्मीय भाषा जो अपने पाठक से सीधे संवाद करती है। अपने समय की तमाम जटिलताओं से जूझती, संघर्ष करती ये कविताएँ सम्प्रेषणीयता के स्तर पर सफल हैं । अधिकांश कविताएँ अभिधा में बात कहते हुए भी ख़ुद को सपाट होने से बचाए रखती हैं।
     समकालीन कविता के संसार में इन कविताओं की आमद जरा देर से हुई है पर इस देरी की वजह सम्भवतः कवि की तैयारी रही होगी। इस संकलन में-पतंगबाजी, माँ, पुनर्जन्म, वास्तु-दोष जैसी प्रभावी और पठनीय कविताएँ तथा लॉक डाउन को केन्द्र में रखकर रची गईं कुछ मार्मिक कविताएँ भी शामिल हैं जो अपने पाठकों की स्मृति में अपनी जगह बनाने में सफल होंगी। भूपेन्द्र की कविताओं का उत्स या प्रस्थान बिंदु संवेदना है जो आगे चलकर विचार के साथ जुगलबंदी करता है ।
    उम्मीद है समकालीन कविता के संसार में सम्भावनाओं से लबरेज़ इस नई आवाज़ का स्वागत होगा। कवि को शुभकामनाएं।
● मणि मोहन


किताबें (कविता)

बचपन से 
सिखाया जाता था हमेशा 
खरीदनी चाहिए पुस्तकें
नवीन पोशाकों को परे रखकर भी
और हम खरीदते रहे
पढ़ने के लिए उन्हें,

ढेर सारी पुस्तकें
लाते रहे अपनी पाकेट मनी से,

इसी कारण
पुस्तकें बढ़ती गईं
हम सम्भालते गये
दिन ब दिन उनको

हर त्यौहार पर उतारी गई धूल
सजाई जाती रहीं हमेशा अलमारी में
कि कभी तो फुरसत मिलेगी 
तब तराशा जायेगा जीवन 
इनमें लिखी इबारतों से,

लेकिन जीवन की किताब,
उसके व्यस्त पन्नों 
आपाधापी के अध्यायों में
खरीदी गई किताबें रह गईं अनछुई सी
सिर्फ अपने शोकेस में सजी हुई
कभी नहीं पढ़ी जा सकीं जी भर कर,

हम सुनते रहे उलाहना
उन्हीं किताबों के नाम पर
कि आखिर क्या होगा इतनी किताबों का,

वे बेशकीमती किताबें 
जो अरमानों के बदले लाई गई थीं
चली जाती हैं रोती बिलखती
रद्दी के मोल
मिट्टी के भाव
धीरे-धीरे
हम भी मिट्टी में
अनपढे़ से।

© भूपेन्द्र हरदेनिया

चलते रहिए

एतरेय ब्राह्मण 

कलि: शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापर:
उत्तीष्ठमस्त्रेताभवति कृतम समपदयते चरमश्चरेवेति|

सोने वाला पुरुष कलियुग में रहता है , अंगड़ाई लेने वाला द्वापर मे पहुँच जाता है | उठकर खड़ा हुआ पुरुष त्रेता मे आ जाता है | आशा ओर उत्साह से भरा सत्य के मार्ग पर चलाने वाले के सामने सतयुग आ जाता है ,इसलिए चलते रहो |

क्षींण होती संस्कृति और मुरैना जिले के लोक बाल पर्व : सॉंझी, टेसू और झॉंझी


     मानव की सांस्कृतिक क्षमता का रहस्य उसकी जैविक रचना में निहित है। जब किसी संस्कृति के आधारभूत मूल्य किसी समाज के बहुसंख्यक वर्ग को प्रेरित करना बन्द कर देते हैं, तो क्रमशः संस्कृति का अवसान हो जाता है, लेकिन अगर ये मूल्य एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक संवाहित होते रहते हैं, तो संस्कृति वैयक्तिक संवृद्धि का साधन तो बनी ही रहती है, साथ ही यह सामाजिक व्यवस्था को जीवंतता भी प्रदान करती रहती है। यह बड़े गर्व की बात है कि पौरस्त्य संस्कृति का अस्तित्व अभी भी यथावत बरकरार है, क्योंकि आज भी इसके मूलभूत मूल्यों को समाज की स्वीकृति प्राप्त है।

     पौरस्त्य संस्कृति अर्वाचीन और विविध आयामी है, और इन आयामों में से एक आयाम है, पौरस्त्य संस्कृति के पर्व। इन पर्वों में कुछ लोक बाल पर्व भी आते हैं, जैसे-सॉंझी, टेसू और झॉझी। यह पर्व आंचलिकता, परम्परा, मनोरंजन, ऐतिहासिकता, लोक चित्र शैली और आध्यात्मिकता की दृष्टि से तो अति महत्त्वपूर्ण हैं ही, साथ ही ये पर्व भारतीय लोक-पर्वों के एक अंग के रूप में स्थापित हैं, जिनसे तत्कालीन समाज और संस्कृति के साथ-साथ पुरावृत्तीयता और पुरातनता की झॉंकी हमारे सम्मुख प्रस्तुत होती है।

     भारत की हृदय स्थली मध्यप्रदेश में चंबल की लहरों का विशाल निनाद सुन रहे नगर सबलगढ़, मुरैनाऔर उसकी क्षेत्रीय परिधि में मनाये जाने वाले लोक बाल पर्व-सॉंझी, टेसू और झॉंझी मध्यप्रदेश ही नहीं अपितु समीचीन भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर और पहचान है।

     ये तीनों पर्व (सॉंझी, टेसू और झॉझी) चम्बल क्षेत्र मुरैना के अतिरिक्त, ब्रजप्रदेश, बुंदेलखंड, अवधप्रान्त, निमाण, मालवा, राजस्थान और सौराष्ट्र की लोक परम्पराओं और संस्कृति को अपने में आत्मसात किए हुए है।

     जिला मुरैना अपनी चंबल क्षेत्रीय संस्कृति, ऐतिहासिकता और लोक परम्परा के कारण सर्वप्रसिद्ध है। कहा जाता है कि महान स्वतंत्रता सेनानी रामप्रसाद विस्मिल का जन्म भी 
 मुरैना जिले के एक छोटे से गॉंव वरवई में हुआ था। इसके अलावा इस जिले की एक तहसील अंबाह में स्थापित शैव (ककनमठ) मंदिर, जिसे शनि की जन्मस्थली भी कहा जाता है। अपनी ऐतिहासिकता, अर्वाचीनता और पुरातात्विक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।

     चंबल क्षेत्रीय भू-भाग मुरैना ब्रज क्षेत्र के अलावा बुंदेलखण्ड तथा राजस्थान से भी प्रभाव ग्रहण किए हुए है। जिसके कारण इस अंचल विषेष की भाषा न तो शुद्ध बुंदेली ही है और न ही शुद्ध ब्रजी तथा राजस्थानी। ब्रज क्षेत्र के संपर्क में ज्यादा होने के कारण हम यहॉं की भाषा बुंदेली मिश्रित ब्रजी भी कह सकते हैं। इस भाषा के रूप की झलक मुरैना के लोक पर्व और उनके गीतों में दिखाई स्पष्ट पड़ती है।

1-सॉंझी :

     भारत का केन्द्र बिन्दु मध्यप्रदेश पौरस्त्य संस्कृति के विविध फलकों को अपने में संजाए हुए है, जिनमें से एक फलक लोक बाल पर्व रूप भी हैं। मध्यप्रदेश में ग्वालियर से 45 किलोमीटर की दूरी पर बसा मुरैना जिला और और वहां से लगभग 70 कमी पर बसा सबलगढ़ भी इससे अछूता नहीं रहा। इस अंचल की उत्सवधर्मिता अपने आप में कला, संस्कृति, परम्परा के साथ-साथ अन्यानेक लोक पर्वों को समेटे हुए हैं। इन पर्वों में सॉंझी एक प्रमुख बाल पर्व है।

     बलिकाओं द्वारा मनाये जाने वाले इस पर्व (सॉंझी) का नामकरण सायंकालीन बेला में मनाये जाने के कारण ‘सॉंझी‘ (मालवा में संजा) हुआ।

     मुरैना अंचल में बालिकाएं दीवार पर गोबर से सॉंझी का चित्रांकन करती हैं। प्रचलित पारम्परिक मान्यताओं के अनुसार सॉंझी लोक देवी आदिशक्ति पार्वती का ही एक प्रतीक रूप है। सॉंझी के पूजन में मुख्यतः कन्याएं सुन्दर वर, चिर सौभाग्य, सुखी दाम्पत्य जीवन के अलावा पारिवारिक सदस्यों की सुख-शांति की कामना भी करती हैं।

     मुरैना में सॉंझी के निर्माण और इस पर्व को मनाने की प्रक्रिया श्राद्धारम्भ के प्रारंभ दिवस भाद्रपक्ष शुक्ल पूर्णिमा से शुरू होती है। जिसका प्रतिदिन नवीन रूप में चित्रांकन किया जाता है। यह पर्व पंद्रह दिन तक सतत् रूप से मनाया जाता है। जिसमें विविध लोकगीतों के माध्यम से सॉंझी की आरती, बधाई, प्रशंसा आदि बालिकाओं द्वारा की जाती है, जिसमें मनोकामना की भावना भी निहित रहती है।

     मुरैना के लोकबाल पर्व सॉंझी के प्रथम दिन ‘पंचगुटा‘ का चित्र बनाया जाता है। यह ‘पंचगुटा‘ एक ऑंचलिक खेल चौपड़ का प्रतीक है, लेकिन फिर भी ‘पंचगुटा‘ को खेलने का तरीका चौपड़ से कुछ भिन्न होता है। इस खेल में लड़कियॉं पत्थर के पॉंच गुट्टे बनाकर उनसे खेलती हैं।

     संजा पर्व के प्रथम दिन ‘पंचगुटा‘ को गोबर से निर्मित कर उसे विविध फूल पत्तियों से सजाया जाता है, तत्पषश्चात एक थाली में कुमकुम, चावल, दीपक आदि रखकर सॉंझी के इस प्रथम रूप की आरती उतारी जाती है, और भोग लगाया जाता है और यह गीत गाया जाता है-

                तुम करौ चंदा लल की बैन, संजाबाई की आरती करौ।

                प्यारे का फल होय, भईया फल होय, भतीजो फल होय।

                मेरी माई संजा की आरती करौ।।

आरती और भोग का क्रम प्रतिदिन चलता रहता है, इसके अतिरिक्त कुछ अन्य गीत भी प्रतिदिन इस अवसर पर गाये जात हैं-

1- छोटी सी गाड़ी लुड़कत जाय, बामे सॉंझी बाई बैठी जाय।

   चूड़ला खनकाती जाय, घाघरो घुमकाती जाय।

   छोटी सी गाड़ी लुड़कत जाय, लुड़कत जाय।।

2- हमारी सॉझी रानी,

   कुम्हार की मौड़ी कानी

   भल्ला बेटा पानी।।

3- हमाई सॉंझी लडुआ खाय, पेड़ा खाय।

   औरन की सॉंझी रोटी खाय, साग खाय।।

   हमाई सॉंझी कचौड़ी खाय, समौसा खाय।

  औरन की सॉंझी भूखी मरे, प्यासी मरे।।

4- हल्दी गांठ गठीली, भैया बैठके गइयो।

   ऊपर मोर नचईयो, नीचे घॅुंघरू बजइयो।।

    मुरैना में संजा पर्व के दूसरे दिन चौक बनाया जाता है, जो कि भारतीय लोक संस्कृति में किसी मेहमान और त्यौहार के आगमन का प्रतीक तो है ही साथ ही मंगल का प्रतीक भी है। यह संजा पर्व के आरम्भ का प्रतीक भी है। संजा पर्व के तीसरे दिन ‘गणेश‘ जी का चित्र गोबर के माध्यम से निर्मित किया जाता है। ‘गणेश‘ किसी भी मंगल कार्य के आरम्भ का प्रतीक होने के साथ-साथ, एकाग्रता और धैर्य का प्रतीक हैं। चौथे दिन गमले में लगा तुलसी का पौधा बनाया जाता है, जो कि हमारी भारतीय संस्कृति में पूज्य माना जाता है, साथ ही वह देवी-देवताओं और पितृ-गणों का निवास स्थान माना जाता है। पॉंचवे दिन सॉंतिया बनाया जाता है जो सुख-समृद्धि और किसी शुभ कार्य में होने वाले विघ्न बाधा को दूर करने, अमंगल का नाश करने और मंगल का विधान करने का प्रतीक है। छटवें दिन चॉंद तारे और सूरज का रूप बनाया जाता है। सूरज जहॉं ऊष्मा और प्रकाश का प्रतीक है, वहीं चॉंद तारे शीतलता का प्रतीक हैं ।    सातवें दिन मोर निर्मित किया जाता है, जो हमारा राष्ट्रीय पक्षी है। आठवें दिन हाथी बनाया जाता है, जोकि धीर और गम्भीरता का प्रतीक है। नौवे दिन चक्र बनाया जाता है, जो कि श्री कृष्ण के सुदर्शन चक्र के साथ-साथ सुरक्षा की भी प्रतीक है। दशवें दिन बीजना का निर्माण किया जाता है, जो कि मुरैना जिले की लोक परम्परा (जिसमें शादी के अवसर पर बीजने से भोजन के लिए बैठे मेहमानों की हवा बतौर मेहमाननवाजी घर की महिलाओं द्वारा की जाती है) का प्रतीक तो है ही, साथ ही महिलाओं द्वारा इसे शुभ भी माना जाता है। ग्यारहवें दिन  सफाई कर्मी का चित्र बनाया जाता है, जोकि साफ और स्वच्छता का प्रतीक है। बारहवें दिन ऊॅं का चित्र बनाया जाता है जो कि एकाग्रता और शांति का प्रतीक होने के साथ-साथ ब्रह्म-प्राप्ति का सूत्र भी है। तेरहवें दिन कमल बनाया जाता है जो कि मॉं सरस्वती का आसन होने के साथ-साथ हमारा राष्ट्रीय पुष्प भी है। चौदहवें दिन मूड़फोड़ा का चित्र बनाया जाता है, जिसे सॉंझी का भाई माना जाता है, और वह उसे लिवाने के लिए आता है, लेकिन वह सॉंझी के लिए उपहार स्वरूप कुछ नहीं लाता, तब बालिकाएं में यह गीत गाती हैं-

ऐरे मूड़फोरा हमाई सॉंझी का बिन्दा कौं नई लाओ।

अबकी तो भूलो बहना, परकी लियांगो।

अबकी परकी तू करै, बिन्दा कबहॅूं न लावे।

ऐरे मूड़फोरा हमाई सॉंझी को झुमका कौं नई लाओ।

अबकी तो भूलो बहना, परकी लियांगो।।

इस तरह बालिकाएं गीत के माध्यम से मूड़फोरा से परस्पर संवाद करती हैं, और प्रश्न पूछती हैं।

     मुरैना जिले में सॉंझी पर्व के पंद्रहवें और आखिरी दिन किला कोट बनाया जाता है, जिसमें  सॉंझी का रूप प्रस्तुत किया जाता है, और उन सम्पूर्ण चित्रों को भी उस किलाकोट में पुनः एक साथ चित्रित किया जाता है, जो पूर्व में चौदह दिन तक बनाए जाते हैं । इस अवसर पर यानि कि सॉंझी के आखिरी दिन कुछ विशेष भोजन इत्यादि का आयोजन किया जाता है, तथा उस सॉंझी के एकत्रित गोबर इत्यादि सामग्री को जल में विसर्जित कर दिया जाता है, और इस तरह इस लोक बाल पर्व का समापन हो जाता है।

2-टेसू (किशोर पर्व) :

     भारत में अनेक त्यौहार प्रचलित एवं प्रसिद्ध हैं, जिसमें से एक जिसे कुआर मास की नवरात्रि के पश्चात् यानि कि शरद पूर्णिमा के दिन बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है, उसे टेसू पर्व (टेसू पूर्णिमा या टिसवारी पूनो) कहा जाता है। इस पर्व का हरियाणा, ब्रज, बुन्देलखण्ड, एवं कन्नौज क्षेत्र में प्रचलन बहुत है। मुरैना अंचल में टेसू पर्व ग्रामीण बालकों द्वारा बड़े ही उत्साह से मनाया जाता है। दशहरे के दिन टेसू बनाया जाता है। इस टेसू के निर्माण के लिए तीन बॉंस की लकड़ियों आपस में जोड़ा जाता है, तथा उस पर मिट्टी का आवरण चढ़ाया जाता है। बॉंस की लकड़ियों को बीच में से आपस में इस तरह जोड़ा जाता है कि लकड़ियों का ऊपर का हिस्सा हाथ और सर का रूप ले ले और नीचे का हिस्सा पैर का, तथा वह पृथ्वी पर अच्छे से टिक सके। फिर मिट्टी से हाथ, पैर और मुॅंह का रूप दिया जाता है। टेसू के चेहरे पर बड़ी-बड़ी मूंछें तथा हाथ में ढाल तलवार सुशोभित रहती है। मिट्टी के सिर बनाकर उसमें कौड़ी की तथा गाय के पॅूंछ के बाल की चोटी लगाते हैं। तीनों लकड़ियों के बीच में दीपक जलाकर बच्चे अपने आस-पड़ोस में सायंकालीन बेला में प्रतिदिन घर-घर जाकर अन्न, पैसा इत्यादि एकत्रित करते हैं, किशोर टेसू के गीत गाते हुए कहते हैं-

टेसू आये बड़े द्वार,

खोलो रानी चन्द किबाड़,

चन्द-चन्द के टिक बनाये,

इन गलियों में इनते आये,

इनते-बिनते धरो सिंगाओ

टेसू के मोंह में दियो बनाओ।।

इमली की जड़ते निकरी पतंग,

नौ से कौआ नौ से रंग।

एक रंग मैंने मॉंग लिया,

चल घोडे़ सवार किया।

किया है भई किया है,

दिल्ली जाए पुकारा है,

मार सिकन्दर पहली चोट

चोट गई चूले की ओट।

     ये गीत किशोरों द्वारा सामूहिक रूप से लयबद्ध रूप में गाये जाते हैं। लयात्मकता, छन्दात्मकता के अलावा टेसू के गीतों फैंटेसी की झलक भी हमें कई स्थानों पर प्राप्त हो जाती है। असंगत और असम्बद्ध वार्तालाप की प्रधानता भी इन गीतों में है-

टेसू टेसू कां गये थे, पत्ता तोड़न गये थे,

पत्ता ले गओ कौआ, टेसू हो गयो नौआ,

नौआ ने मूड़े मू़ड़, टेसू हो गये ठॅूंठ,

ठॅूंठ में रखो अंगरा, टेसू हो गये बंदरा,

बांदरा ने खायी पाती, टेसू हो गये हाथी,

एक अन्य गीत इस प्रकार है-

टेसू आय बन वीर, हाथ लिये सोने का तीर,

एक तीर मार दिया, दिल्ली को सलाम किया,

देखो मेरा काला कोट, मार सिकन्दर पहली चोट।।

        टेसू की परम्परागत उत्पत्ति के पीछे कहा जाता है कि ‘‘हिडम्बा का पुत्र घटोत्कच बड़ा बलशाली था, जिसने सुन्दरदानव की कन्या शालकटकटा से उसकी पहेली का उत्तर देकर विवाह किया। उसी से एक पुत्र हुआ, जिसका नाम बर्बरीक या टेसू रखा गया। इसका नाम बभ्रुवाहन भी कहा जाता हैं टेसू बड़ा बलवान था। इसके पास एक सिद्ध का दिया हुआ चूर्ण था। महाभारत के संग्राम में इसने अपना अद्भुत पराक्रम दिखाना चाहा, जैसे ही उसके चूर्ण की गंध मात्र से बड़े-बड़े वीर मूर्छित होने लगे, भगवान श्री कृष्ण ने उसका सिर काट  दिया। अब घटोत्कच और भीमसेन महादुखी हुए अतएव भगवान श्री कृष्ण ने इसके को पुनः जोड़कर जीवित कर दिया तथा उसकी इच्छानुसार अट्ठारह दिन तक महाभारत का युद्ध दिखाया। टेसू की कथा स्कन्द पुराण में दो अध्याओं में वर्णित है।

     एक अन्य कथा के अनुसार सुआटा नामक दैत्य किशोरी कन्याओं को परेशान करता था। जब वे वनविहार को जाती तो वह उन्हें परेशान करता तथा अपनी पूजा कराने को बाध्य करता। दैत्य के उत्पीड़न से तंग होकर कन्याओं ने मॉं गौरी की  आराधना की। इसी बीच टेसू नामक वीर का उद्भव हुआ, जिसने सुआटा दैत्य का वध कर उसकी पुत्री झिंझिया से विवाह रचाया। इसीलिए शारदीय नवरात्र में कन्याएं ‘नौरता‘ के नाम से मॉं दुर्गा की उपासना करती हैं। नौरता के खेल में सुआटा नाम के राक्षस की विशालकाय प्रतिमा गोबर से बनाई जाती है। इसी खेल का अगला भाग टेसू विवाह होता है। लोक जीवन में टेसू 
शब्द भोले भाले तथा मूर्ख व्यक्ति का पर्याय भी है। टेसू बर्बरीक का प्रतीक है जो श्री कृष्ण के द्वारा छला गया था, इसलिए इसे टेसू कहा जाता है। टेसू लेकर बाल मण्डली जिस घर पर पहॅुंचती है, उस घर से अनाज अथवा पैसे अवश्य मिलते हैं। टेसू की लम्बी मूंछ, सिर पर साफा, ढाल, तलवार तथा तीर कमान से यह सिद्ध होता है कि वह वीर पुरूष रहा होगा। कुछ गीतों में टेसू का अड़ियल स्वभाव का जबरन धन उगाहने वाला व्यक्ति दर्शाया है।

-टेसू आए टेशन तें
रोटी खाई बेसन तें
पानी पियो कींच को
धर दे नोट बीस को

-हमारा टेसू हेईं अड़ा
खाने को मांगे दही बड़ा।

3-झॉंझी-

     झॉंझी पर्व भी टेसू पर्व के साथ ही मनाया जाता है। झॉंझी के निर्माण के लिए किशोरियॉं एक कच्ची मिट्टी की मटकी लेती हैं, जिसमें चारों तरफ छिद्र कर लिया जाता है, तथा उसमें एक जलता हुआ दीपक रख दिया जाता है। इसको लेकर बालिकायें घर-घर जाती हैं और यह गीत गाती हैं-

हमाई झॉंझी को नाम झंझरिया रे,

तुम्हाए घर आई वो लिवईया रे।

टेसू की प्रतिमा से झॉंझा को छुपाकर रखा जाता है। दशहरे से लेकर शरद पूर्णिमा तक संध्या के समय बालिकायें झॉंझी के साथ घर-घर जाकर धन व अन्न एकत्रित करती हैं। इकट्ठा किए हुए अनाज या धन से शरद पूर्णिमा की रात  टेसू का झॉंझी के साथ धूमधाम से विवाह सम्पन्न होता है। विवाह उपरान्त सभी भोजन इत्यादि ग्रहण करते हैं। नाच गाने आदि से खुशियां मनाते हैं।           
अंततः कहा जा सकता है कि मुरैना जिले के या लोक बाल पर्व (सॉंझी, टेसू और झॉंझी) भारतीय लोक संस्कृति, उसकी विविधता एवं भावप्रवणता के अलावा सरस रंग योजना, आकर्षण रेखा संगठन तथा अनेक मूर्तिशिल्प एवं  चित्रोपम गुणों के कारण अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। इन पर्वों में धार्मिक सौहार्द, संवादात्मकता, हास्य-व्यंग्यात्मकता तत्कालीन प्रचलित खेलकूद, लोक मान्यताएं राष्ट्रीय बोध, लालित्य बोध, शांति, सुरक्षा, बेलबूटों की सजावट  आदि का स्पष्ट चित्रांकन होने के साथ ही इसमें आनुष्ठानिक बोध स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। सांझी, टेसू और झॉंझी के गीत हास-परिहास से परिपूर्ण होते हैं, ये स्वस्थ मनोरंजन के अच्छे साधन हैं। ये रीति-रिवाज एवं सामाजिक मान्यताओं की स्थापना करते हैं। ये गीत किशोर-किशोरियों में फैली विविध कुप्रथाओं को  समाप्त कर परस्पर आत्मीयता, सहयोग, उत्तरदायित्व की भावना एवं जिज्ञासा वृत्ति आदि गुणों को विकसित करते  हैं। बालवृन्द में इन गीतों से मस्तिष्क की उर्वरता व तर्कशक्ति का विकास होता है। कहने का आशय यह है कि इन गीतों में हास्य व्यंग्य के पुट के साथ सामाजिक कुरीतियों पर अच्छी छींटाकशी है।

     मुरैना जिले में आज से लगभग पन्द्रह से बीस वर्ष पूर्व  इन पर्वों का कलात्मक स्वरूप और स्पष्ट तथा मान्यताएं  अपने चरम पर थीं, परन्तु आज यह बिल्कुल समाप्ति की ओर है। इसका कारण बदलता हुआ परिवेश, नगरीकरण,  आधुनिक और पाश्चात्य मानसिकता है। लेकिन फिर भी हम इन पर्वों की सूत्रात्मक अभिज्ञानता को सहेजकर, सुरक्षित कर भारतीय संस्कृति के इन अंगों को क्रियात्मक रूप में नही ंतो, अभिलेखित रूप में तो जीवित कर सकते हैं। इन्हें जीवित रखने और पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित करने की भी महती आवश्यकता है यह तभी संभव है जब उसका परिज्ञान बड़े लोग अपने बच्चों को कराएं।

डॉ0 भूपेन्द्र हरदेनिया

कठिन समय में -रमेश चन्द्र शाह

वर्ष 2015 की बात है जब मैं माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य करा रहा था, तभी मुझे एक पुस्तक के सिलसिले में एक प्रख्यात साहित्यकार से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वे किसी पहचान के मोहताज नहीं है। मैं बात कर रहा हूं हिंदी के स्वनामधन्य कथाकार, कवि और आलोचक या यूं कहें कि लगभग सभी विधाओं के सिद्धहस्त रचनाकार की जो अभी भी अपनी जरावस्था में पूर्ण सिद्दत के साथ लेखन में रत रहते हैं, जितनी उम्र है, संख्यात्मक रूप से उससे कहीं अधिक पुस्तकों की रचना करने वाले मूर्धन्य रचनाकार भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से सम्मानित श्री रमेश चंद्र शाह जी के घर एक पुस्तक के साक्षात्कार हेतु इनसे वर्ष 2015 में सौभाग्य से जाना हुआ। काफी आत्मीयता के साथ कुछ देर वार्तालाप हुआ पुस्तक योजना पर चर्चा हुई, कुछ बात इन्होंने अपने मन की कहीं, कुछ मैंने अपने अंतर्मन की, आत्मीय वार्तालाप का दौर समाप्त हुआ मैं उनसे मिलकर वापस आ गया, पर कभी न सोचा था कि यह मिलना किसी जगह अंकित भी होगा। मैंने अक्सर यह देखा है कि जिन भी श्रेष्ठ रचनाकारों से मैं पहली बार मिला उनसे मिलना ऐसा लगा जैसे हमारे बीच की मुलाकात सदियों पुरानी है। अपनी पुस्तक (कठिन समय में) का कुछ अंश मुझे बनाने के लिए रचनाकार का कोटि-कोटि अभिनंदन। आप हमेशा स्वस्थ रहें, दीर्घायु हों यही प्रभु से कामना है।

वसंत सकरगाये की समीक्षा

डॉ. गंगाप्रसाद विमल पर केंद्रित तथा डॉ. भूपेन्द्र हरदेनिया द्वारा सम्पादित पुस्तक  "हिमालय सा देवत्व" की प्राप्ति कल की सबसे बड़ी उपलब्धि रही। डॉ. गंगा प्रसाद विमल से साक्षात्कारों पर आधारित इस पुस्तक में डॉ. हरदेनिया के अलावा सर्वश्री मधु धवन, कलानाथ मिश्र, शशिभूषण बडोनी, अनिल पु. कवींद्र, लक्ष्मण प्रसाद गुप्ता, देवेश प्रताप, विशाल स्वरूप ठाकुर और सुश्री रंजीता सिंह की बातचीत शामिल है। इन साक्षात्कारों में न केवल विमल जी की सहजता और सादगी के विभिन्न पहलू उभर कर आते हैं बल्कि एक रचनाकार के भीतरी तनाव,उलझने,जटिलताओं तथा भविष्य को लेकर उसकी चिंताओं को भी महसूस किया जा सकता है। विमल जी के बेबाक उत्तरों पर यदि गंभीरतापूर्वक मनन किया जाए तो निश्चित ही हमारी आत्ममुग्धता और मुगालते सिरे ख़ारिज हो जाएँगे।
                    डॉ. हरदेनिया के एक सवाल के जवाब में डॉ. विमल कहते हैं-" सृजन का क्षण कुछ-कुछ गोपनीय होता है। एक तरह की लुका छिपी का खेल,आश्वस्ति पाने की एक प्रक्रिया से भी उसे जोड़ सकते हैं। अपने सृजन के बारे में तो इतना कह सकता हूँ कि वह तब तक गोपनीय ही रहता है जब तक प्रकाशित नहीं हो जाता। मैं इस बारे में बातें भी कम करता हूँ।"....तो एक अन्य प्रश्न के उत्तर में वे कहते हैं-" असल में लेखन थोड़े अलग किस्म का काम है। आपको वह बाकी सभी चीज़ों से अलग कर डालता है। अर्थात वह एक ऐसी गतिविधि है जो भयंकर रूप से व्यक्तिगत है।"
                       धर्म,सत्ता और साहित्य के अंतर्संबंधों को लेकर अनिल पु. कवीन्द्र की बातचीत में विमल जी एक जग़ह कहते हैं-"बहुत सारी महत्त्वपूर्ण चीज़ें धर्म के खाते में डाले जाने पर अधार्मिक और अधर्मी हो जाती हैं।"

               यह पुस्तक इस अर्थ में बहुत पठनीय और संग्रहणीय है कि इस साक्षात्कारों के बहाने हम अपने अग्रज साहित्यकार के दूरगामी दृष्टिकोण के ज़रिए हमारे वर्तमान की पेचीदगियों को समझ सकते हैं तथा एक उचित समाधान को खोजते हुए भविष्य की ओर अग्रसर हो सकते हैं।
                उल्लेखनीय है कि इस पुस्तक के लिए  डॉ. हरदेनिया को कल मध्यप्रदेश साहित्य सम्मेलन द्वारा श्रीमती माधुरी देवी अग्रवाल स्मृति पुनर्नवा नवलेखन पुरस्कार से नवाजा गया है।
                     इस महत्वपूर्ण तथा श्रमसाध्य क़िताब के लिए डॉ. हरदेनिया जी को बहुत-बहुत बधाई। और पुस्तक भेंट के लिए हार्दिक धन्यवाद।

प्रेम की पराकाष्ठा

 प्रेम अपने अलग-अलग रूपों में मनुष्य के जीवन में रूपायित होता है। लेकिन एक अलग किस्म का प्रेम जो पारंपरिक प्रेम से कुछ भिन्न होता है वह हमें अंदर तक हिला भी देता है ऐसा ही एक निस्वार्थ प्रेम जिसने मुझे हिला दिया उसके बारे में मैं आपको बताने जा रहा हूं।  फेसबुक पर इस पोस्ट के साथ जो चित्र लगाए हैं उसमें एक चित्र मेरे साथ एक बुजुर्ग महिला का है जो मेरे लिए मेरी दादी से कहीं कम नहीं । किस्सा कुछ इस प्रकार है कि 2010 में जब मैं शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय ब्यावरा में अध्यापन कार्य हेतु गया, तब किराये के मकान की तलाश में जिनके घर मैं पहुंचा और बतौर किराएदार रहा यह वही दादी हैं याने कि हमारी मकान मालकिन। कहने को तो यह मेरी मकान मालकिन रहीं और जब तक रहा किराएदार के रूप में ही। पर इनका प्रेम परिवार के सदस्य से कहीं कम नहीं रहा। यह जब भी कुछ नया बनाती थीं मुझे और मेरी सहधर्मिणी को अवश्य खिलाती थीं। पाक कला में निपुण दादी कोई ना कोई हुनर मेरी धर्मपत्नी को भी सिखाती थीं। दादाजी भी उतना ही प्रेम बरसाते थे। 2012 में ब्यावरा छोड़ना हुआ और उसके बाद ब्यावरा कभी नहीं गया। दादी को जब भी याद आती अक्सर वही फोन लगाकर बात करती थीं। व्यस्तताओं के कारण मैं बहुत कम फोन कर पाता था। दादा जी के आकस्मिक देहावसान के बाद अक्टूबर 2022 में मेरा उनके वहां जाना हुआ बहुत सारी बातचीत हुई संवेदना और सहानुभूतियों का दौर भी चला और कुछ घंटों बैठने के बाद उन्होंने मुझे जो कुछ दिखाया और सुनाया, उसे देखकर और सुनकर मैं न केवल भावुक ही हुआ बल्कि हतप्रभ भी हो गया कि इतना भी प्रेम कोई किसी से कर सकता है। निस्वार्थ प्रेम। उनके शब्द थे "कि बेटा तुम्हारे जाने के बाद मुझे ऐसा लगा कि कोई किराएदार नहीं बल्कि घर का कोई व्यक्ति मुझसे दूर चला गया है इसीलिए मैंने उन चीजों को भी संभाल कर रखा है जिन्हें तुम छोड़ गए थे। वे ही पांच कप, एक बाल्टी और सीएफएल। यह तीनों मैंने संभाल कर रखे हैं और इन्हें देख कर मैं तुम्हारी याद कर लेती हूं, जब बहुत अधिक याद आती है तो फोन लगा लेती हूं। तुम जब भी मिलने आना किराएदार बनकर नहीं घर का बन कर आना।"  दादी के इन वाक्यों को सुनकर और उन सामानों को देखकर मुझे प्रेम की पराकाष्ठा का प्रमाण मिल गया। जीवन के 10 वर्षों में न जाने कितने कप प्लेट फूट गए होंगे कितनी बाल्टियां टूट गई होंगी और कितने बल्ब और सीएफएल बदल गए होंगे। लेकिन 10 वर्षों में भी दादी के वहां वही सीएफएल जल रही थी वही बाल्टी और कप आज भी सुरक्षित हैं और शायद उनके होने तक तो रहेंगे। 10 वर्षों तक सीएफएल का जलना किसी कंपनी का हुनर नहीं बल्कि प्रेम की पराकाष्ठा ही है। दादी आपका प्रेम मेरे लिए किसी पुरस्कार से कम नहीं है। आप हमेशा स्वस्थ रहें और आपका प्रेम और आशीष यूं ही हमेशा बना रहे यही प्रभु से कामना है। 🙏❤️

बुधवार, 13 अप्रैल 2022

ग़ज़ल

चारों तरफ पसरा मौत का साया है अब
खुद के लिए खुद ही जाल बिछाया है अब

एक तरफ ग़म ए रोजगार है, गरीबी है
दूसरी तरफ कोरोना  घर घर आया है अब

संगीनों के साए में है लोगों की जिंदगी
फिर भी रैलियों में रेलमपेल मचाया है अब

तबीबों में हैवानियत छा रही दिन ब दिन
बगैर पैसे इलाज कौन कर पाया है अब

मत देखो घबरा देने वाली खौफनाक खबरें
ये मंज़र दिल दहलाने वाला साया है अब

जोर जोर से चिल्लाते हैं समाचार वाचक
दरबारी याचकों पर जैसे प्रेत की छाया है अब

भाषणों की रोटियां और योजनाओं के महल
झूठ की परीक्षा में वो अव्वल आया है अब

कुछ भी हो मरती जनता ही है समझना पड़ेगा
सुख सुविधाओं पर सिर्फ ओहदे ने हक पाया है अब

क्या लेना-देना इनको मासूम आवाम से
नेताजी ठाट में हर जगह , फैली उनकी माया है अब

सत्तासीन में समा जाते गांधी के तीन बंदर
सत्ताहीन को जनता का दुख नज़र आया है अब

© डॉ. भूपेन्द्र हरदेनिया

तबीब-चिकित्सक

सोमवार, 14 फ़रवरी 2022

जाति प्रथा का दंश

"इस देश के लोग पीढ़ियों से जाति देखते आ रहे हैं, व्यक्तित्व देखने की न उन्हें आदत है, न परवाह" आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का यह कथन न केवल प्रासंगिक ही है, अपितु चरितार्थ होता तब नज़र आता जब आप अपने साथी को किसी आंचलिक क्षेत्र में किराए का घर/कमरा दिलाने ले जाते हैं, और वहां सबसे पहला प्रश्न यह किया जाता है कि आप किस जाति से हैं, और मूल जाति बताए जाने पर निश्चित ही निराशा का सामना करना पड़ता है। लेकिन हम जैसे लोगों के लिए आंचलिक क्षेत्रों की यह समस्या मन व्यथित कर देने वाली है। वाकई भारतीय अंचलों में लोगों को इस विषय पर जागरूक करने की आज महती आवश्यकता है। भारतीय परिवेश, यहां की संस्कृति, यहां के लोगों के लिए जाति-प्रथा एक बहुत बड़ा दंश है। अगर हम जात-पात से अभी नहीं उबरे तो हमारे देश में अलगाव और विघटन का संकट हमेशा व्याप्त रहेगा। मैं देखता हूं कि हमारे आंचलिक परिवेश में या तो गलत सिखाया जाता है और कहीं कुछ सही  सिखाया भी जाता है तो हम उसे गलत तरीके से प्रस्तुत करते हैं। पहले की चतुष्वर्णीय व्यवस्था कर्मों के आधार पर थी। हमारे यहां औपनिषदिक कथन है, गीता में भी कहा गया है कि 'चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।' अर्थात् मेरे द्वारा गुणों और कर्मोंके विभागपूर्वक चारों वर्णोंकी रचना की गयी है। गीता में वर्णों को गुणों और कर्मों के आधार पर माना है, यदि वर्ण को प्रमुखता देनी होती तो तो श्लोककर्ता उसे 'चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गर्भजन्मविभागशः' कहता। इसी प्रकार एक और जगह कहा गया है कि- जन्मना जायते शूद्र: संस्कारैर्दिज उज्यते। विद्यया याति विप्रत्वं त्रिभि: श्रोत्रिय उच्यते।। अर्थात जन्म से मनुष्य शूद्र के रूप में होता है संस्कारों से वह द्विज कहलाता है विद्या प्राप्त करने से वह विप्रत्व पाता है और उक्त तीनों से वह श्रोत्रीय कहा जाता है। कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना ही है कि हमारे यहां  जाति की जो रूढ़ियां हैं उन्हें बदलने की आवश्यकता है। जाति का निर्धारण वर्ण नहीं अपितु कर्म है। यस्क मुनि की निरुक्त के अनुसार - ब्रह्म जानाति ब्राह्मण: -- ब्राह्मण वह है जो ब्रह्म (अंतिम सत्य, ईश्वर या परम ज्ञान) को जानता है। और परम ज्ञान यह है कि सर्व खल्विदं ब्रहमं अर्थात हर जगह ईश्वर विद्यमान है, ब्रह्मसूत्र में 'तत्वमसि' कहकर हर तत्व में ईश्वर की विद्यमानता मानी है।  अगर हम ईश्वर के तत्त्व को नहीं समझे तो ईश्वर को समझना भी हमारे लिए नामुमकिन है, चाहे हम कितने ही पूजा पाठी हों।

- डॉ. भूपेन्द्र हरदेनिया

शुक्रवार, 23 अक्टूबर 2020

हूंक

🕉🕉🛐
👀चालाकियां 
चारों तरफ,
➖➖➖
विरक्तियां 
सब के मन में,
➖➖➖
मजबूरियां
फॅंसती हैं सबके साथ,
➖➖➖
सुनना
किसी की नहीं है,
➖➖➖
समझदार 
सब ,
❓❓❓
समझना
कोई नहीं चाह रहा,
🤔🤔🤔
जमाना
बदलता जा रहा ,
➿➿➿
संवेदनाएं
मर चुकी हैं,
🎶🎶🎶
करुणा
गुजरे जमाने की बात हुई,
🔯🔯🔯
धन
माई बाप सबका,
💲💲💲
त्यागी
बनना नहीं चाहता कोई,
♦♦♦
त्याग 
सब चाहते हैं  दूसरों से,
🔔🔔🔔
पालिटिक्स
गांव गांव घर-घर
🎭🎭🎭
डॉ. भूपेन्द्र हरदेनिया

आइऐ जाने असली पर्यावरण योद्धा पीपल बाबा कोजिन्होंने लगाए दो करोड़ से अधिक पौधे

पीपल बाबा या स्वामी प्रेम परिवार एक पर्यावरणविद् है जिन्होंने अपनी टीम के साथ भारत के 18 राज्यों में 202 जिलों में 20 मिलियन से अधिक पेड़ लगाए हैं। 

मिलिए दो करोड़ से भी ज्यादा पेड़ लगवाने वाले पीपल बाबा से!

पीपल बाबा का मानना है कि अगर कोई 16 पेड़ काटेगा तो वह 16 हज़ार पेड़ लगा देंगे।

जलती धरती जलता आसमान
दिन दिन झेल रहे प्रदूषण की मार
साथ में आ पड़ी ये आपदा विकराल
अब कौन करेगा इसका समाधान

अगर पीपल बाबा की मानें तो इन सबका सिर्फ एक ही समाधान है और वो हैं पेड़। इस बात को हममें से शायद ही कोई नकारेगा। इसलिए तो पीपल बाबा यानी स्वामी प्रेम परिवर्तन ने पेड़ लगाने को ही अपनी रोज की नौकरी बना ली और जीवन इसी सेवा भाव में न्यौछावर कर दिया। पीपल बाबा ने पिछले करीब 44 साल में 2 करोड़ से ज्यादा पेड़ लगाए हैं और उनका ये सफर इस कोरोना काल में भी जारी है।

उन्होंने उत्तर प्रदेश, दिल्ली-एनसीआर, हरियाणा, महाराष्ट्र, जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और राजस्थान समेत 18 राज्यों के करीब 202 जिले में पेड़ लगवाए हैं और इनका साथ दे रहे हैं देश के करीब 14 हजार वॉलेंटियर। जबकि इनके खुद के ‘एनजीओ गिव मी ट्रीज ट्रस्ट’ में 30 फुल टाइम वर्कर काम करते हैं।

स्वामी प्रेम परिवर्तन उर्फ़ पीपल बाबा

कैसे हुई शुरुआत?

ये साल 1977 की बात है। स्वामी प्रेम परिवर्तन का बचपन का नाम आजाद था और पिता सेना में डॉक्टर थे। चौथी कक्षा में पढ़ने वाले आजाद को उनकी टीचर अक्सर पर्यावरण के महत्व के बारे में बताती थीं। साथ ही सचेत भी करती थीं कि आगे चलकर नदियां सूख जाएंगी। तो 10 साल के आजाद ने 26 जनवरी के दिन अपनी मैडम से पूछ ही लिया कि मैडम हम क्या कर सकते हैं? इसका जवाब मैडम ने ये दिया कि क्लाइमेट चेंज, ग्लोबल वॉर्मिंग, प्रदूषण सबका उपाय पेड़ है। आजाद ने घर आकर ये बात अपनी नानी को बताई। नानी भी पेड़ों के महत्व को अच्छे से जानती थीं। आजाद जब उदास भी होते तो उन्हें पेड़ों के नीचे ही बैठने के लिए कहती थीं। तो उस दिन भी नानी ने कहा कि हाँ तुम पेड़ लगाओ।

प्रेम बताते हैं, ‘‘मैं उसी दिन अपने माली काका की साइकिल पर बैठकर गया, नर्सरी से 9 पौधे खरीदे। वो आज भी आपको रेंज हिल रोड, खिड़की कैंटोनमेंट, पुणे में 9 पेड़ आपको मिल जाएंगे।’’ उस दिन के बाद से उनकी जो यात्रा शुरू हुई है वो आज भी जारी है। पीपल बाबा सिर्फ पेड़ लगाकर छोड़ नहीं देते हैं बल्कि उनका ख्याल भी रखते हैं।

बच्चों के साथ पेड़ लगाते पीपल बाबा

पीपल बाबा ने अपनी पढ़ाई इंग्लिश में पोस्ट ग्रेजुएशन तक की है। इसके बाद उन्होंने अलग-अलग कंपनियों में 13 साल तक इंग्लिश एजुकेशन ऑफिसर के तौर पर काम किया। इसी के साथ ही उनकी पेड़ लगाने की यात्रा चलती रही। इसके बाद उन्होंने इसे फुल टाइम काम बना लिया। हालांकि अपने जीवनयापन और फैमिली के लिए वो ट्यूशन्स देते रहे और आज भी देते हैं। परिवार ने उनका इस काम में पूरा साथ दिया।

साल 2010 में फिल्म स्टार जॉन अब्राहम ने इनके काम को नोटिस किया। उन्होंने ही एक इस काम को बड़े स्केल पर ले जाने और सोशल मीडिया पर आने की सलाह दी। जिसके बाद पीपल बाबा ने 2011 में गिव मी ट्रीज ट्रस्ट की स्थापना की।

कोरोना में भी जारी है पेड़ लगाने का काम?

पेड़ लगाने की तैयारी करते हुए पीपल बाबा के एनजीओ के लोग

पीपल बाबा करीब 44 साल से पेड़ लगा रहे हैं। क्योंकि पिता मिलिट्री में थो देश के हिस्सों में काम करने का मौका मिला। पिछले 20 साल से उन्होंने दिल्ली को अपना बेस कैंप बनाया हुआ है। अपनी संस्था के जरिए देशभर में पेड़ लगवाते हैं। इसी सिलसिले में पौधे लेने के लिए 19 मार्च को वह हरिद्वार पहुंचे थे। वह जहां गए थे वहां कोरोना पोजेटिव केस आने की वजह से इलाके को सील कर दिया गया। वहां रहते हुए भी उन्होंने आसपास के गांवों में 1 हजार 64 पेड़ लगवा दिए। इसके अलावा दिल्ली लौटने के बाद उन्होंने लखनऊ, नोएडा और दिल्ली में पड़े लगवाए। कुल मिलाकर कोरोना काल में भी पीपल बाबा ने अब तक 8064 पेड़ लगवा दिए हैं।

एक-एक पेड़ का हिसाब रखने पर जब उनसे सवाल पूछा गया तो उन्होंने कहा, “हमें अपने कर्मों को ऑडिट करते रहना चाहिए। तभी मैं एक एक पेड़ का हिसाब रखता हूँ। मेरे पास पुरानी फाइल्स भी हैं जिनमें से आप जबका पूछोगे मैं तब बता सकता हूं कि कौन सा पेड़ कब लगाया।”

पीपल बाबा नाम कैसे पड़ा?

पीपल बाबा ने जो 2 करोड़ से ज्यादा जो पेड़ लगाए हैं, उनमें करीब सवा करोड़ पेड़ नीम और पीपल के हैं। उनका कहना है, “हम इंडियन अपनी रूट से जुड़े हैं जिन्हें आम चीजें ज्यादा समझ आती है, लोगों को नीम, पीपल और बरगद के पेड़ ज्यादा समझ आते हैं। वैसे हम जामुन, अमरूद, इमली और जगह के हिसाब से अलग अलग पेड़ लगाते हैं। लेकिन पीपल पवित्र पेड़ माना जाता है। इस पेड़ से कई तरह की धार्मिक भावनाएं जुड़ी होती हैं, कई मान्यताएं और पौराणिक महत्व भी हैं। जिससे वैसे तो कोई इसे लगाता नहीं लेकिन लगा दिया तो इसे कोई काटने नहीं आता।”

पहली बार किसने बुलाया पीपल बाबा?

स्वामी प्रेम परिवर्तन बताते हैं, “मैं राजस्थान के पाली जिला में गया था किसी के साथ। तो किसी ने कहा कि कुएं सूख रहे हैं तो इसका उपाय बताइए। तो हमने बचपन में पंजाब के किसानों से सुना था कि आप बड़ का पेड़ लगाएँ क्योंकि उसकी जड़ें पानी खींचती हैं। वो वहां आसपास के कई जिलों पर हमने पीपल और बड़ के बहुत पेड़ लगाए। तो पाली में एक चौपाल लगी थी और वहां के सरपंच ने मेरा इंट्रोडक्शन पीपल बाबा के नाम से कराया। जिसे सुनकर मैं खुद चौंक गया और उसे बाद हर तरफ मुझे पीपल बाबा ही कहा जाने लगा।”

क्या पेड़ों को बचाने की भी किसी मुहिम में हिस्सा लेते हैं पीपल बाबा?

वॉलंटियर्स के साथ पीपल बाबा

इस पर पीपल बाबा कहा कहना है, “इस जीवन में मेरे पास धरना देने या ऐसी चीजों का समय नहीं है। मैं अगर आधा घंटा भी बैठूंगा तो इनती देर में मेरे 7-8 पेड़ और लग जाएंगे। कितने पेड़ काटेंगे? 16 काटेंगे हम 16 हजार लगा दें। मेरी नानी कहा करती थीं आप पेड़ लगाने वालों की संख्या बढ़ाओ, आप पेड़ काटने वालों की संख्या घटा नहीं सकते।”

पीपल बाबा आम लोगों से भी आग्रह करते हैं कि हम सभी को पेड़ लगाने चाहिए। अगर आप भी पीपल बाबा के वॉलेंटियर बनना चाहते हैं या उनकी किसी तरह से मदद करना चाहते हैं तो उनकी संस्था गिव मी ट्रीज ट्रस्ट से जुड़िए। या उन्हें 88003 26033 पर संपर्क कर सकते हैं।

https://www.google.com/amp/s/hindi.thebetterindia.com/40194/meet-peepal-baba-who-has-planted-more-than-two-crore-trees-ecofriendly-rohit-maurya/

आज हमारे पास डिग्रियां तो बहुत हैं पर नैतिक मूल्य नहीं है

मशहूर फिल्म कलाकार आशुतोष राणा की शिक्षा व्यवस्था पर एक अच्छी पोस्ट-

आज मेरे पूज्य पिताजी का जन्मदिन है सो उनको स्मरण करते हुए एक घटना साझा कर रहा हूँ।

बात सत्तर के दशक की है जब हमारे पूज्य पिताजी ने हमारे बड़े भाई मदनमोहन जो राबर्ट्सन कॉलेज जबलपुर से MSC कर रहे थे की सलाह पर हम ३ भाइयों को बेहतर शिक्षा के लिए गाडरवारा के कस्बाई विद्यालय से उठाकर जबलपुर शहर के क्राइस्टचर्च स्कूल में दाख़िला करा दिया। 
मध्य प्रदेश के महाकौशल अंचल में क्राइस्टचर्च उस समय अंग्रेज़ी माध्यम के विद्यालयों में अपने शीर्ष पर था। 

पूज्य बाबूजी व माँ हम तीनों भाइयों ( नंदकुमार, जयंत, व मैं आशुतोष ) का क्राइस्टचर्च में दाख़िला करा हमें हॉस्टल में छोड़ के अगले रविवार को पुनः मिलने का आश्वासन दे के वापस चले गए।

मुझे नहीं पता था कि जो इतवार आने वाला है, वह मेरे जीवन में सदा के लिए चिह्नित  होने वाला है, 

इतवार का मतलब छुट्टी होता है लेकिन सत्तर के दशक का वह इतवार मेरे जीवन की छुट्टी नहीं "घुट्टी" बन गया। 

इतवार की सुबह से ही मैं आह्लादित था, ये मेरे जीवन के पहले सात दिन थे,  जब मैं बिना माँ- बाबूजी के अपने घर से बाहर रहा था। 
मेरा मन मिश्रित भावों से भरा हुआ था, हृदय के किसी कोने में माँ,बाबूजी को इम्प्रेस करने का भाव बलवती हो रहा था , 
यही वो दिन था जब मुझे प्रेम और प्रभाव के बीच का अंतर समझ आया। 

बच्चे अपने माता पिता से सिर्फ़ प्रेम ही पाना नहीं चाहते वे उन्हें प्रभावित भी करना चाहते हैं। 

दोपहर ३.३० बजे हम हॉस्टल के विज़िटिंग रूम में आ गए•• 

ग्रीन ब्लेजर, वाइट पैंट, वाइट शर्ट, ग्रीन एंड वाइट स्ट्राइब वाली टाई और बाटा के ब्लैक नॉटी बॉय शूज़.. ये हमारी स्कूल यूनीफ़ॉर्म थी। 

हमने विज़िटिंग रूम की खिड़की से, स्कूल के कैम्पस में- मेन गेट से हमारी मिलेट्री ग्रीन कलर की ओपन फ़ोर्ड जीप को अंदर आते हुए देखा, जिसे मेरे बड़े भाई मोहन जिन्हें पूरा घर भाईजी कहता था, ड्राइव कर रहे थे और माँ बाबूजी बैठे हुए थे। 

मैं बेहद उत्साहित था मुझे अपने पर पूर्ण विश्वास था कि आज इन दोनों को इम्प्रेस कर ही लूँगा। 
मैंने पुष्टि करने के लिए जयंत भैया,  जो मुझसे ६ वर्ष बड़े हैं, उनसे पूछा मैं कैसा लग रहा हूँ ? 

वे मुझसे अशर्त प्रेम करते थे, मुझे ले के प्रोटेक्टिव भी थे, बोले, शानदार लग रहे हो !   

नंद भैया ने उनकी बात का अनुमोदन कर मेरे हौसले को और बढ़ा दिया।

जीप रुकी.. 

उलटे पल्ले की गोल्डन ऑरेंज साड़ी में माँ और झक्क सफ़ेद धोती - कुर्ता ,गांधी - टोपी और काली जवाहर - बंडी में बाबूजी उससे उतरे, 

हम दौड़ कर उनसे नहीं मिल सकते थे, ये स्कूल के नियमों के ख़िलाफ़ था, सो मीटिंग हॉल में जैसे सैनिक विश्राम की मुद्रा में अलर्ट खड़ा रहता है , एक लाइन में हम तीनों भाई खड़े-खड़े  माँ बाबूजी का अपने पास पहुँचने का इंतज़ार करने लगे, 

जैसे ही वे क़रीब आए, हम तीनों भाइयों ने सम्मिलित स्वर में अपनी जगह पर खड़े- खड़े  ही Good evening Mummy!
 Good evening Babuji ! कहा। 

मैंने देखा good evening सुनके बाबूजी हल्का सा चौंके फिर तुरंत ही उनके चेहरे पे हल्की स्मित आई,  जिसमें बेहद लाड़ था !

मैं समझ गया कि ये प्रभावित हो चुके हैं ।

 मैं जो माँ से लिपटा ही रहता था,  माँ के क़रीब नहीं जा रहा था ताकि उन्हें पता चले कि मैं इंडिपेंडेंट हो गया हूँ .. 

माँ ने अपनी स्नेहसिक्त - मुस्कान से मुझे छुआ, मैं माँ से लिपटना चाहता था किंतु जगह पर खड़े - खड़े मुस्कुराकर अपने आत्मनिर्भर होने का उन्हें सबूत दिया। 

माँ ने बाबूजी को देखा और मुस्कुरा दीं, मैं समझ गया कि ये प्रभावित हो गईं हैं। 

माँ, बाबूजी, भाईजी और हम तीन भाई हॉल के एक कोने में बैठ बातें करने लगे हमसे पूरे हफ़्ते का विवरण माँगा गया, और 

६.३० बजे के लगभग बाबूजी ने हमसे कहा कि अपना सामान पैक करो, तुम लोगों को गाडरवारा वापस चलना है वहीं आगे की पढ़ाई होगी•• 

हमने अचकचा के माँ की तरफ़ देखा।  माँ बाबूजी के समर्थन में दिखाई दीं। 

हमारे घर में प्रश्न पूछने की आज़ादी थी।  घर के नियम के मुताबिक़ छोटों को पहले अपनी बात रखने का अधिकार था, सो नियमानुसार पहला सवाल मैंने दागा और बाबूजी से गाडरवारा वापस ले जाने का कारण पूछा ? 

उन्होंने कहा,  *रानाजी ! मैं तुम्हें मात्र अच्छा विद्यार्थी नहीं, एक अच्छा व्यक्ति बनाना चाहता हूँ !* 

*तुम लोगों को यहाँ नया सीखने भेजा था पुराना भूलने नहीं !* 

*कोई नया यदि पुराने को भुला दे तो उस नए की शुभता संदेह के दायरे में आ जाती है,*

*हमारे घर में हर छोटा अपने से बड़े परिजन,परिचित,अपरिचित , जो भी उसके सम्पर्क में आता है, उसके चरण स्पर्श कर अपना सम्मान निवेदित करता है !*

   *लेकिन हमने  देखा कि इस नए वातावरण ने मात्र सात दिनों में ही मेरे बच्चों को, परिचित छोड़ो , अपने माता पिता से ही चरण-  स्पर्श की जगह Good evening कहना सिखा दिया। मैं नहीं कहता कि इस अभिवादन में सम्मान नहीं है, किंतु चरण स्पर्श करने में सम्मान होता है,  यह मैं विश्वास से कह सकता हूँ !*

*विद्या व्यक्ति को संवेदनशील बनाने के लिए होती है संवेदनहीन बनाने के लिए नहीं होती !* 

*मैंने देखा , तुम अपनी माँ से लिपटना चाहते थे लेकिन तुम दूर ही खड़े रहे, विद्या दूर खड़े व्यक्ति के पास जाने का हुनर देती है , नाकि अपने से जुड़े हुए से दूर करने का काम करती है !* 

*आज मुझे विद्यालय और स्कूल का अंतर समझ आया, व्यक्ति को जो शिक्षा दे, वह विद्यालय और  जो उसे सिर्फ़ साक्षर बनाए वह स्कूल !*

*मैं नहीं चाहता कि मेरे बच्चे सिर्फ़ साक्षर हो के डिग्रियों के बोझ से दब जाएँ, मैं अपने बच्चों को शिक्षित कर दर्द को समझने, उसके बोझ को हल्का करने की महारत देना चाहता हूँ !* 

*मैंने तुम्हें अंग्रेज़ी भाषा सीखने के लिए भेजा था, आत्मीय भाव भूलने के लिए नहीं!* 
*संवेदनहीन साक्षर होने से कहीं अच्छा, संवेदनशील निरक्षर होना है इसलिए बिस्तर बाँधो और घर चलो !*

 हम तीनों भाई तुरंत माँ बाबूजी के चरणों में गिर गए, उन्होंने हमें उठा कर गले से लगा लिया.. व शुभ -आशीर्वाद दिया कि 

*किसी और के जैसे नहीं स्वयं के जैसे बनो..* 

पूज्य बाबूजी ! जब भी कभी थकता हूँ या हार की कगार पर खड़ा होता हूँ तो आपका यह आशीर्वाद "किसी और के जैसे नहीं स्वयं के जैसे बनो" संजीवनी बन नव ऊर्जा का संचार कर हृदय को उत्साह उल्लास से भर देता है । आपको प्रणाम
Ashutosh Rana
नोट :- *अपनी संस्कृति , सभ्यता और आचरण की सहज सरलता भुलाकर डिग्री भले हासिल हो जाये ,ज्ञान नहीं प्राप्त हुआ , निःसंदेह*। आज हमारे पास डिग्रियां तो बहुत हैं पर नैतिक मूल्य नहीं है पैसे की अंधी दौड़ में हम आगे तो बढ़े चले जा रहे हैं लेकिन हम अपने आसपास के और चारों के माहौल को बिगाड़ते जा रहे हैं, पर्यावरण की चिंता भी हमें नहीं हो रही। संस्कृति के विभिन्न पहलू क्षीण होते जा रहे हैं, आपसी वैमनस्यता बढ़ती जा रही है, घर से बाहर सभी जगह केवल प्रतियोगिता का दौर है क्या यही है हमारी वास्तविक शिक्षा।