कुछ दिनों से
अमुवा के तले
मैं देख रहा हूँ बैठा
कि तोते अक्सर
कैरियाँ खाने की ख़्वाहिश से ,
बैठते हैं उसकी पतली
लटकनों पर,
और चोंच गढा़ते ही
टपक जाती हैं
अपने भार से वे
उन्हें सम्भाला नहीं जा सका
गिरकर फट जाती हैं,
भोग की वस्तु नहीं होता प्रेम
वह चाहता है सलीक़ा
स्वार्थ कहाँ पलता है उसमें|
-डाॅ. भूपेन्द्र हरदेनिया
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