मंगलवार, 3 मई 2016

मैंने देखा है पृथ्वी को रोते‘‘ पुस्तक समीक्षा

   मैंने देखा है पृथ्वी को रोते‘‘  पुस्तक समीक्षा
-डॉ0 भूपेन्द्र हरदेनिया

हिन्दी के प्रख्यात रचनाकार, विख्यात आलोचक, प्रसिद्ध चित्रकार और सौन्दर्यशास्त्र के प्रणेता, कवि विजेन्द्र का अभी हाल ही में एक काव्य संग्रह प्रकाश में आया जिसका शीर्षक है ‘मैंने देखा है पृथ्वी को रोते।‘ यह उनकी लम्बी कविताओं का चौथा संग्रह है। इस संग्रह में कवि अपनी अन्तर्यात्रा से होते हुए तथा स्वयं की पड़ताल करते हुए पृथ्वी की अन्तर्वेदना का खोजता हुआ नजर आता है। इसमें रचनाकार ने अपनी संवेदनाओं, अनुभूतियों प्रेरणाओं, विचारों का गम्भीर अभिव्यक्तिकरण किया है। यह कहा जा सकता है कि कवि ने जो भोगा वही बयॉं किया। उन्होंने अपनी रचना के माध्यम से बाह्य का आभ्यन्तरीकरण किया और फिर इन आभ्यंतरित विषय वस्तुओं को आत्ममथित करके उनका बाह्यीकरण किया। इस रचनाकृति को पढ़ने के बाद लगता है कि वास्तव में इस तरह का सृजन एक महान सौंदर्यशास्त्री और सजग चित्रकार या काव्य सिसृक्षु ही कर सकता है। ‘मैंने देखा है पृथ्वी को रोते‘ कुल 192 पृष्ठों विन्यस्त यह काव्य संग्रह चार लम्बी कविताओं में विभक्त है। जो हमें कवि के जीवन से, उनके अनुभव बोधों से होते हुए या गुजारते हुए हमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के चक्कर लगवा देती है।, लगता है जैसे कि हमने अपने साथ-साथ सम्पूर्ण पृथ्वी को घूम लिया हो। नहीं फिर चाह रह जाती और कुछ जानने की, क्यूॅं कि सब कुछ तो है इसमें।

सबसे पहले बात करते हैं इस संग्रह में संकलित पहली कविता ‘आधी सदी की जो कि नितांत वैयक्तिम किस्म की कविता होते हुए भी कहीं न कहीं निर्वैयक्तिकता के कोने को इस प्रकार छू कर लौट आती है, जैसे कोई समुद्र की लहर व्यक्ति को आल्हादित कर लौट जाती है, उसी प्रकार इनकी ये कविता भी सहृदय का साधारणीकरण आसानी से कर देती है। इस कविता के भाव सहृदय सामाजिक के भाव ही लगने लगते हैं। इस कविता में झकझोर देने वाली वे संवेदनाएॅं हैं जो हम अपने जीवन में गहन संघर्ष के दौरान अनुभव करते हैं। भारतीय जनमानस का जो संघर्ष, विदू्रपता, रूढ़िवादिता, गम्भीर दम्भवादिता और झूठी शान-ए-शौकत का जो आलम है वह कवि के हृदय के साथ-साथ हमें झकझोर देता है। कविता की शुरूआत होती मॉं के उस त्याग और बलिदान को याद करके जो कवि के जीवन को संजाने सॅंवारने में व्यतीत हो गया। मॉं शब्द में करुणा छिपी है, अपने करुणा कलित हृदय से मॉं की समृति में कहता है ‘‘प्रिय आधी सदी गई मेरी/मॉं खोई मुझ से/नहीं उठ पाई सुख/मेरे जीवन के/कष्ट उठा के गहरे-गहन/ मुझे पढ़ाया बड़े जतन से/झेल कर जीवन के आतप, अंधड़/दृढ़ इच्छा से..............ठोकर खाई पग-पग पर/नहीं हताशा जानी उसने‘‘ कवि की यह रचना अपने समय से मुठभेड़ करती हुई नजर आती है। वह अपनी कविता में स्वयं से लड़ता हुआ नजर आता है, इसका कारण रचनाकाल के जीवन में एक पल का भी विश्राम न पाना और एक के बाद एक नवीन समस्याओं का उसके जीवन में उत्पन्न होना था। कभी भाई का मृत्युबोध और कभी जिम्मेदारियों और कठिनाइयों से कम उम्र में भी स्वयं को चारों ओर से घिरा हुआ पाना है-‘‘बीत गई अर्ध सदी यह मेरी/ बछड़े से जब बैल बना था/कन्धे भारी भरकम/अति का बोझा लदा था/कोई राह नहीं थी न्यारी/ बोझा मुझको ही ढोना था।‘‘ आज के समय में जबकि जिं़दगी स्वार्थ के सुरंग मूल्यहीनता की अंधी दौड़ और समस्याओं की आपाधापी गुज़र से रही है, ऐसे में विजेन्द्र जी की यह कविता बड़ी ही संुदर और यथार्थ अनुभूतियों का परिचय कराती नजर आती है। वास्तव में ये ‘आधी सदी‘ नहीं बल्कि पौरस्तय पुरातनता की बीती हुई सदियों को भारतीय जनमानस के हृदय में दर्ज कराने वाली कविता है। इसमें कवि के जीवन की सार्थक और गंभीर बातें उसी तरह चुन-परखकर समाहित की हैं जैसे एक माल्यकार माला को स्वस्थ और सुंदर फूल चुनकर बनाता है। उन्होंने अपनी इस कविता में बेहद सुकोमल और सौंदर्यानुभूति से आपादमस्तक सराबोर होकर अपने जीवन की सच्चाई की मार्मिक अभिव्यक्ति की है। किस तरह आज धन लोलुप लोग झूठे आडम्बरों के चक्कर में आकर दहेज प्रथा को बढ़ावा दे रहा, साथ ही भारतीय परम्परा में किस तरह किसी स्त्री को दासता और केवल उपभोग की वस्तु समक्षा जाता है उसका मार्मिक वर्णन कवि की कविता में देखते हैं बनता है, ‘‘सभी जगह कंचन पुजता है/जहॉं पूछता-ठसक जताते हैं राजपूती/बिगड़े हाल भीतर है टूटे/गले सड़े रीते से रीते/गॉंठ मुट्ठी सब कुछ है खाली/फिर भी गाते/गये दिनों की महिमा न्यारी/कहते पृथ्वीराज चौहान/हमारे पुरखे थे।...हमारे कुल के हैं जयसिंह भी/जयपुर जिनके नाम से बसा है/लड़की के पढ़ने से क्या होगा/बहू बने त्यौरी घर की/जाने सेवा करनी पति की/सास ससुर ननद देवर की/बरतन मॉंजे धोये/कपड़े ढंग से फींच सुखाये/यही परम्परा है भारत की‘ क्या यही परम्परा है हमारे देश की ? क्या स्त्री को अधिकार नहीं है स्वतंत्र होकर जीवन को जीने का क्या वह नहीं कर सकती प्रतिकार इन सब विसंगतियों का। जिस देश में जहॉं वेद बखान करते हैं, ‘यत्र नारयस्तु पूज्यन्ते‘ कया हो सकती है वहॉं के लोगों की ऐसी दृष्टि। आज किस तरह वर का मोल भाव किया जाता है, किस तरह तोला जाता है उसे धन के तराजू पर, बगैर धन के एक अच्छे वर की कल्पना करना भी बेकार है, क्यॅूं कि आज सभी की दृष्टि धन पर ही है, ‘‘आखिर सबकी गिद्ध दीठ है/कंचन धन पर/कन्या मेरी सीधी सादी/है बहुत ही प्रतिभाशाली/नाम अनामिका/जान रही है/बूता नहीं पिता का मेरे/कहॉं से लायें धन इतना/मन ही मन ताड़ रही है/लाखों में मिलता एक वर/मन चाहा/भाव ताव ऊॅंचे हैं।‘‘ कवि अपने भोग्यमान अनुभवों के माध्यम से भारतीय मानस की कूपमंडूकता पर बार-बार कड़ा प्रहार करते हुआ नजर आता है, वे बार-बार उन प्रश्नों पर दृष्टिपात करते हैं जो भारतीय जनमानस को जगाने, उन्हें झिंझोड़ने और सोचने को मजबूर करने वाले हैं। कवि लड़के देखने जाने पर अपनी मॉ। की बात को याद करता हुआ सोचता है कि ‘लड़के बाले/नहीं किया करते सीधे मॅंह बातें/जीवन है जैसे सहने को/घातों पर पैनी घातें/इन्जीनियार हो या हो प्रशासक/अध्यापक क्या निहाल करेगा/ले देके अपना पेट भरेगा/क्या करूॅं क्या कहकर पछताऊॅं/अंग्रेजी के अध्यापक तो/ कमा रहे हैं लाखों/मैं बना फिरूॅं आदर्शवादी/मॉं ने बहुत कहा बेटा जानो दुनियादारी/बिन पैसा जीवन में देखोगे ख्वारी‘‘ रचनाकार इन स्थितियों को देखकर और टूट चुका है, वह इस आपाधापी की जिंदगी में अपना धैर्य खोता जा रहा है, क्यॅं कि इस धन कुबेरों की दुनिया में ‘‘लगता है कैसे चल पाऊॅंगा/सबके सामने सिर ऊॅंचा करके/नहीं सोच पाता/क्या कैसा होगा अगला दिन/असुरक्षा का दैत्य डराता रह रह कर/आत्म बल टूट रहा है‘‘ इसी के कारण उसे अपनी आत्म सुरक्षा की चिन्ता सताये जा रही है, उसे जीवन की वक्रता का भान, उसके अंतर्मन को झकझोरने लगा है। इन सबके अलावा कवि के अन्तर्मन में जो बात चलती रहती है वह कहीं न कहीं भारतीय नारी चेतना को लेकर ही है चाहे वह उसकी मॉं के रूप में हो या बहन या बेटी के रूप में लेकिन उस माध्यम से वह भारतीय नारी की स्थिति को उजागर अवश्य कर रहा है। किस तरह एक स्त्री मॉं के रूप में अपने बच्चों का पालन-पोषण करती हैं, किन-किन कष्टों से गुजरकर अपने बच्चों को इस काबिल करती है कि वह किसी लायक हो सकें। मॉं कुछ खा ले, पहन ले, लेकिन अपने बच्चों को हमेशा अच्छा ही देती है, चाहे वह खाने की वस्तु हो या पहनने की। कवि अपनी मॉं को याद करता हुआ कहता है-‘‘किया काम पूरे घर का/नौकरानी रात दिना की/बच्चों के संग सोना/शू-शू उन्हें कराना/रात विरात जब भी जागे/दूध गरम कर उन्हें पिलाना............ठिठुरी सिकुड़ी कड़े शीत में/एक ब्लाउज में जाड़ा काटा/रही सादा मॅुंह देखा और का।‘‘ आज की एक ज्वलंत समस्या है पुत्र के रूप में संतान प्राप्ति की प्रबल इच्छज्ञ। भारतीय परंपरा में यह माना जाता रहा कि किसी वंश वृद्धि के लिए संतान प्राप्ति की आवश्यक है, अगर कोई स्त्री निःसंतान है तो उसका जीना दूभर मानते हुए कवि कहता है ‘‘बॉझ स्त्रियों को समाज समाझता/नेठ की मारी/सब करते हैं परहेज उत्सव में/अनुष्ठान कार्यों में नहीं छुआते कुछ भी/नहीं देखने देते मुॅंह उसका/नवविवाहित दुल्हन को..........कैसा समाज है पिछड़ा, मरियल इसमें सहना है केवल स्त्री को।‘ कवि अपनी इन पंक्तियों के माध्यम से समाज के कुरूपताओं का छोभ प्रकट करते हुए हर हालत में हो रही स्त्री दुर्दशा के प्रति अपनी चिंता व्यक्त करते हुए नजर आ रहे हैं।
विजेन्द्र जी अपने इस कविता संग्रह में ऐसी कविताओं का जन्म देने की कोशिश करते नजर आते हैं जो उतनी ही सहजता से सहृदय का साधारणीकरण कर सके। लेकिन सहृदय का साधारणीकरण तब हो सकता है, जब कवि के भाव निर्वैयक्तिक हो जाए, वे जन सामान्य के भाव, जन सामान्य की स्थति और अनुभूति को अभिव्यक्त कर सके। इस अभिव्यक्ति को करने में विजेन्द्र जी की कविताएॅं अत्यंत सफल हुई हैं, जैसे मॉं के चेहरे पर लिखी ंिचंता, पिता का असमय गुजर जाना, बहन की आवाज में दुख, बहन-बेटी की शादी की चिंता, दहेज लोलुपता, अर्थवादी दृष्टिकोण, पुरातन दम्भवादिता, समाज की खींचतान, भाई का असमय बिछड़ जाना, पत्नी और मॉं का त्याग, दृट़ संकल्प बच्चे की किलकारी की खुशी, स्त्री की लाचारी, निःसंतान नारी की स्थिति, पुत्र प्राप्ति की तीव्र कामना आदि। इन समस्याओं से केवल कवि का तादात्म्य ही नहीं बल्कि ये वह परिस्थितियॉं जिनका सामाना समाज में कहीं न कहीं, किसी न किसी व्यक्ति को करना पड़ता है। जैसे सुख और दुख की अनूभूति सहज होती है, उसी प्रकार कविता की अनुभूति भी समझ में आ जानी चाहिए। इनकी कोशिश ऐसी ही कविता को पाने की है, विजेन्द्र जी लगातार अपनी कविता में भाषा की उस सादगी और सहजता को पाने की कोशि करते हैं, जिसे आमजन्य ग्राह्य कर सके। 

इस संग्रह की अगली कविता पुस्तक का ही शीर्षक है ‘मैंने देखा पृथ्वी को रोते।‘ यह कविता एक लम्बी कविता है, जिसने अपनी लम्बाई से लगता है कि जैसे सम्पूर्ण पृथ्वी को ही अपने काव्यागोश में ले लिया हो, सम्पूर्ण पृथ्वी के दर्द को अपने दिल में बिठा लिखा हो, और मानो एक-एक दर्द को, उसके एक-एक तार को खोलकर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के रहस्य को, उसके तनाव को उजागर कर ही हो। आज जो इस पृथ्वी में खनिज अपार सम्पदा विद्यमान है, जिसके कारण उसका किस तरह विनाशकारी दोहन हो रहा है, किस तरह यह पृथ्वी अपनी इस निरीह हालत पर रुदन कर रही है, इसका सम्पूर्ण दस्तावेज है यह कविता। पृथ्वी के गर्त में छिपे अनेक अनगिनत रहस्यों एवं छुए-अनछुए पहलुओं को उजागर करती यह कविता वाकई में कहा जाए कि यह एक पृथ्वी कविता है तो अतिश्योक्ति न होगी। सम्पूर्ण पृथ्वी को डॉयनामॉइट के ढेर पर खड़ा कर दिया गया है। कहा जा सकता है कि पृथ्वी अपने सीने पर अनेक दंश और दर्दों को झेल रही है, उसी वजह से वह व्यथित है, फिर भी वह अपनी धरती मॉं को दिलासा देता हुआ कह रहा है ‘ओ पृथ्वी तू मत रो/मेरी मॉं, मेरा आवास, मेरा मर्म/मेरा सबकुछ, खेत उद्यान नगर गॉंव/तू नहीं कभी थिर, अथिर शेष/तू मत रो‘‘ क्यॅं कि कवि जानाता है कि ‘तू रो मत/तुझे जो खॅूंदते हैं रात-दिन हिंस्त्र पशु पैने खुरों से/वे नहीं रहेंगे एक दिन।‘‘ कवि ने अपनी इस सम्पूर्ण कविता में हमें पृविी की पीड़ा को उजागर करते हुए जल-थल-नभ और उसकी संरचना, विविध वनस्पितियॉं, वास्तुशिल्प, स्थापत्य, विभिन्न सभ्यताएॅं, पर्वत, पहाड़, झरने, विभिन्न दार्शनिकों, सौर मण्डल, विभिन्न ग्रहों, उपग्रहों, विविध भू आकृतियों, नई भू दृश्यावलियों, भू आकृतिविज्ञान, प्रकाश पुंजों, सूर्यक्रीट की संरचना, तारों का टिमटिमाना, सागर-महासागरों की संरचना आदि के दर्शन तो करा ही है साथ ही इस प्रकृति के द्वारा दिए हुए इस अपार धन सम्पदा के बीच गंभीर चिंतनीय मानवीय स्थिति को उजागर किया गया है। ऐसा लगता कि कवि ने अपनी कविता में इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को मथ कर रख दिया है और उससे प्राप्त उन सभी चीजों और उनकी संरचना को हमारे सामने स्पष्ट रूप से एक-एक करके सजा दिया हो। जैसे सागर मंथन से प्राप्त कोई रत्न या विष दोनो ही।
आज के युग में किस तरह की स्थिति इस पृथ्वी पर निर्मित हो गई है उसका बड़ा ही सजीव चित्रण कवि ने अपनी इस कविता के माध्यम से किया है। किस प्रकार पृथ्वी मनुष्य द्वारा दी गई यातनाओं को पृथ्वी सहती है, इस पर कवि कहता है-‘‘मनुष्य की यातनाएॅं गहरी/पीड़ाएॅं तीखी, गहन अबूझ/सब को सहती हैं तू आवाक्‘‘ आज मानव ने इस सम्पूर्ण पृथ्वी को मुश्किल में डाल दिया है जिसें ‘हमारे मन में होते रहते विचार भी प्रदूषित/हम डरते हैं विपदाओं से/तलाशते हैं सुगम मार्ग/जमती रहती कालौंच नई नई‘‘ औद्योगीकरण के बढ्रावे ने हमारी पृथ्वी को विनाश की प्रक्रिया की तरफ धकेल दिया है, कहा जा सकता है कि विकास विनाश में बदल गया है। जैसे जैसे मानव ने विकास किया वैसे वैसे ही इस पृथ्वी का दोहन उसने शुरू कर दिया और वह इस स्तर पर हुआ कि आज ओजोन परत जिसे पृथ्वी का रक्षा कवच माना जाता है, उसमें छिद्र होना, पराबैगनी किरणों का पृथ्वी तक पहॅुंचना, विभिन्न रोगों की उत्पत्ति, कुपोषण, गरीब की लाचारी जैसी समस्याएॅं हमारे सामने दम्भपूर्वक खड़ी हैं कवि अपनी कविता में कहता है कि ‘‘कामधेनु, अमृत और विष भी/अतुल सम्पदा छिपी है खनिजों की/क्यों हों अधिकारी उनके कुछ ही लोग/बढ़ता जा रहा प्रदूषण सागर का जैसे पृथ्वी को खॅूंदते हैं नृशंस खुर/सागर को करते हैं विषाक्त/नगरीय औद्योगिक अपशिष्ट द्रव्य/मल और मलवा ले जाती नदियॉं/क्यों नहीं/रुक पाता प्रदूषण समुद्र का/नदियों का, जीवन का/क्यों रोती है धरती मॉं‘ कवि के अनुसार ‘‘शहरों के जहरीले धुॅंऐ से त्रस्त होकर चैन की दशा भी दारूण है/यहॉं भी अॅंधेरे के आघातों नेरु सुबह को लहूहुहान कर दिया है/हर ओर सन्नाटा है, मौत का सन्नाटा/खेत खाली हैं/चौपालें गॅूंगी हैं।‘‘ घर खण्डहर हो रहे हैं और अप्रत्याशित विभीषिकाओं से लोग त्रस्त हैं, भयभीत हैं। शहरी हवाओं के शोष्ण चक्र ने गॉं से उनकी आदिम गंध छीन ली है। भूखे, नंगे और गरीब किसानों-मजदूरों की हालत और भी बदतर है। हर कहीं हरियाली सूख गई है और सारे सपने ध्वस्त हो चुके हैं। कवि जानता है कि शहरों को बिगाड़ने और गॉं वों को उनके मूल स्वरूप से अलगाने में जहॉं धार्मिक दुर्व्यवस्थाएॅं जिम्मेदार हैं, वहीं आज की विकृति राजनीति की भूमिका भी कम नहीं है।कुल मिलाकर इस कविता में तरह-तरह की विडंबनाओं, समस्याओं और धारणाओं के दर्शन होते हैं जो एक पाठक को अवाक् कर देते हैं, इन कविताओं से गुजरते हुए पाठक वर्ग तथाकथित समाज को परत-दर-परत उघड़ते हुए अनुभव करता है।
कवि के इस कविता संग्रह में अन्य कविताएॅं हैं ‘ठिठुरती रात और पूस का पहला पहर। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि अपने इस सम्पूर्ण काव्य संग्रह के माध्यम से वह उस कविता को पाना चाहता है जो हमारे सपनों में हमारी आकांक्षाओं में कहीं छुपी रहती है। यह सपने निरे सपने नहीं हैं यह सपने हमारे जीवन दृश्यों से बने हैं, जीवन की उथल पुथल और संघर्षों से बने हैं। इन जीवन दृश्यों में हमारी विराट प्रकृति भी, घर-परिवार, आस-पड़ोस भी और गॉंव, गली, सड़क और मोहल्ले भी, मानवीय चिंता भी, इन सबके अलावा प्रकृति में विभिन्न बदलाव, मानवीय सभ्यता एवं संस्कृति का और जीवन मूल्यों का हनन, पृथ्वी को विनाश के गर्त में समाते जाना और प्रकृति का पल-पल परिवर्तित रूप, दिल्ली जैसे महानगरों में अक्सर होते स्त्री के चीर-हरण आदि सभी बिम्बित हैं, जो कवि की कविता का प्रमुख विषय भी हो सकता है।
यह संग्रह सहृदय पाठकों के मन अपनी तीव्र, कोमल व रोमानी अनुभूतियों का एक बहुत ही निजी किस्म का व उद्भुत इंद्रधनुषी संसार रचना है। इस संग्रह में पिरोई गईं कविताएॅं जीवन की विसंगतियों से भी ऑंखें कभी नहीं चुराती, बल्कि एक मुकम्मल जवाब होकर उनके विरूद्ध तपाक से खड़ी हो जाती है। विजेन्द्र जी की कविताओं में प्रकृति के प्रति, पृथ्वी के प्रति अत्यन्त एवं अथाह रागात्मक वृत्ति विद्यमान है, और उनके इस संकलन में इसी रागात्मकता को जिंदा रखने की छटपटाहट विभिन्न पहलुओं के माध्यम से उपस्थित हुई। ये विभिन्न पहलू व्यक्तिगत जिजीविषा के प्रश्न से लेकर सामाजिक-जातीय अस्मिता एवं मानवी संवेदना और मनुष्य की पशुत्व की बरबस पहचान के प्रश्न तक फैले हुए हैं।

मतलब सिर्फ यह कि सृष्टि का कुछ भी विजेन्द्र के इन काव्य दृश्यों से बाहर नहीं है। इन दृश्यों में दृश्य और द्रष्टा के बीच दूरी समाप्त हो गयी है। यहॉं द्रष्टा दृश्य के भीतर चहलकदमी करता है और दृश्य स्वयं द्रष्टा के भीतर। कवि के सपने का घोंसला इसी तरह के दृश्यों से बना है और उसमें एक चिड़िया रहती है और उस चिड़िया का नाम कविता है।
विजेन्द्र की चिड़िया रूपी कविता में यथर्थ, सपने और फैंटेसी, बिम्ब, प्रतीक, कल्पना एक विधिवत लम्बी कतार बनाते हुए अचानक गड्डमड्ड हो जाते हैंं। इनकी कविताओं में चीजों से लेकर संवेदनाओं तक में आ रहे भोथरेपन के भयावह अहसास से उपजी एक चीख है। यह आज की आक्रामकता और दिनोंदिन बढ़ रही बर्बता के विरूद्ध प्रतिरोध की कविताएॅं हैं। यह हमारे समय और भाषा के बीहड़ में एक घर और एक कविता को तलाशने की कोशिश करती कविताएॅं हैं। कविता की समसामयिकता एवं परिवेश इन कविताओं को नई बुलंदी प्रदान करती है। विजेन्द्र जी के इस कविता संग्रह को पढ़ने के बाद लगता है, कि जैसे ये कविताएॅं एक ऐसे व्यक्ति ने लिखी हैं जो कवि हृदय के साथ एक अच्छा सहृदय, एक अच्छा भूगोलवेत्ता, एक अच्छा समाजशास्त्री, एक अच्छा संस्कृतिविद, एक अच्छा सौंदर्यशास्त्री हो, एक अच्छा चिंतक भी अवश्य होगा। विजेन्द्र जी को पढ़ने के बाद लगा कि कविः साक्षात प्रजापतिः।


                         
 पुस्तक का नाम-मैंने देखा है पृथ्वी को रोते

 लेखक-विजेन्द्र

 प्रकाशक-नयी किताब, दिल्ली

 मूल्य-160 संस्करण-प्रथम, 2014


















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