रविवार, 15 मई 2016

घर का जोगी जोगना, आन गॉंव का सिद्ध. व्यंग्य

घर का जोगी जोगना, आन गॉंव का सिद्ध
(साहब) अरे भाई सोनू मैंने सुना है, अपने गॉंव में राजा साहब ने एक अंतर्राष्ट्रीय वैचारिक संगोष्ठी  आयोजित की है, जिसमें सभी विदेशी विद्वानों को आमंत्रित किया है, तथा उन्होंने हमें जीवन जीने का सही तरीका सिखाया है। हॉं साहब यह बात सही है। यह संगोष्ठी जीवन जीने के सही तरीके पर ही केन्द्रित थी, इसमें विदेशों से विद्वानों को आमंत्रित किया गया था हुजूर। (साहब) अच्छा तो यह बात है। पर मैंने सुना है वे वही विद्वान हैं, जो कुम्भ घूमने आए हुए हैं, और राजा साहब के दिमाग में एक गणित चला कि क्यूॅं न इस अवसर का लाभ उठा लिया जाए और राजनीतिक रोटी सेक ली जाए, इन्हीं आगंतुकों को यहॉं भी बुलाकर लगे हाथ विचार संगोष्ठी के साथ यशोगान भी हो जाए और पीछे से कुछ आर्थिक लाभ भी कमा लिया जाए। एक पंथ दो काज हो जाएॅंगे। (सोनू) पता नहीं साहब हम तो गरीब लोग हैं, हमें दो जून की रोटी से मतलब, वही हमारे जीवन-जीने का तरीका है। हो सकता है कि अमीरों का जीवन जीने का कुछ दूसरा तरीका होता होगा, तभी शायद बड़े विद्वानों को इसमें बुलाया गया होगा। (साहब) अरे बुड़वक सोनू तू भोला है, तेरी समझ में नहीं आ सकता कि यह क्या घपला है। तू सुन, मैं तो तुझसे तेरा व्यू जानने के लिए पूछ रहा था, मैं वहीं उपस्थित था। मैं तुझे सुनाता हॅूं कि क्या सार है इसका। पहले कहा जाता था कि घर का जोगी जोगना आन गॉंव का सिद्ध, यह पंक्तियॉं किसी समय गॉवों में प्रचलित थीं, जिसका तात्पर्य होता था कि अगर कोई व्यक्ति घर का है, चाहे वह कितना ही विद्वान क्यों न हो, वह जोगना ही माना जाएगा, उसकी इतनी कद्र नहीं होगी जितनी किसी बाहरी व्यक्ति की, चाहे वह इतना विद्वान हो या न हो। मुझे तो लगता है कि इन्हीं पंक्तियों को राजा साहब ने इस विचार संगोष्ठी में चारितार्थ कर दिया है। इसमें अनेक विदेशी यात्री आमंत्रित किए गए, या यॅंू कहें विदेशी अधिक, देशी न्यून। उन्हें मंचासीन कर सम्मानित किया गया एवं उनके वक्तव्यों के माध्यम से जीवन जीने के सही तरीके से अवगत कराया गया। इस कुम्भ में लगभग सभी विदेशी विद्वान ही थे, या कहें कि अधिक संख्या में तो कोई आश्चर्य नहीं। पर मुझे इस बात का बड़ा अचम्भा हुआ कि अब हमें हमारी संस्कृति को भी पाश्चात्य विचारकों या घूमंतुओं से जानना पड़ेगा। क्या हमारे देश में विद्वानों की कमी है? क्या हमारे विचारक, हमारे चिंतक, हमारे ग्रंथ जिनकी एक वैभवशाली परम्परा रही है? जिनका लोहा यह सम्पूर्ण विश्व मानता है। ऐसी सांस्कृतिक परम्परा के लोागों को उन लोगों से मार्गदर्शन लेना पड़ेगा जो हमारा ज्ञान हमें ही बॉंट रहे हैं। आज विज्ञान के जो आयाम पाश्चात्य जगत ने हासिल किए हैं, उसमें कहीं न कहीं भारतीय ज्ञान-विज्ञान, और प्राचीन वैदिक परम्परा का अंश है। फिर हमें इस पाश्चात्य वैचारिक संगोष्ठी की आवश्यकता क्यूॅं पड़ी। क्या हम इतने हल्के हो गए हैं, कि हमें जीवन जीने का सही तरीका अब लोगों से सीखना पड़ेगा। जिनको अभिव्यक्ति का ही बोध न हो, जिनको यह पता ही न हो कि हम क्या कह रहे हैं, वे हमारा क्या भला कर सकते हैं। वह पूरी संगोष्ठी उस उन वास्तविक जोगियों की थी जो इस गॉंव के राजा साहब ने सिद्ध मान लिए थे। (सोनू) हॉं साहब अब मैं समझ गया कि आप क्या कहना चाह रहे हैं, आप सही कह रहे हैं, लेकिन यह कौन सी नई बात है। यह तो राजा साहब ने भाषा सम्मेलन में भी किया था। 


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