शुक्रवार, 6 मई 2016

हिन्दुस्तानियत के तीन खण्ड-‘भारतवंषी, भाषा एवं संस्कृति‘, पुस्तक समीक्षा

हिन्दुस्तानियत के तीन खण्ड-‘भारतवंषी, भाषा एवं संस्कृति‘
पुष्पिता अवस्थी पुस्तक ‘भारतवंशी-भाषा एवं संस्कृति‘ की समीक्षा

        संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में एक संस्कृत उक्ति है-संस्क्रियते अनेन इति संस्कृतिः अर्थात जो परिष्कृत करे, परिमार्जित करे, वही संस्कृति है। संस्कृति एक ऐसा पर्यावरण है, जिसमें मनुष्य एक सामाजिक प्राणी बनता है, और प्राकृतिक दशाओं को अपने अनुकूल बनाने की क्षमता प्राप्त करता है। यह क्षमता, और भी समृद्ध तब होती है, जब हम साहित्य का पारायण करते हैं, क्योंकि भारतीय साहित्यकार चाहे कवि हो या कथाकार, समीक्षक हो या किसी भी विधा में लिखता हो, देश की आजादी और देश की संस्कृति के प्रति सदा संवेदनशील रहा है।
     जो साहित्यकार संस्कृति का मूल अर्थ नहीं समझता, उसका साहित्य में हस्तक्षेप लगभग निरर्थक है, लेकिन साहित्यकार के साथ ऐसा होना नगण्य है। साहित्यकार संस्कृति के प्रति चिरकाल से संवेदनशील रहा है, यह संवेदना हमें आज भी साहित्य की विविध विधाओं में स्पष्ट नजर आती है। ऐसी ही संवेदना को अपने अंदर समाहित और व्यक्त करती एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक है -‘भारतवंशी भाषा एवं संस्कृति‘। नीदरलैंड प्रवासी ‘पुष्पिता अवस्थी‘ के लम्बे अनुभव और गहन साधना का परिणाम है, यह पुस्तक। सम्पूर्ण पुस्तक तीन खण्डों और उनके अंदर सत्रह शीर्षकों में विभक्त हिन्दुस्तानियत की भारतीय और वैश्विक स्तर पर पड़ताल करने का सराहनीय प्रयास है।
     इस पुस्तकीय प्रयास में अवस्थी जी ने भारतीय संस्कृति की वृहद वैश्विक समृद्धि, और पहचान को स्पष्ट करने के साथ ही प्रवासी भारतीयों के दिल में धड़कती भारतीय धड़कन की धुन की तरफ ध्यान केन्द्रित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया गया है। इस पुस्तक की भूमिका का शीर्षक ‘बीजक‘ कबीरा की ‘झीनी बीनी चदरिया‘ की याद ताजा करता है, तथा पुस्तक की विषय वस्तु के प्रतिनिधि के रूप में न्याय भी करता है। सम्पूर्ण किताब में भारतीय संस्कृति, और उसके विविध तत्वों जैसे भाषा, धर्म, दर्शन, इतिहास, रागात्मकवृत्ति, इत्यादि के वैश्विक प्रसारण को व्यक्त किया गया है, तथा स्पष्ट किया गया है कि किस प्रकार भारत और भारत के बाहर लोग अपनी हिन्दुस्तानियत को अपने में सहेजे हुए हैं। चाहे हिंदी की बात हो या हिन्दुस्तान की, या प्रवासी भारतीयों की, इनकी सम्पूर्ण जीवन-शैली, देश-काल और परिस्थिति का पल्लवन इसमें किया गया है। इस पुस्तक में भारतवंशियों की सामासिक संस्कृति, हिंन्दुस्तानी संस्कृति की प्रतिष्ठा, हिंदी संस्कृति के वैश्विक समृद्धि, भारतीय जन-मानस के उत्थान में संत साहित्य की उल्लेखनीय भूमिका, नीदरलैंड, कैरेबियाई, सूरीनाम, गयाना, मॉरीशस में बसे भारतीय-वैश्विक मानव की जीवन शक्ति, प्रगतिशील साधनाओं की विमल विभूति, राष्ट्रीय आदर्श की गौरवमयी मर्यादा और स्वतंत्रता की वास्तविक प्रतिष्ठा को प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया गया है। इससे साफ पता चलता है कि विभिन्न वादों के उच्छिष्ठ विचारों के हावी होने के बावज़ूद भी भारतीय संस्कृति उससे आहत नहीं है। आज मार्क्सवाद आ गया, समाजवाद आ गया, 1960 के बाद साहित्य में समकालीनता आ गई, मार्क्सवादी प्रभाव के कारण भारतीय संस्कारों और संस्कृति के जो पूज्य बिन्दुओं पर लगातार प्रहार होने, और नकारे जाने पर भी हिन्दुस्तानियत विश्व में फैल रही है।
यह पुस्तक भारतीय संस्कृति और मूल्यों को संजाये हुए, भारतीय संस्कृति को विश्व संस्कृति का सिरमौर बनाने का भरसक प्रयास करती नजर आती है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि पुष्पिता जी यह पुस्तक एक छायादार सपन वट-वृक्ष की भांति हिंदी जगत् में उदारता और आत्मीयता का प्रतिनिधित्व करती है, तथा यह प्रवास परिस्थितियों को आत्मसात करते हुए, कुटज की तरह दृढ़, और अशोक की तरह मस्त भारतीयों की जीवन शैली का एक ऐतिहासिक दस्तावेज सा प्रतीत होता है। पुष्पिता जी का संस्कृति के प्रति असीम अनुराग, उन्हें प्राचीनों की ओर ले जाता, वहांॅ से लाये गए विद्या और ज्ञान के भण्डार को वे नवीनों के अनुकूल बनाकर बड़ी सजहता से अस कृति में प्रस्तुत करती हैं। हिमालय सा पांडित्य और गंगा सी सहृदयता को अपने में समाहित किए हुए यह पुस्तक अपने सांस्कृतिक नव-विमर्श के माध्यम से भारत ही नहीं सम्पूर्ण वैश्विक स्तर पर प्रसिद्धि पाएगी, ऐसा जान पड़ता है।


पुस्तक-भारतवंशी-भाषा और संस्कृति
रचनाकार-पुष्पिता अवस्थी
प्रकाशक-किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली
संस्करण-2015
मूल्य-तीन सौ नब्बे रुपये।



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