‘अनुभव की बात कबीर कहै‘
समकालीन कवि एकान्त श्रीवास्तव से डॉ0 भूपेन्द्र हरदेनिया का कविता की रचना-प्रक्रिया पर केन्द्रित साक्षात्कार
8 फरवरी 1964 को स्थान छुरा, छत्तीसगढ़ में जन्में एकांत श्रीवास्तव समकालीन हिन्दी कविता के वरदहस्त कवि एवं आलोचक हैं, वे एक ऐसे रचनाकार हैं जिन्होंने अपनी कविता में भारतीय जीवन मूल्यों की बड़ी सहजता के सहेजने का प्रयास किया है। उनकी कविता अत्यंत निजी भूमि पर होकर भी सहृदय के हृदय के धरातल तक आसानी से पहुॅंच जाती है। इसका कारण सिर्फ यही है कि उन्होंने जो कुछ लिखा वह लोक या जगत् को ध्यान में रखकर ही लिखा। आज के व्यक्ति को या यह कहें कि सम्पूर्ण भारतीय मानस को भारतीय संस्कृति से, भारतीय लोक जीवन से, पर्यावरण और प्रकृति से, आधुनिक आपाधापी से अवगत कराना ही उनकी कविता का ध्येय है।
इन्होंने अन्न हैं मेरे शब्द, मिट्टी से कहॅूंगा धन्यवाद, बीज से फूल तक आदि काव्य कृतियॉं तथा कविता का आत्म पक्ष नाम आलोचना ग्रंथ लिखा। इसके अलावा कविता पर वैचारिक गद्य, निबंध, डायरी लेखन उनके प्रिय विषय हैं। इन्हें उत्कृष्ट सृजन कार्य एवं हिन्दी कविता के क्षेत्र में विशेष योगदान के लिए अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है, जिनमें शरद बिल्लौरे पुरस्कार, केदार सम्मान, दुष्यंत कुमार पुरस्कार, ठाकुर प्रसाद सिंह पुरस्कार, नरेन्द्रदेव वर्मा पुरस्कार और हेमंत स्मृति कविता सम्मान प्रमुख हैं। वर्तमान में यह भारतीय भाषा परिषद्, कलकत्ता से प्रकाशित होने वाली हिन्दी साहित्य की प्रसिद्ध शीर्षस्थ पत्रिका वागर्थ के सम्पादक हैं।
भू. ह.: आपके विचार से कला का संबंध कलाकार के जीवन से कितना और किस प्रकार का है ? क्या वही कला महत्ता प्राप्त कर सकती है जिसका सम्बन्ध कलाकार की जीवन-यात्रा से होता है ?
ए0 श्री0: हर कला या कविता प्रथमतः आत्मकथा होती है, इसलिए निष्चित रूप से वही कला या कविता अधिक महत्ता, विश्वसनीयता और प्रमाणिकता प्राप्त कर पाती है, जिसका सम्बन्ध कलाकार के निजी जीवन से होता है। कबीर ने भी कहा है कि ‘अनुभव की बात कबीर कहै‘। अपने अनुभव की जो प्रक्रिया है, जो ऑंच है उसी में तपकर ही कवि अपनी बात कहता है। अतः कवि के जीवन से उसकी रचना का बहुत घनिष्ठ और सीधा सम्बन्ध होता है। कवि का जैसा जीवन होगा, वैसी ही कविता होगी। खूब अगर अभिजात्य और कुलीन का जीवन है तो बहुत ही लोक की या साधारण मनुष्य के जीवन संघर्ष की, गॉंव की या गरीबी और देहाती भारत की कविता वह नहीं लिख सकता। कविता में कवि के जीवन की प्रमाणिकता का होना भी अत्यन्त आवष्यक है। कवि का जीवन ही अगर अप्रमाणिक या कुलीन है, तो कविता में भी वही अभिजात्य आएगा, उसमें वह प्रमाणिकता या विश्वसनीयता नहीं आ पाएगी जो कविता में आनी चाहिए। हमेशा वही कविता या कला आगे बढ़ पाती है, जिसमें रचनाकार का स्वयं का अनुभव समाहित हो और अगर दूसरों का अनुभव भी हो तो अपने अनुभव में एकमेव होकर कविता में अभिव्यक्त होना चाहिए।
भू. ह.: क्या रचनाकार हर समय रचनात्मक रहता है या एक विशेष कलात्मक अनुभव के क्षण के उपरान्त वह सामान्य व्यक्ति जैसा हो जाता है? आपका इस संबंध में अनुभव है?
ए0 श्री0: एक रचनाकार हर समय रचनात्मक तो नहीं रहता है, लेकिन एक विशेष प्रेरक बिन्दु पर जाकर वह रचनात्मक हो जाता है। जब कोई घटना या बात या अनुभव कवि को बाध्य करते हैं या कविता के लिए प्रेरित करते हैं, तभी रचनात्मकता उसके अन्दर पनपती है, बाकी समय वह आम आदमी जैसा ही रहता है। किन्तु फिर भी यह कार्य दो स्तरों पर होता रहता है अर्थात् कवि अवकाष के समय साधारण मनुष्य की तरह काम करता है या सोचता है, लेकिन एक रचनाकार उसके अन्दर हमेशा व्याप्त रहता है। वह सामान्य मनुष्य से कहीं अधिक गहरे स्तर पर अनुभूतियों को ग्रहण करता है और उसे रचना योग्य बनाने के लिए हमेशा उनके चयन मेें लगा रहता है।
वस्तुतः कवि का जो कार्य व्यवहार है, उसकी जो शैली है या जो दृष्टिकोंण है उसमें कहीं न कहीं निसंदेह उसकी रचनाधर्मिता उसको प्रभावित और मार्गदशित करती रहती है, क्यों कि वह कवि की सामान्य सोच नहीं होती। वह उन अनुभूतियों को कलम के स्तर पर, व्यवहार के स्तर पर हर समय जीता है। इसलिए कवि एक सामान्य व्यक्ति होते हुए भी उसकी सोच सृजन के लिए हमेशा सक्रिय रहती है। वैसे देखा जाय तो इस बात में अंर्तविरोध या सीमायें हो सकती हैं कि कवि हमेशा सृजनशील रहता है या नहीं या वह एक साधारण मनुष्य की तरह ही होता है। वैसे कवि एक साधारण मनुष्य की तरह ही होता है या कार्य व्यवहार करता है। एक विशेष सृजन के क्षण में ही अपने भावों की अभिव्यक्ति कविता के रूप में करता है।
भू. ह.: काव्य रचना-प्रक्रिया की परिभाषा क्या होनी चाहिए ?
ए0 श्री0: जिस तरह से कुम्हार के घड़े बनाने की प्रक्रिया होती है, उसी तरह कविता की रचना-प्रक्रिया होती है। कविता के जन्म की जो कथा है, वही काव्य रचना-प्रक्रिया की परिभाषा है। एक कविता कविता कैसे जन्म लेती है? कैसे वो एक रचनाकार के मन में आती है? और कौन सा अनुभव कविता के जन्म का कारण बनता है? उसमें कैसे कल्पना योगदान निभाती है? इनकी गुत्थी को सुलझाना ही रचना-प्रक्रिया की परिभाषा की ओर पहुॅंचना है। मुक्तिबोध ने काव्य रचना-प्रक्रिया के तीन क्षण अनुभव, कल्पना और अभिव्यक्ति। यही तीन क्षण कविता की रचना-प्रक्रिया हैं। कविता के बनने और उसके लिखी जाने तक की जो अवधि है या जो प्रक्रिया है, वही काव्य रचना-प्रक्रिया है।
भू. ह.: सृजन के समय में चित्त की एकाग्रता या समाधि को आप कितना आवश्यक मानते हैं और क्यॅूं?
ए0 श्री0: एकाग्रता प्रत्येक कार्य के लिए आवश्यक है, चाहे वह गाड़ी चलाने की प्रक्रिया हो या किचन में खाना पकाने की, बढ़ई के कुर्सी निर्माण की प्रक्रिया हो या कुम्हार के घट निर्माण की, अध्यापक के अध्यापन का कार्य हो या किसी पुस्तक को पढ़ने का काम। एकाग्रता हर कार्य के लिए अनिवार्य है, वगैर एकाग्रता के किसी कार्य की सफलता संदिग्ध है। कला में भी एकाग्रता का पूर्णतः महत्त्व है, उसके बिना कविता का निर्माण करना असम्भव है। लेकिन कविता कभी-कभी ऐसे समय आती है, जब एकाग्रता असम्भव सी हो जाती है। उस समय मन में एक द्वंद होता है, एक छटपटाहट होती है, क्यों कि उस समय जो जीवन जिया जाता है वह बहुत ही आपाधापी वाला जीवन होता है, और कवि उससे उबरकर सृजन के क्षण में पहुॅंचना चाहता है, और अपने अंतर के द्वंद से निजात पाना चाहता है। कवि पहले एक औसत मनुष्य और नागरिक है, जो सांसारिक औपचारिकताओं से घिरा हुआ है, उसके बाद कवि। इनके बीच में कवि कविता करता है, कल्पना या भावों को अभिव्यक्त करने की काशिश करता है। इस समय सफलता और असफलता दोनों संभावित है। कभी कविता में सफलता प्राप्त होती है, और कभी-कभी कविता की अकाल मृत्यु भी हो जाती है, क्यों कि कभी-कभी उसको तत्काल वह एकाग्रता नहीं मिल पाती जो उस समय आवष्यक है। छत्तीसगढ़ में एक शब्द प्रयुक्त होता है ‘निझॉंव‘। इसका तात्पर्य होता है खाली समय, या फुरसत। कविता इसी फुरसल के क्षण में ही लिखी जा सकती है, बाकी समय एकाग्रता को प्राप्त करना कठिन है और बगैर एकाग्रता के सृजन कार्य मुकम्मल ढंग से निपटाया नहीं जा सकता, और अगर निपटाया जाएगा तो उसमें कहीं न कहीं कमी, या असंतोष रह जाएगा।
भू. ह.: काव्य रचना-प्रक्रिया में प्रतीक, बिम्ब, मिथक और फैंटेसी का कितना और क्या-क्या योगदान है ?
ए0 श्री0: मिथ सभ्यता के आदिम विश्वास हैं, मिथ एक तरह से कल्पना के ही प्राचीन रूप हैं। कल्पना जब रूढ़ हो जाती है, या किसी खास रूप में, जनमानस में स्थाई हो जाती है, तो मिथ बन जाती है। जैसे हमारे धर्म, धार्मिक कथाएॅं हैं और उनके अपने मिथ हैं। मिथ काव्य सृजन मेें बहुत आवश्यक तत्त्व हैं, क्यों कि जन जीवन में जो भी सहज और स्वाभाविक अभिव्यक्ति होती है वह जन जीवन से परे नहीं होती, वह उसके साथ ही अभिव्यक्त हो सकती है। इसी तरह प्रतीक, बिम्ब की बात है। कविता में अगर हम उसके अंगों को ही इस्तेमाल नहीं करेंगे तो वह एक सम्भाषण मंे बदल जाएगी, निबंध मंे बदल जाएगी।
बिम्ब चित्र हैं, दृष्य हैं, इन्हीं से ही कविता की भाषा में कविता में सांकेतिकता और सामासिकता आती है और कवि कर्म की रक्षा हो जाती है। इसी तरह से प्रतीक हैं, प्रतिमानों में फूलों के प्रतीक हैं, यॉ काटों के प्रतीक हैं। इनके प्रयोग में कवि की अपनी मौलिकता होती है कि इनका प्रयोग वह किस ढंग से करेगा। प्रत्येक रचनाकार को काव्य के अवयवों की दृष्टि से देखा जाए तो प्रत्येक रचनाकार की अपनी विशेषता होती है। चाहे वह शमशेर, निराला, पंत और मुक्तिबोध कोई भी हो। कविता में इन तत्त्वों के अलावा लयात्मकता, छंदात्मकता आवश्यक है। वैसे कविता के घटक तत्त्व भाव और भाषिक दोनों ही रूपों में आवश्यक है। इनके बिना कविता एक वक्तव्य में बदल जाती है, लेकिन इनकी मौलिकता की रक्षा की जानी चाहिए।
भू. ह.: आपकी काव्य रचना-प्रक्रिया क्या है ? और उसे आप कितने स्तरों में बाँटते हैं?
ए0 श्री0: मुक्तिबोध ने जो काव्य रचना-प्रक्रिया के तीन क्षण बताए हैं, अनुभव, कल्पना और अभिव्यक्ति। वही मेरी कविता के सृजन के क्षण भी हैं। वैसे यह तो सभी कलाकारों की मनःस्थिति है, मुक्तिबोध ने काव्य रचना-प्रक्रिया का सामान्यीकरण किया है। उन्होंने अपने अनुभव के रूप में सबका अनुभव की बयान किया है। पहले हम देखते हैं, अर्थात अनुभव करते हैं और उसी अनुभव के आधार पर कोई चीज हमारे भीतर या अंतःकरण में आती है, फिर उसमें कल्पना का रंग मिलता है या कवि कल्पना की उड़ान उड़ता है। उसके बाद वह कागज पर आती है, तो वह बिल्कुल वही नहीं रह जाती जैसा अनुभव हुआ था। वह चीज कुछ बदल जाती है, वह बात कुछ बदल जाती है। मतलब यही है कि सभी कवि या कलाकारों की रचना-प्रक्रिया लगभग समान ही होती है।
वैसे देखा जाए तो रचना-प्रक्रिया एक ऐसा शब्द है जिसे लोग कई वर्षों से परिभाषित करते आए हैं, बड़े-बड़े कवि, आलोचक, लेखक इसकी पहेली को सुलझाने का प्रयत्न करते आए हैं, लेकिन उसको बूझ पाना और समझ पाना हमेशा एक अबूझ पहेली की तरह ही रहा है। जैसे आप किसी से पूछें कि आपने यह कैसे कर दिया और वह खुद अवाक रह जाता है, वह काम करके कि पता नहीं यह मैंने कैसे कर दिया। हम किसी शादी समारोह में गाड़ी चलाते हुए बहुत दूर जाते हैं और गंतव्य पर पहॅुंच जाते हैं, तो स्वयं हम स्वयं हतप्रभ रह जाते हैं कि पता नहीं यह मैंने कैसे कर दिया कि वगैर किसी से टकराए मैं कैसे यहॉं तक पहॅंच गया।
कवि चेतना दो रूपों में काम करती है, चेतन और अचेतन। बस कोई चीज होती है और वो हो जाती है। अचेतन में कोई काम चलता रहता है, लेकिन उसमें चेतना भी सक्रिय रहती है। रचना-प्रक्रिया वैेसे सूक्ष्म और स्थूल दो रूपों में काम करती है, लेकिन उस प्रक्रिया को पकड़ पाना उतना ही मुश्किल है, जितना जीवन और मरण की गुत्थी को सुलझा पाना। काव्य रचना-प्रक्रिया एक बीज के बीजा रोपड़ से लेकर उसके एक फूल बनने तक की प्रक्रिया की तरह ही है। एक बीज बोया जाता है, उसे नमी और आवश्यक पानी प्राप्त होगा तो वह अंकुरित होगा, तत्पष्चात वह बड़ा होगा, उसमें फूल खिलते हैं जो एक फल का रूप धारण करता है। उसी प्रकार सृजन-प्रक्रिया है, लेकिन उसको पूर्ण रूप से समझ पाना मेरे लिए भी मुश्किल है।
भू. ह.: काव्य की रचना में प्रेरणा का क्या योगदान है ?
ए0 श्री0: प्रेरणा की सृजन-प्रक्रिया में अति महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। उसके वगैर सृजन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। अचानक हमारे सामने कोई घटना घटित होती है, अचानक कोई दृश्य प्रतिबिम्बित होता है, अचानक कोई अनुभव घटित होता है। कोई दुःख या कोई सुख या अचानक कोई ऐसी त्रासद दुर्घटना सामने आती है, जो मनुष्य समाज और जनजीवन को हिलाकर रख देती है, कवि भी उससे अछूता नहीं रहता। वह उससे आहत होता है, प्रभावित होता है या प्रेरित होता है और वह अनुभव निर्वैयक्तिक रूप से कविता में सृजित होता है, वह अनुभव कवि का अनुभव ही न रहकर सबका अनुभव हो जाता है। इससे ही सहृदय का साधारणीकरण हो जाता है। अतः कला या कल्पना में प्रेरणा की महती भूमिका है।
भू. ह. : काव्य-सृजन में कल्पना का कितना योगदान होता है ?
ए0 श्री0: कल्पना काव्य रचना-प्रक्रिया में अत्यंत आवश्यक घटक तत्त्व है। वगैर कल्पना के कविता उड़ान भर ही नहीं सकती। अनुभव को अगर कल्पना के पंख नहीं लगेंगे तो उसका जनहित में लोक विस्तार नहीं हो पाएगा, फिर वह बहुत ही निज भूमि पर वह विचरती रह जाएगी। निज भूमि के सामाजिक विस्तार के लिए कल्पना आवश्यक है। कल्पना ही अनुभव को वैयक्तिकता की परिधि से ऊपर उठाती है, और उसे निर्वैयक्तिक व सामाजिक बनाती है। कल्पना कविता को न केवल सामाजिक बनाती है, बल्कि वह उसकी काव्यात्मकता की रक्षा भी करती है।
भू. ह.: सृजन के क्षणों में आपके मन की क्या गति होती है ? आप कैसी मनःस्थिति में कविता लिखते हैं ?
ए0 श्री0: सृजन के क्षण में आमतौर पर मेरे दिल में एक गुबार सा भरा रहता है। यह बहुत सकारात्मक ढंग तो नहीं है, इसे एक मनःस्थिति कह सकते हैं, जो एक उदात्त भूमि पर अवस्थित होती है, उस समय जो सांसारिक क्रिया कलाप या दुनियादारी की जो व्यवस्था है, वह सभी तुच्छ मालूम होती है। उस वक्त लगता है कि उस समय जो सबसे जरूरी काम है, उसके बिना उस पल के बिना को बिताना कठिन है, वह सिर्फ लिखना है। सृजन के क्षण में एक ‘फोर्स‘ के साथ और एक आवेग के साथ कविता आती है, और उस समय मनः स्थिति यह होती है कि कुछ है तो बस कागज है, कलम है और वह अनुभव है, जिसे हम कागज पर दर्ज कर रहे हैं, चाहे उसकी परिणति किसी भी रूप में हो क्योंकि वह पल सोचने का तो होता ही नहीं है, वह तो बाद में उसका मूल्य निर्धारण होता है, पाठकों या आलोचकों द्वारा या स्वयं कवि द्वारा सर्वप्रथम। उस समय मनःस्थिति बहुत ही उदात्त और लोक भूमि पर होती है। कविता के सृजन के समय जो आवेगों का झंझावात या तूफान रहता है, उसके गुजर जाने पर या कविता के निर्मित होने वर कवि का निष्पाप और निर्मल अन्तःकरण एक राहत का अनुभव करता है तथा अपने को हल्का महसूस करता है।
भू. ह.: कविता लिखना क्या एक आवेगपूर्ण प्रक्रिया है ?
ए0 श्री0: हॉं बिल्कुल, आवेग ही है वह, एक तीव्र आवेग। भावों की तीव्रता को ही हम आवेग कहते हैं, इस दृष्टि से काव्य रचना-प्रक्रिया निश्चित ही एक आवेग पूर्ण प्रक्रिया है।
भू. ह.: काव्य हेतु - प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास में आप काव्य-रचना-प्रक्रिया में किसे अधिक महत्त्व देंगे और क्यों ?
ए0 श्री0: प्रतिभा कवि में सर्वप्रथम अनिवार्यता है, क्योंकि व्युत्पत्ति और अभ्यास तो कवि में तब काम करेंगे, जब उसमें प्रतिभा होगी। काव्य सृजन-प्रक्रिया में सबसे पहले हमें प्रतिभा को ही महत्त्व देना पडे़गा। अगर प्रतिभा ही नहीं है तो केवल ज्ञान और अभ्यास से आप कला में बहुत दूर तक नहीं चल सकते। कुल मिलाकर व्युत्पत्ति और अभ्यास केवल सहायक हैं, मूल चीज केवल प्रतिभा है। कई बार जबरदस्त प्रतिभा हो तो शास्त्र ज्ञान के वगैर लोक ज्ञान के सहारे ही अद्भुत और अनोखी कविता का सृजन हो जाता है।
भू. ह.: कविता के सृजन के दौरान आपकी भाषा किस प्रकार के रचनात्मक तनाव से गुजरती है ?
ए0 श्री0: कविता का भाषिक रूप उसका देहिक पक्ष है, उस पर अलग से विचार नहीं किया जा सकता। जैसी काव्य वस्तु है, वैसी ही भाषा या रूप विधान या भाषिक विन्यास आपको प्राप्त हो जाएगा। जैसे एक फूर रेत में खिला है, तो दूसरा काली मिट्टी मेें, तो दोनों ही फूलों की रंगत और खुशबू में अंतर होगा। अगर हम रेगिस्तान के पेड़ पौधों को देखें तो उनकी पत्तियों में हमें पानी का अभाव अवश्य नजर आएगा। इसी प्रकार पानीदार जगहों और रेगिस्तान के पेड़ पौधों में अंतर अवश्य नजर आ जाता है। इसी प्रकार भाषिक विन्यास तो काव्य वस्तु के साथ ही तय हो जाता है, यह अलग से कोई प्रक्रिया नहीं है। हम काव्य सृजन के समय चेतन नहीं रहते। हमारी चेतना उसको अपने ढंग से, अपने रूप में परिवर्तित कर लेती है, अपने अनुसार ढाल लेती है। जैसी विषय-वस्तु है वैसी ही भाषा लिपट कर उसके साथ कविता में आ जाती है। उसके लिए अलग से सायास कोई प्रयास नहीं करना पड़ता है, और इस तरह से कला या कविता में आप चीजों को अलग-अलग करके नहीं देख सकते।
भू. ह.: काव्य रचना-प्रक्रिया में कवि-व्यक्तित्व का कितना महत्त्व है ?
ए0 श्री0: सबसे पहले कविता या कला आत्मकथा ही होती है, इसीलिए कवि व्यक्तित्व रचना में झलकता ही है। हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य रचनाकारों की कविता को देखें तो उसमें उनके व्यक्तित्व की झलक हमें स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है। उदाहरण के लिए निराला का पौरूशपूर्ण व्यक्तित्व राम की शक्तिपूजा में, प्रसाद का व्यक्तित्व कामायनी में, महादेवी का विरह उनकी कविता मेें और पंत का व्यक्तित्व उनकी कविता में हमें मौम की तरह पिघलता हुआ दिखाई देता है। कवि व्यक्तित्व के हिसाब से ही कविता में भाव आते हैं। कवि व्यक्तित्व अगर कोमल है तो उसकी कविताओं में भी हमें वही कोमलता और मुलायमता नजर आऐगी।
व्यक्तित्व से तात्पर्य केवल बाहरी दैहिक आवरण से नहीं है, उसका सीधा सम्बन्ध आंतरिक कोमलता है। बाहर से कोई भी व्यक्ति कठोर दिखाई दे सकता है, लेकिन जरूरी नहीं कि उसका आंतरिक व्यक्तित्व भी वैसा ही हो। कवि की जीवन शैली और रचना शैली में पार्थक्य होता। क्यों कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हम मूल्यों की बात तो करते हैं, तो हम यही कह सकते हैं कि उनका पूर्ण रूप से व्यक्तिशः पालन नहीं किया जा सकता।
आधुनिक जीवन में कभी-कभी यह हो जाता है कि आपने अपनी रचना में जा बात कही है, उसके ठीक विरूद्ध आपका आचरण आपके जीवन में हो जाए। उसका एक कारण यह भी है जीवन मूल्य वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हास्यास्पद हो रहे हैं, जैसे आप दहेज के खिलाफ हैं तो आप वगैर दहेज के षादी कर सकेंगे लेकिन अगर आपकी बहन की षादी होना है तो अगर पूर्ण मूल्य बोध का वर आपको नहीं मिलता तो आपकी बहन की शादी की समस्या खड़ी हो जाएगी और अंत में आपको दहेज देना ही पड़ेगा। इस तरह से हमारे मूल्यों की हत्या हो जाती है।
अतः आधुनातन परिप्रेक्ष्य में अगर जीवन मूल्य और रचना मूल्यों में पार्थक्य दिखाई देता है तो उसका कारण एक विवशता भी हो सकती है, लेकिन यह पार्थक्य स्वयं रचनाकार द्वारा जानबूझकर पैदा किया है तो उसकी भर्त्सना की जानी चाहिए। पर कहते हैं न कि ‘‘काजर की कोठरी में कैसो ही सयानो जाय, काजर को दाग भाई लागे ही लागे। उसी प्रकार कभी-कभी हमारी जीवन शैली और रचना शैली में विराधाभास हो ही जाता है। सृजन में कवि रचना मूल्यों को पूरी तरह जी ही नहीं सकता, फिर तो अपने व्यवहारिक जीवन में निष्क्रिय हो जाएगा। उसको जीवन की व्यावहारिकता को, उसकी सचाई को, इस गर्दाे गुबार के बीच अपनाना ही पड़ेगा, नही ंतो उसका इस दुनियादरी में जीना ही असम्भव हो जाएगा।
रचना मूल्यों का पूर्ण जामा पहनकर आप इस समाज में तो क्या अपने घर में ही नहीं रह सकते। ये अंतर्विरोध तो सामान्य बात है। लेकिन फिर भी व्यक्ति को या कवि को अपने जीवन में उन रचना मूल्यों को जीवन का भरसक प्रयास करना चाहिए। मूल्य कभी भी हास्यास्पद नहीं होते। गॉंधी जी जीवन मूल्य आज भी जीवित हैं। लेकिन फिर भी जीवन शैली और रचना शैली का एक होना असम्भव है।
रचना शैली पर एक स्वप्न होता है, एक समाज को किसी मंचीय स्तर पर प्रतिष्ठित करने का स्वप्न, वह चाहे ‘यूटोपिया‘ ही हो। हम उसको क्रियान्वित करने का स्वप्न देखते हैं, अगर यह सपना कुछ हद तक भी सच होता है, तो कवि कर्म की सार्थकता तो होती ही है, साथ ही मनुष्य जीवन की भी सार्थकता होती है।
भू. ह.: पद्य और गद्य की रचना-प्रक्रिया में आप क्या अंतर करना चाहेंगे ?
ए0 श्री0: पद्य और गद्य की रचना प्रक्रिया में जमीन आसमान का अंतर है। गद्य को आप तैयारी के साथ लिख सकते है, अर्थात् केवल व्युत्पत्ति और अभ्यास के बल पर, लेकिन कविता तो नैसर्गिक प्रतिभा के बल पर ही लिखी जा सकती है, कवि गद्य के उदात्त रूप का सृजन कर सकता है, लेकिन गद्य लेखक के लिए गद्य लेखन की उदात्त भूमि का सृजन करना बड़ा ही मुश्किल है।
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