गांधी चिंतन प्रासंगिक क्यॅंू?
-डॉ0 भूपेन्द्र हरदेनिया
विचारकों का ऐसा मानना है कि गांधी जी ने जिस विचारधारा का प्रवर्तन किया और जिस दर्शन का प्रतिपादन किया, उसे वर्तमान युग में गांधीवाद नाम से अभिहित किया जाता है, लेकिन हमारा ऐसा मानना है कि गांधी एक स्वतंत्र विचारक थे, उनकी विचारधारा एक स्वतंत्र दार्शनिक विचारधारा थी, अतः उनकी विचारधारा को भी अगर किसी वाद में रखकर आबद्ध न किया जाए तो ही गांधी चिंतन के लिए बेहतर होगा। गांधी जी ने एक जगह स्वयं भी लिखा है कि ‘‘गांधीवाद नाम की कोई चीज नहीं है और नही अपने पीछे मैं कोई ऐसा सम्प्रदाय छोड़ जाना चाहता हॅूं............मेरा दर्शन जिसे आपने गांधीवाद का नाम दिया है, सत्य और अहिंसा में निहित है। आप इसे गांधीवाद के नाम से न पुकारें, क्योंकि इसमें कोई वाद तो है नहीं।‘‘(गांधी और गांधीवाद, पृष्ठ 26) महात्मा गांघी ने अपनी विचारधारा से भारतीय समाज को एक स्वतंत्र चिंतन दिया, वैसे देखा जाए तो गंाधीजी का सम्पूर्ण जीवन भी किसी दर्शन से कम नहीं। अगर गांधीवाद को बिना पढ़े भी अगर कोई व्यक्ति गांधी के जीवन को देख लेता है, जीवन से सीख लेता है, तो वह व्यक्ति भी गांधी दर्शन और उनकी विचारधारा से प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा।
महात्मा गंाधी एक ऐसे नवचेतना वादी विचारक थे, जिन्होंने अपने चिंतन के माध्यम से न केवल इस देश में अपने आप को स्थापित किया अपितु सम्पूर्ण विश्व को अपनी विचारधारा का लोहा मनवाया। वे एक मूर्तिमान युग पुरूष, गंभीर दार्शनिक, सक्रिय राजनीतिज्ञ, और सजग समाजशास्त्री थे। उनके चिंतन में मनुष्य जीवन का शायद ही कोई पक्ष छूटा होगा, जिस पर उन्होंने अपनी लेखनी न चलायी हो। महात्मा गांधी ने अपनी विचारधारा के माध्यम से मानवमात्र के कल्याण का सराहनीय प्रयास किया है। उनके सिद्धांत और उनकी विचारधारा का केवल एक ही ध्येय रहा है कि मानव जाति अपने परम उद्देश्य को प्राप्त कर चिर आनन्दित हो। भारत में राष्ट्रीय क्रंाति के दौरान महात्मा गांधी और उनकी विचारधारा एक बड़ी शक्ति के रूप में भारतीय जनमानस के समक्ष उपस्थित हुई। ‘‘गांधीवाद वस्तुतः भारत की उस आधारपरक आध्यात्मिक जीवन दृष्टि तथा सांस्कृतिक परम्परा का आधुनिक परिस्थितियों के अनुकूल परिवर्द्धित एवं संशोधित संस्करण है, जो शताब्दियों से सत्य, अहिंसा, सेवा, प्रेम, त्याग, सहिष्णुता आदि नैतिक मूल्यों को भौतिक जीवन की अपेक्षा काम्य और वरेण्य मानती आई है।‘‘(गांधी और गांधीवाद, पृष्ठ 28)
जब हम गांधी जी की बात करते हैं तो सबसे पहले हमारा सामना ‘सत्य‘ से होता है। गांधी जी का ‘सत्य‘ किसी धर्म, सम्प्रदाय या मतवाद से प्रभावित नहीं है, न ही उनका पर्याय है। गांधी की ‘सत्य‘ की अवधारणा केवल एक विचारधारा नहीं अपितु जीवन को सही ढंग से जीने का सूत्र है। एक सिद्धान्त है जिसके द्वारा व्यक्ति अपना जीवन पाक-साफ तरीके से जी सकता है। ‘सत्य‘ को गांधीजी ने मानव जीवन की आधारशिला माना है। उनके अनुसार ‘सत्य‘ की सदैव विजय होती है, जीवन में अनेक बार आभास होता है कि असत्य की विजय हुई किन्तु असत्य कभी विजय नहीं होता। किसी ने कहा भी है कि ‘सत्य परेशान हो सकता है, पराजित नहीं।‘ यही सत्य गांधीवाद की नींव है। गांधी जी का कथन है कि ‘‘परमेश्वर सत्य है यह कहने की अपेक्षा ‘सत्य‘ ही परमेश्वर है कहना अधिक योग्य है।‘‘(गांधी साहित्य, पृष्ठ 110)
गांधी जी का मानना है कि सत्य एक साधना है, जिसे निरन्तर अभ्यास और प्रयास से ही साधा जा सकता है। सत्य की प्राप्ति का मार्ग तलवार की धार के समान इतना पैना है कि उस पर चलने वाला सत्यवान व्यक्ति जरा सा चूकते ही अपने प्राणों से भी हाथ धो सकता है। वैसे सत्य को अहिंसा से जोड़ा जाता है, वे एक दूसरे में अन्तर्निहित हैं, गांधी जी ने सत्य को साध्य माना है और अहिंसा को साधन।
गांधीजी एक आध्यात्मिक किस्म के समन्वयवादी विचारक थे। उन्होंने अपने जीवन दर्शन में सिद्धांतों को व्यावहारिक रूप दिया। गांधी जी ने गीता से प्रभावित होकर अपने चिंतन का मूलाधार, सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह को बताया। गांधी जी का जीवन दर्शन ‘वेदांत‘ पर आधारित था, जिस प्रकार वेदांत में ‘तत्त्वमसि‘ कहकर ‘सर्व खलं इद्म ब्रह्म‘ं की अवधारणा को प्रतिपादित किया है, उसी प्रकार गांधी जी भी इस संसार के प्रत्येक चराचर प्राणी में ईश्वर का निवास मानते हैं, या इस संसार के समस्त प्राणियों को ईश्वर का अंश मानते हैं। गांधी जी ने अपने विचारों की आधारशिला, धर्म और नैतिकता के आधार पर रखी। उनका मानना है कि वगैर नैतिकता के मनुष्य के संुदर जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। महात्मा गांधी गीता से अत्यंत प्रभावित थे, उन्होंने एक जगह कहा है कि ‘‘गीता की शिक्षा में व्यवहार में लाने वाले को अपने आप सत्य और अहिंसा का पालन करना पड़ता है। फलासक्ति के बिना न तो मनुष्य को असत्य बोलने का लालच होता है, न हिंसा करने का।‘‘(गांधी साहित्य, पृष्ठ 110)
भारतीय चिंतन परम्परा में अहिंसा को प्रमुख स्थान प्राप्त है। हिंदू शास्त्रों की अगर बात की जाए तो उनकी दृष्टि से ‘‘अहिंसा‘‘ का अर्थ है मन, वचन और कम से इस संसार के समस्त प्राणियों के साथ द्रोह का अभाव। ‘‘अहिंसा सर्वथा सर्वदा सर्वभूतानामनभिद्राह‘‘(व्यासभाष्य, योगसूत्र, 2/30) अहिंसा के भीतर इस प्रकार सर्वकाल में केवल कर्म या वचन से ही सब जीवों के साथ द्रोह न करने की बात समाविष्ट नहीं होती, प्रत्युत मन के द्वारा भी द्रोह के अभाव का संबंध रहता है। वैसे अहिंसा का सामान्य अर्थ है ‘हिंसा न करना। इसका व्यापक अर्थ है-किसी भी प्राणी को तन, मन, कर्म, वचन से कोई नुकसान न पहॅुंचाना,। मन में किसी का अहित न सोचना, किसी को कटुवाणी आदि के द्वारा भी नुकसान न देना तथा कर्म से भी किसी भी अवस्था में, किसी भी प्राणी से हिंसा न करना, यह अहिंसा है। हिन्दू धर्म में अहिंसा का बहुत महत्त्व है, और इसी अहिंसा के महत्त्व को समझकर महात्मा गांधी ने ‘अहिंसा परमो धर्मः‘ का मूल मत्र अपनाया और भारत की आजादी के लिये जो आन्दोलन चलाया वह काफी सीमा तक अहिंसात्मक था। गांधीजी स्वप्नद्रष्टा नहीं थे। वे स्वयं को एक व्यावहारिक आदर्शवादी मानते थे। उनका मानना था कि अहिंसा का धर्म केवल ऋषियों और संतों के लिए नहीं है। यह सामान्य लोगों के लिए भी है। अहिंसा उसी प्रकार से मानवों का नियम है जिस प्रकार से जिस प्रकार से हिंसा पशुओं का नियम हैै। पशु की आत्मा सुप्तावस्था में होती है और वह केवल शारीरिक शक्ति के नियम को ही जानता है। गांधीजी का मानना था कि मानव की गरिमा एक उच्चतर नियम आत्मा के बल का नियम के पालन की अपेक्षा करती है। गांधी जी के अनुसार ‘‘जिन ऋषियों ने हिंसा के बीच अहिंसा की खोज की, वे न्यूटन से अधिक प्रतिभाशाली थे। वे स्वयं वेलिंगटन से भी बड़े योद्धा थे। शस्त्रों के प्रयोग का ज्ञान होने पर भी उन्होंने उसकी व्यर्थता को पहचाना और श्रांत संसार को बताया कि उसकी मुक्ति हिंसा में नहीं अपितु अहिंसा में है।‘‘(यंग, 11-8-1920, पृ. 3)
गांधी के दर्शन और उनकी विचारधारा का केन्द्र बिन्दु अहिंसा ही था, और उसकी के चारों तरफ उनके चहुॅंमुखी विचारधारा घूमती रहती है। जब गांधीजी एक आदर्श राज्य, आदर्श ग्राम और स्वराज्य की बात करते हैं तो भी वह अहिंसा का जिक्र किए बगैर नहीं रहते। क्यों कि उनका मानना था कि अहिंसा पर आधारित स्वराज्य में कोई किसी का दुश्मन नहीं होता। अहिंसा आधारित स्वराज्य में ‘सर्वजन हिताय और सर्वजन सुखाय‘ को ही वहॉं का आधारा माना गया है। ‘‘सारी जनता की भलाई का सामान्य उद्देश्य सिद्ध करने में हर एक अपना अभीष्ट योग देता है। सब लिख-पढ़ सकते हैं और उनका ज्ञान दिन-प्रतिदिन बढ़ता रहता है। बीमारी और रोग कम-से-कम हो जाएॅं, ऐसा व्यवस्था की जाती है। कोई कंगाल नहीं होता और मजदूरी करना चाहने वाले को काम अवश्य मिल जाता है। ऐसी शासन-व्यवस्था में जुआ, शराबखोरी और दुराचार का या वर्ग-विद्वेष का कोई स्थान नहीं होता। अमीर लोग अपने धन का उपयोग बुद्धिपूर्वक उपयोगी कार्यों में करेंगे, अपनी शान-शौकत बढ़ाने में या शारीरिक सुखों की वृद्धि में उसका अपव्यय नहीं करेंगे। उसमें ऐसा नहीं हो सकता, होना नहीं चाहिए कि चंद अमीर तो रत्न-जटित महलों में रहें और लाखों-करोड़ों ऐसी मनहूस झोंपड़ियों में, जिनमें हवा और प्रकाश का भी प्रवेश न हो।‘‘(ग्राम स्वराज्य, पृष्ठ 37) गांधी के अहिंसावादी आदर्श समाज में न कोई गरीब होगा, न भिखारी, न कोई ऊॅंचा होगा, न नीचा, न कोई करोड़पति मालिक होगा, न आधा भूखा नौकर, न शराब होगी, न कोई दूसरी नशीली चीज। सब अपने आप खुशी से और गर्व से अपनी रोटी कमाने के लिए मेहनत करेंगे। वहॉं स्त्रियों की भी वही इज्जत होगी जो पुरुषों की, और स्त्रियों तथा पुरुषों के शील एवं पवित्रता की रखा की जाएगी। अपनी पत्नी के सिवा हर एक स्त्री को उसकी उम्र के अनुसार हर धर्म के पुरुष मांॅ, बहन और बेटी समझेंगे। वहॉं अस्पृश्यता नहीं होगी और सब धर्माें के प्रति समान आदर रखा जाएगा।
गांधी जी अहिंसा के माध्यम से एक आदर्श समाज और एक आदर्श स्वराज्य की स्थापना करना चाहते थे। वे एक ऐसे स्वराज्य की कल्पना करते हुए नजर आते हैं जो सम्पूर्ण भारत वर्ष के अंतर्गत लोक-सम्मति के अनुसार चलने वाला है। उनका मानना है कि ‘‘लोक-सम्मति का निश्चय देश के बालिग लोगों की बड़ी-से-बड़ी तादाद के मत के द्वारा हो, फिर वे चाहे स्त्रियॉं हों या पुरुष, इसी देश के हों या इस देश में आकर बस गए हों। ये लोग ऐसे हों, जिन्होंने अपने शारीरिक श्रम के द्वारा राज्य की कुछ सेवा की और जिन्होंने मतदाताओं की सूची में अपना नाम लिखवा लिया हो।.....सच्चा स्वराज्य थोड़े लोगों के द्वारा सत्ता प्राप्त कर लेने से नहीं, बल्कि जब सत्ता का दुरूपयोग होता हो, तब सब लोगों के द्वारा उसका प्रतिकार करने की क्षमता प्राप्त करके हासिल किया जा सकता है।‘‘(ग्राम स्वराज्य, पृष्ठ 25)
महात्मा गांधी एक आदर्श समाज, और एक ऐसे राज्य की स्थापना करना चाहते थे, जिसमें नागरिक अपने कर्तव्यों से विमुख न हों और वे अपने पुरूषार्थ से अपना जीवन यापन अपनी क्षमताओं के साथ करें, साथ उस राज्य के सामान्य नागरिक या सत्ताधारी सभी अपने-अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन सुचारू रूप से करें, सत्ताधारी शक्तियों का दुरूपयोग न करें।
गांधीजी की सम्पूर्ण जीवन चरित्र आंचलिकता को अपने में समेटे हुए था, या यह कहें कि गांधीजी का सम्पूर्ण जीवन भारतीय गांवों का एक आदर्श गांवों के रूप स्थापित करना था। क्यॅंकि वे जानते थे कि हमारा भारत एक ग्राम प्रधान देश है एवं इस देश के ग्राम उसकी जड़ है और अगर जड़ मजबूत होगी तो, भवन भी मजबूत होगा। उनका मानना था कि अगर भारत देश को सुखी और समृद्ध बनाना है तो इस देश के गांवों और गांव के लोगांे को सुखी और निरोगी बनाना होगा। आज जो स्वच्छ भारत की कल्पना की जा ही है, वह भी कहीं न कहीं गांधी जी की विचारधारा से प्रेरित ही है। क्यों कि गांधी जी का मानना था कि स्वच्छ भारत के लिए स्वच्छ गांव होना अत्यंत आवश्यक है, गांव वासियों को साफ-सफाई के तरीके भान होना चाहिए तभी सभी लोग निरोगी और स्वस्थ रह पाएॅंगे। इसके अलावा गांधी जी का मानना था कि गांव हर दृष्टि से इस प्रकार सम्पूर्ण हों कि उन्हें अपने जीवन की सारी बुनियादी वस्तुओं की उपलब्धता गांवों में ही हो जाए। उन्ही के शब्दों में ‘‘आदर्श भारतीय गॉंव इस तरह बसाया और बनाया जाना चाहिए, जिससे वह संपूर्णतया निरोग रह सके। उसके झोंपड़ों और मकानों में काफी प्रकाश और वायु आ जा सके। ये ऐसी चीजों के बने हों जो पॉंच मील की सीमा के अंदर उपलब्ध हो सकती हैं। हर मकान के आस-पास या आगे-पीछे इतना बड़ा ऑंगन हो, जिससे गृहस्थ अपने लिए साग-भाजी लगा सकें और अपने पशुओं को रख सकें। गॉंवों की गलियों और रास्तों पर जहॉं तक हो सके, धूल न हो। अपनी जरूरत के अनुसार गॉंव में कुएॅ हों, जिनसे गॉंव के सब आदमी पानी भर सकें। सबके लिए प्रार्थना-घर या मंदिर हों, सार्वजनिक सभा वगैरह के लिए एक अलग स्थान हो, गॉंव की अपनी गोचर भूमि हो, सहकारी ढंग से एक गोशाला हो, ऐसी प्राथमिक और माध्यमिक शालाएॅं हों, जिनमें औद्योगिक शिक्षा सर्वप्रधान वस्तु हो और गांव के अपने मामलों का निपटारा करने के लिए एक ग्राम-पंचायत भी हो। अपनी जरूरतों के लिए अनाज, साग-भाजी, फल, खादी वगैरह खुद गॉंव में ही पैदा हों। एक आदर्श ग्राम की मेरी अपनी यह कल्पना है।‘‘(ग्राम स्वराज्य, पृष्ठ 49)
गांधी जी के आदर्श गांव का व्यक्ति देहात में देहाती जड़ नहीं होगा-शुद्ध चैतन्य होगा। वह गंदगी में, अॅंधेरे कमरे में जानवर की जिंदगी बसर नहीं करेगा। बल्कि उस ग्राम में मर्द और औरत दोनों आजादी में रहेंगें, सारे जगत के साथ मुकाबला करने को तैयार रहेंगे। वहॉं न हैजा होगा, न प्लेग होगा, न चेचक होगी। कोई आलस्य में रह नहीं सकता है। सबको शारीरिक मेहनत से अपने जीवन को बेहतर बनाना होगा। प्रत्येक गांववासी को इस बात की जानकारी होनी चाहिए कि पोषण युक्त भोजन से ही स्वस्थ शरीर का निर्माण हो सकता है, और स्वस्थ शरीर से ही स्वस्थ मानसिकता के साथ सही ढंग से शारीरिक श्रम किया जा सकता है। एक निरोगी काया के लिए भी स्वच्छ और पोषण युक्त भोजन अत्यंत आवश्यक है। गांधीजी कहते थे कि ‘‘हमें एक आदर्श ग्रामवासी बनना है, ऐसे ग्रामवासी नहीं जिन्हें सफाई की या तो कोई समझ ही नहीं और है तो बहुत विचित्र प्रकार की, और जो इस बात का कोई विचार ही नहीं करते कि वे क्या खाते हैं और कैसे पचाते हैं। उनमें से ज्यादातर लोग किसी भी तरह खाना पका लेते हैं, किसी भी तरह खा लेते हैं और किसी भी तरह रह-बस लेते हैं। वैसा हमें नहीं करना है। हमें चाहिए कि हम उन्हें आदर्श आहार बतालाएॅं। आहार के चुनाव में हमें अपनी रूचियों और अरूचियों का विचार नहीं करना चाहिए बल्कि खाद्य पदार्थों के पोषक तत्त्वों पर भी नजर रखनी चाहिए।‘‘(ग्राम स्वराज्य, पृष्ठ 44)
अमूमन यह देखा जाता है कि गांव में और निचली बस्तियों मंे लोग साफ सफाई पर ध्यान नहीं देते, वे कभी इस जिज्ञासित नहीं हुए के वे क्या खा रहे हैं, क्या पी रहे हैं, या वे जो खा रहे हैं क्या वह स्वास्थ्य की दृष्टि से अनुकूल है। गांधी जी की मानना है कि इस देश के प्रत्येक नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि अपने आसपास के लोगांे, ग्रामवासियों को स्वच्छता का महत्त्व समझाएॅं। ‘‘हमें सोचना कि जिस पोखर में वे नहाते हैं और अपने कपड़े तथा बरतन धोते हैं और जिसमें उनके पशु लोटते और पानी पीते हैं, उसी में से यदि हमें भी उनकी तरह पीने का पानी लेना पड़े तो हमें कैसा लगेगा। तभी हम उस जनता का ठीक प्रतिनिधित्व कर सकेंगे और तब वह हमारे कहने पर जरूर ध्यान देगी।‘‘(ग्राम स्वराज्य, पृष्ठ 44-45) और तभी ये देश सत्यं, शिवं और सुन्दरम् की कल्पना को साकार रूप दे पाऐगा। जिसमें प्रत्येक नागरिक स्वस्थ और निरोगी रहे। गांधी जी का मानना है कि इस सम्पूर्ण उद्देश्य की पूर्ति शारीरिक श्रम के माध्यम से ही सम्भव होगी। उनका मानना था कि ‘‘हर स्त्री-पुरुष जिंदा रहने के लिए शरीर-श्रम करे। इसका मतलब यह है कि हर स्वस्थ आदमी को अपनी रोटी के लिए शरीर-श्रम करना चाहिए। मनुष्य को अपनी बुद्धि की शक्ति का उपयोग आजीविका या उससे भी ज्यादा प्राप्त करने के लिए नहीं बल्कि सेवा के लिए, परोपकार के लिए करना चाहिए। इस नियम का पालन सारी दुनिया करने लगे तो सहज ही सब लाग बराबर हो जाएॅं, कोई भूखों न मरे और जगत बहुत से पापों से बच जाए।‘‘(ग्राम स्वराज्य, पृष्ठ 52-53)
गांधी जी की विचारधारा को लेकर निष्कर्षतः हम कह सकते है गांधीजी के विचार प्रासंगिक थे और हमेशा रहेंगे। क्यों कि गांधी एक ऐसे विचारक थे जो यह मानते थे कि हम जो भी काम करें, उसमें मुख्य विचार मानव के कल्याण का ही होना चाहिए। उनके विचारों का मुख्य ध्येय है लोगों को सुखी बनाना और इसके साथ उनकी बौद्धिक, नैतिक और अध्यात्मिक उन्नति भी करना। गांधी जी का मानना था कि यह ध्येय विकेन्द्रकरण से सध सकता है। केंद्रीकरण की पद्धति अहिंसक समाज-रचना से भिन्न है।
गांधीजी की राय में भारत की, न सिर्फ भारत की बल्कि सारी दुनिया की अर्थ-रचना ऐसी होनी चाहिए, जिसमें किसी को भी अन्न और वस्त्र के अभाव की तकलीफ न सहनी पड़े। दूसरे शब्दों में, हर एक को इतना काम अवश्य मिल जाना चाहिए कि वह अपने खाने पहनने की जरूरतें पूरी कर सके। और यह आदर्श निरपवाद रूप से तभी कार्यान्वित किया जा सकता है जब जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं के उत्पादन के साधन जनता के नियंत्रण में रहें। वे हर एक को बिना किसी बाधा के उसी तरह उपलब्ध हों जिस तरह भगवान की दी हुई हवा और पानी हमें उपलब्ध हैं। किसी भी हालत में वे दूसरों के शोषण के लिए चलाए जाने वाले व्यापार का वहन न बनें। किसी भी देश, राष्ट्र या समुदाय का उन पर एकाधिकार अन्यायपूर्ण होगा। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में जब हम न केवल अपने इस दुःखी देश में बल्कि दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी जो गरीबी और भुखमरी देखते हैं, उसका कारण महात्मा गांधी के इस सरल सिद्धांत की उपेक्षा ही है।
वर्तमान त्रासदीय युग में इसी प्रकार के दर्शन और विचारधारा की आवश्यकता महसूस की जाती है, वैसे गांधी चिंन्तन की प्रासंगिकता, शाश्वतता, महत्ता, एवं आकर्षकता उनके सत्य-अहिंसा, अपरिग्रह, सत्याग्रह, स्वराज जैसे दार्शनिक चिंतन के कारण आज भी बनी हुई है, और तब तक बनी रहेगी जब तक सम्पूर्ण विश्व गांधीवादी नहीं हो जाता। उन्होंने जो भी चिंतन दिया वह सिर्फ चिंतन और विचारधारा ही नहीं अपितु उसको उन्होंने अपने व्यावहारिक जीवन मंे पहले स्वयं जीया उसके बाद ही उसे खरा माना, कहा जा सकता है कि वह गांधी जी का भोग्यमान यथार्थ है।
आज अगर हम महात्मा गांधी के विचारों को उनके उसी रूप में अपनाते हैं, तो एक सुन्दर, सुखी, और स्वस्थ नागरिकों वाले राष्ट्र या ऐसे राष्ट्र जिसमें सभी समान रूप से सुखी हों की कल्पना को साकार होने में समय नहीं लगेगा। क्यों कि उनकी मूल चेतना में जो विचार विद्यमान थे, उन्हें अगर शाब्दिक रूप दे ंतो वे हैं-सत्य, अहिंसा, सत्याग्रह, अपरिग्रह, समानता, संरक्षकता, स्वालंबन, सहयोग, आदर्श ग्राम, आदर्श राज्य, आदर्श राष्ट्र, नई तालीम, स्वदेशी की भावना, स्वच्छता के प्रति जागरूकता, सर्वधर्म समभाव, पंचायती राज आदि, और मुझे नहीं लगता कि अगर इन विचारों को अपनाने के बाद कोई राष्ट्र या उस राष्ट्र का कोई भी नागरिक सुखी नहीं रह पाएगा। अगर हमें अपने देश के सभी नागरिकों का सुखी बनाना है तो केवल हमें ही नहीं, बल्कि इस देश के प्रत्येक व्यक्ति, एवं सत्तारूढ़ सरकारों तथा पदासीन नेताओं को भी इस ओर अपना ध्यान आकर्षित तो करना ही होगा, साथ ही उनके गांधी जी के विचारों को अंगीकार और आत्मसात कर उन्हें व्यावहारिक जीवन में अनिवार्य रूप से प्रयाग करना होगा, तभी मानव कल्याण और विश्व कल्याण की बात की जा सकती है, सर्वे भवन्तु सुखिनः की अवधारणा को फलीभूत किया जा सकता है।
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