भारतीय कहानी शुद्धतः मानवीय वास्तविकताओं की कहानी है-गंगाप्रसाद
‘विमल”
(सुप्रसिद्ध कहानीकार
गंगाप्रसाद विमल जी से डॉ0 भूपेन्द्र हरदेनिया
की बातचीत)
कहानी अकहानी के कंत! नमन तुमको।
ओ वाणी के नव-संत! नमन तुमको।।
कहानी में युग के दर्द समेट लिए,
पतझड़ में मिले बसंत नमन तुमका।।
ओ वाणी के नव-संत! नमन तुमको।।
कहानी में युग के दर्द समेट लिए,
पतझड़ में मिले बसंत नमन तुमका।।
हिन्दी साहित्य में अकहानी आंदोलन के पुरोधा डॉ0 गंगाप्रसाद विमल एक विख्यात कवि, कथाकार, उपन्यासकार,
अनुवादक के रूप में दुनियाभर में ख्याति प्राप्त
हैं। डॉ0 गंगाप्रसाद विमल का जन्म
भारत के एक ऐसे रमणीक स्थल पर हुआ, जो कि हिमालय की सुरम्य
वादियों में बसा हुआ था। इनका जन्म उत्तरकाशी, उत्तराखण्ड में सन 1939 को हुआ, इसीलिए इनके व्यक्ति
में हिमालय की सादगी, विस्तार, निर्मलता, पावनता और विशालता को धारण करने का जज्बा एवं निर्झर झरने सा
निरंतर बहते रहने की दिली तमन्ना, इनकी विशिष्टता का
प्रतीक बन चुका है। डॉ0 विमल एक ऐसे सृजनात्मक
व्यक्तित्व है जिनकी रचनाओं और उनके स्वयं के विचारों तथा शैली पर बात किए बगैर उनके
व्यक्तित्व और सृजन कर्म को सुंदरता से उजागर करना निरर्थक है। आइए उनसे बात करते हैं,
कहानी के सम्बन्ध में-
भू0 ह0 आपने कहानी लिखना
कब से शुरू किया?
गं0प्र0 वि0: हमारे समाजों में कहानी सुनने की आदत ने कहानी के प्रति गहरी आसक्ति पैदा करने
का काम किया है, और एक बार आपको सुनने
में रस आने लगे तो आपके भीतर के कहानीकार को मौका मिल जाता है कि वो आपसे नये किस्म
की कहानी कहलवा ले। शायद यही पड़ाव है, जहॉं से हमारे भीतर सृजनेच्छा जागने लगती है। यह तो याद नहीं कि पहली कहानी कब
लिखी होगी, पर भीतर ही भीतर जो कहानी
बनने लगी थी, वह अपने आस-पास की
सच्चाई को केन्द्रित करके लिखी थी। यह कहानी कहॉं छपी थी यह भी याद नहीं, पर 1960 के शुरू में ही प्रकाशित हुई थी। पहली कहानी एक ऐसे चरित्र की गाथा है,
जो हाथ-पॉंव से लुंज-पुंज था। बहुत हद तक यह बचपन
का एक प्रभाव था, जिसने मुझे लंबे अर्से
तक सोचने के लिए विवश किया।
भू0 ह0ः आप अपने बाल्यकाल के अनुभवों के बारे में, अपने कहानीकार के मन पर पड़े शुरूआती प्रभावों और निर्णायक प्रसंगों के बारे में कुछ बतायें ?
गं0प्र0 वि0: बाल्यकाल की स्मृतियॉं बहुत धुंधली हैं। दूसरों द्वारा अपने बचपन की घटनाओं के विवरण तो मैंने सुने हैं, पर वे विश्वसनीय नहीं लगते। किशोरावस्था की यादों में कुछेक घटनाएॅ तो याद हैं पर वे भी अधूरी यादें कही जायेंगी। अतीत से रिश्ते की एक कड़ी मेरी बड़ी बहन थी जो मेरी मां की विकल्प थीं, क्योंकि मैं जब दो बरस का भी नही रहा हॅूंगा तब मां संसार छोड़ चुकी थी। मेरी बड़ी बहन ने मेरे उसी अतीत से कुछ घटनाएॅं बुनकर दी थीं, उनसे मैं देखता हॅूं कि एक छोटे शिशु खासकर मातृविहीन शिशु के जीवन में घटनाएॅं-दुर्घटनाएॅं किस किस्म की होती हैं ? बड़ी बहन एक छतरी की तरह मुझे सुरक्षा देती थी, और दादी या नानी या बुआ के बारे में-और एक शिशु से जुडे़ प्रसंगों के बारे में वह जो कुछ बताती थीं, उस पर यकीन करना मेरे लिए मुश्किल था। यह अचंभे में डालने वाली बात हो सकती है, पर कहानी की रचना में वह अनुभव जो घटनाओं के वर्णन से झरता है, एक उद्गम की तरह है और मैनें उससे बहुत कुछ लिया है। बाल्यकाल सबसे ज्यादा अपनी ओर आकर्षित करने वाला तत्त्व, अबोध मस्तिष्क को प्रभावित करने वाली चीज थी। वे त्रासद घटनाएॅं जो प्राकृतिक भी थीं और मनुष्य निर्मित भी। उनके भीतर से झरता था अनैतिकता, अन्याय के विरूद्ध खड़ा होने वाला विस्मयकारी शौर्य-और वह एक अविस्मरणीय प्रसंग बन कर रह-रहकर उद्वेलित करता रहा। उसकी बदली हुई प्रतिच्छवियॉ अक्सर सृजन का आधार बनी हैं।
गं0प्र0 वि0: बाल्यकाल की स्मृतियॉं बहुत धुंधली हैं। दूसरों द्वारा अपने बचपन की घटनाओं के विवरण तो मैंने सुने हैं, पर वे विश्वसनीय नहीं लगते। किशोरावस्था की यादों में कुछेक घटनाएॅ तो याद हैं पर वे भी अधूरी यादें कही जायेंगी। अतीत से रिश्ते की एक कड़ी मेरी बड़ी बहन थी जो मेरी मां की विकल्प थीं, क्योंकि मैं जब दो बरस का भी नही रहा हॅूंगा तब मां संसार छोड़ चुकी थी। मेरी बड़ी बहन ने मेरे उसी अतीत से कुछ घटनाएॅं बुनकर दी थीं, उनसे मैं देखता हॅूं कि एक छोटे शिशु खासकर मातृविहीन शिशु के जीवन में घटनाएॅं-दुर्घटनाएॅं किस किस्म की होती हैं ? बड़ी बहन एक छतरी की तरह मुझे सुरक्षा देती थी, और दादी या नानी या बुआ के बारे में-और एक शिशु से जुडे़ प्रसंगों के बारे में वह जो कुछ बताती थीं, उस पर यकीन करना मेरे लिए मुश्किल था। यह अचंभे में डालने वाली बात हो सकती है, पर कहानी की रचना में वह अनुभव जो घटनाओं के वर्णन से झरता है, एक उद्गम की तरह है और मैनें उससे बहुत कुछ लिया है। बाल्यकाल सबसे ज्यादा अपनी ओर आकर्षित करने वाला तत्त्व, अबोध मस्तिष्क को प्रभावित करने वाली चीज थी। वे त्रासद घटनाएॅं जो प्राकृतिक भी थीं और मनुष्य निर्मित भी। उनके भीतर से झरता था अनैतिकता, अन्याय के विरूद्ध खड़ा होने वाला विस्मयकारी शौर्य-और वह एक अविस्मरणीय प्रसंग बन कर रह-रहकर उद्वेलित करता रहा। उसकी बदली हुई प्रतिच्छवियॉ अक्सर सृजन का आधार बनी हैं।
भू0 ह0: हिन्दी कहानी भारतीय भाषाओं से अधिक जुड़ी है या
प्रभावों से ?
गं0प्र0 वि0: हिन्दी भाषा भारतीय भाषाओं का ही अविच्छिन्न हिस्सा है। स्पष्ट है हिन्दी कहानी
भारतीय भाषाओं की ही एक अद्भुत सृजन परम्परा का विकास है। उसे यहॉं पश्चिमी भाषा से
प्रभावित कहना उचित नहीं होगा, पर ऐसा अनुचित कार्य
भी बहुतेरे आलोचक कर चुके हैं। बिना तथ्यात्मक आधार प्रस्तुत किए वे अकहानी आदि आन्दोलनों
को विदेशों से आयतित आन्दोलनों के रूप में प्रचारित कर चुके हैं। जबकि भारतीय कहानी
शुद्धतः मानवीय वास्तविकताओं की कहानी है। भारतीय भाषाओं के रूप में उनकी उपस्थिति
हर प्रकार से उन कथाओं के मानवीय होने का प्रमाण देती है। प्रेमचन्द पूर्व हिन्दी कहानियों
को लें तो उनमें भाषिक विकास से लेकर तत्त्व चिंतन के बाह्य रूपाकारों के सभी प्रकारों
में शुद्धतः भारतीयता के तत्त्व मिलते हैं। ठीक वस्तु के आधारों का सहज विश्लेषण करें
तो हमें स्वाभाविक रूप में जो निष्कर्ष मिलते हैं वे सिद्ध करते हैं कि भारतीय प्रभाव
उन तमाम रचनाओं में नैसर्गिक रूप से विद्यमान है, जिन पर दूसरे प्रभाव अपना रंग नहीं चढ़ा पाते, बहस की जा सकती है कि हिन्दी या भारतीय कहानी पश्चिम
का अनुकरण नहीं है।
भू0 ह0: हिन्दी में भारतीय और विदेशी कहानियॉं जिस अनुपात में अनूदित हुई हैं, क्या उसी अनुपात में हिन्दी कहानी भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनूदित हुई हैं? अगर नहीं तो क्यों ?गं0प्र0 वि0: इसके आधिकारिक आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। कुछ अनुमानों के मुताबिक हिन्दी और भारतीय साहित्य का विदेशी भाषाओं में उदारतापूर्वक अनुवाद हुआ है। अकेले तब के सोवियत संघ में रूसी भाषा में भारतीय भाषाओं के साहित्य का व्यापक रूप से अनुवाद हुआ। रेखांकित करने योग्य तथ्य है यह है कि रूसी में भारतीय भाषाओं के ‘क्लासिक्स‘ का तो अनुवाद हुआ ही साथ ही एकदम अत्याधुनिक लेखन का भी बड़े स्तर पर अनुवाद हुआ। इस परम्परा में पूर्वी यूरोप के देश भी पीछे नहीं रहे। उन्होंने भी भारतीय भाषाओं और हिन्दी का अनुवाद कार्य किया और असंख्य कृतियॉं अल्पज्ञात छोटी राष्ट्रीय इकाईयों की भाषा में अंग्रेजी या रूसी आधार से अनुदित होकर प्रकाशित होने लगीं, इस समूचे काल यानि वीसबीं शताब्दी को अनुवाद का स्वर्णयुग कहना अतिश्योक्ति न होगी।भू0 ह0: आपको कभी ऐसा लगा
कि आप अपनी कहानियों में कुछ ऐसा अलग रचना चाहते हैं जो नहीं रचा जा रहा है?
गं0प्र0 वि0:
आपने ठीक पकड़ा मेरे इसी प्रयत्न
ने सारी समस्याएं पैदा की हैं। शायद लेखन की मूल धुरी जल्दी समझ में आ गई। हर लेखक
यदि वह मौलिक लेखक है तो नकल नहीं करेगा, यह तत्त्व तात्त्विक किस्म का है। छुटपन में पढ़ने के प्रति अपनी ललक ने इस सत्य
से परिचित कराया कि कोई दो लेखक एक जैसा नहीं दिखना चाहता। वे दो ही रहना चाहते हैं।
अपनी अलग छवि के लिए वे अपनी अलग शैली विकसित करते हैं। मेरे मन में यह बात जम गई तो
मैं पहला वाक्य ही ऐसा लिखने लगा जो सिर्फ मेरा हो। यह काफी मेहनत का काम था। लिहाजा
अपने ‘थीम‘ से लेकर उनके विस्तार तक की मेरी योजना ऐसे बनने
लगी कि कहीं कोई ऐसी बात जरूर होनी चाहिए जो अन्यत्र न हो। मैं इसी कारण दूसरे के लेखन
से प्रभावित नहीं हॅूं। हिन्दी के बहुतेरे फन्ने खां लेखक मुझे दुधमुंहे बच्चे दिखते
हैं। मैं ऐसे लेखन का समर्थन ही नहीं करता जो बहुत बार कही गई कहानी को दुबारा अपने
शब्दों में थोड़ा हेर-फेर कर लिखते हैं। फिल्मों के एक प्रसिद्ध लेखक तो नकल के लिए
विख्यात हैं ही।
भू0 ह0: वस्तु और शिल्प के साहित्यिक शुद्ध पर आपकी क्या सम्मति है। गं0प्र0 वि0: सामान्य रूप से माना जाता है कि वस्तु और शिल्प अविभाज्य हैं। यह भी मान्यता है कि लेखक की परीक्षा इन्हीं मोर्चों पर होती है। यह भी धारणा प्रचलित है कि प्रतिबद्ध लेखक वस्तु को महत्त्व देता है तथा अप्रतिबद्ध कलाकार, शिल्प के मोर्चे पर मेहनत करता रहता है। परन्तु इतना अवश्य है कि कभी वस्तु, लेखक को तनावग्रस्त रखती है, तो कभी शैल्पिक प्रयोग। किन्तु कुल मिलाकर ये दोनों पक्ष हैं जिन पर आलोचक दनादन बोलते हैं। सारतः एक लेखक होने के नाते मैं कहॅूंगा कि वस्तु के अनुरूप ही शिल्प का सृजन होता है। अलग से इन्हें विश्लेषण के लिए ही देखा जाता है।
भू0 ह0: आप अपनी कहानी ‘मैं भी जाउंगा‘ के बारे में हमें कुछ बताएॅं, इसके लेखन की प्रेरणा आपको कैसे प्राप्त हुई।गं0प्र0 वि0: अपने इस समय में हम एक साथ आदिम तथा उत्तर-आधुनिक परिस्थितियों में रह रहे हैं। यह मनुष्य की बुद्धि का ही कमाल है कि वह विज्ञान के रहस्यों से अभ्यास के क्रम में परिचित होता रहता है। आप पायेंगे कि गरीबी, परनिर्भरता के दबाव ने उसे विवश किया है कि वह हार न माने और अपनी ही बौद्धिक क्षमता से दूसरे अति बौद्धिक हलकों, इलाकों में प्रवेश कर वहॉं जूझे। यह संभव है अतिलोकप्रिय, व्यापक स्तर पर जनोपयोग की सामग्री की वैज्ञानिक कला घोर गोपनीय रखते हुए भी-कल्पनाशीलता से उस गोपनीयता के अभेद्य के अन्तिम निष्कर्षों को भांपना। आप लाख ताले लगाएॅं। मुराद यह कि ताला तो खुलेगा ही आप उसे चाबी से खोलें, बटन से या हथौड़े से या फिर अपनी कल्पना से विकल्प खोज चट से खोल डालें। ‘मैं भी जाउॅंगा‘ में सामान्य से कारीगर की जटिल मंत्रों की मरम्मत करते समय उन चीजों की अहमियत समझ लेते हैं जो गोपनीयता के क्षेत्र में हैं, और फिर अपने अभ्यास से उसके रहस्यों से परिचित हो जाते हैं। यह कथा ऐसे समय में लिखी गई है जब मोबाइल का बहुमुख प्रयोग चलन में आने लगा।
कहानी की प्रेरणा तो वे अनाम कारीगर लोग ही हैं, जो बहुतेरे काम तकनीकी रूप में उच्च शिक्षा में पारंगत न होने पर भी जानते हैं, और सबसे बड़ी बात है कि बौद्धिक मामलों में ओरियन्ट यानी पूरब या अन्य दिशाओं से बहुत आगे हैं।
आगे है चाहे कल्पना में ही क्यों न हो। मैंने इस रूपक का इस्तेमाल अपनी कविताओं, कहानियों में बहुत किया है, परन्तु पश्चिमी रंग में रमे लोगों को मेरा ऐसा कहना एक तरह का अतिक्रमण लगता है।
कहानी की प्रेरणा तो वे अनाम कारीगर लोग ही हैं, जो बहुतेरे काम तकनीकी रूप में उच्च शिक्षा में पारंगत न होने पर भी जानते हैं, और सबसे बड़ी बात है कि बौद्धिक मामलों में ओरियन्ट यानी पूरब या अन्य दिशाओं से बहुत आगे हैं।
आगे है चाहे कल्पना में ही क्यों न हो। मैंने इस रूपक का इस्तेमाल अपनी कविताओं, कहानियों में बहुत किया है, परन्तु पश्चिमी रंग में रमे लोगों को मेरा ऐसा कहना एक तरह का अतिक्रमण लगता है।
भू0 ह0: कहानी पर विचारधारा के दबाव को आप किस तरह लेते
हैं। हिन्दी कहानी में विगत दशकों में चलाए गये आंदोलनों पर आपकी क्या राय है?
इसके हानि-लाभ।
गं0प्र0 वि0: मुझे तो खुद भी कटघरे में खड़ा किया गया है, और तमाम विवेचकों, आलोचकों ने यह आरोप लगाये हैं कि मैं कहानी आन्दोलन ‘अकहानी‘ का कसूरवार हॅूं।
चलो मैं यह आत्मस्वीकृति झेलता हॅूं कि मैंने अपने एक आत्मिक लेख में ‘अकहानी बनाम कहानी‘ अकहानी की चर्चा की थी। ‘चर्चा‘ का कसूरवार साबित
था किन्तु विवेचक वकीलों ने, उठाईगीर साबित करने
के लिए वकीलों जैसे झूठ का सहारा लिया। वे आलोचक जो विश्वविद्यालयों मंे पढ़ाये जाते
हैं, फर्माते हैं कि अकहानी आन्दोलन
विदेशों से आयतित है। दर्जनों पुस्तकों में यह दर्ज है। आखिर आप विदेशों की चर्चा कर
रहे हैं तो देश का नाम भी बताते, परन्तु हमारे अनपढ़
आलोचक फतवे देने के लिए प्रख्यात हैं। एक ने फतवा जारी किया तो दूसरे ने उस पर मुहर
लगा दी।
ऐसी आलोचना की कृतियॉं कूड़ेदानों की शोभा बढ़ा सकती
हैं। पर क्या आप समूचे हिन्दी कथा आलोचना के प्रमुख ग्रंथों में जहॉं-जहॉं विदेशों
में जन्मा आन्दोलन कहा गया है, उन्हें नष्ट कर सकेंगे।
सच यह है कि विदेशों में कहीं भी अकहानी आन्दोलन नहीं था।
भू0 ह0: सातवें-आठवें दशक की हिन्दी कहानी किसी-न-किसी आंदोलन
के तहत लिखी जाने के बावजूद भी समकालीन कहानी के नाम से सम्बोधित की जाती हैं। ऐसा
क्यों ?
गं0प्र0 वि0: आन्दोलनों के अधीन लिखी कहानियों की विवेचना केवल इसी कोण से करना उचित नहीं होगा
कि वे किसी विशेष विचारधारा से प्रेरित हैं। देखना यह भी पड़ेगा कि ऐसा क्यों हुआ ?
इसके लिए पहले तो इस बात की पड़ताल करनी पड़ेगी कि
आन्दोलनों का लक्ष्य क्या था ? वे दूसरों द्वारा
लिखी कहानियों से भिन्न क्यों दिखना चाहते थे। स्पष्ट है केवल प्रतिस्पर्धा के कारण ऐसा नहीं
हुआ, अपितु भिन्न-भिन्न प्रकार
की कहानियों के चलते एक सुनिश्चित धारा का निर्धारण थोड़ा कठिन होने लगा। फलतः अपने
को भिन्न दिखाने के लिए भिन्नता के आदर्श प्रस्तुत करना अनिवार्य सा हो गया। एक अन्य
बिन्दु यह है कि कुछेक लोगों ने इसे मित्र-मण्डलीय खेमे में प्रसिद्धि पाने के लिए
भी किया। अतः इसे अन्यानेक उन दृष्टियों से परखना भी आवश्यक हैं जिन्हें अक्सर नज़रअंदाज़
किया जाता है। मेरे जैसे युवा लेखकों (उस वक्त) के युवा लेखकों का गुस्सा ही था जो
आन्दोलन के रूप में फूट पड़ा था, क्योंकि खेमेबाजों
ने बहुत बेशर्मी से तत्कालीन व्यावसायिकता का दबाव बनाने के लिए अपने ही द्वारा गढ़े
आदर्शों को सब कुछ मान लिया था। फलतः जरूरी था कि 60 के बाद उभरने वाली चुनौतियों और विश्व धरातल पर उभरे युवा उन्मेष
को शेष से पृथक दिखाया जाय। यह अलग से दिखाने बताने का खास लक्ष्य था किन्तु खेमेबाजों
ने उसे ‘ऐय्यास प्रेतों के विद्रोह‘
के रूप में प्रचारित करने में कसर नहीं छोड़ी। तथापि
वे सब समकालीन कथाएं थीं।
भू0 ह0: कहानी के विकास और सार्थक फैलाव में मल्टीमीडिया
की भूमिका के बारे में आपके क्या विचार हैं?
गं0प्र0 वि0: नई कथाओं का फैलाव मल्टीमीडिया में देखा जा सकता है। अतः यह कहानी के विधागत स्वरूप
में परिवर्तन की आद्य सूचनायें देने वाली नई शैल्पिक बुनावट है, जो भविष्य की कहानी के लेखन, उसके पठन, अर्थ-संप्रेषण की दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण प्रमाण है। पहले
तो कहानी में जो चीज़ केवल सांकेतिक रहती है वह दृश्यात्मक होगी। ‘‘पेड़ों पर हरेपन का फैलाव था‘‘ तो मीडिया के पास उपलब्ध बनावलियों के दृश्यों में
से सर्वोत्तम को समाने प्रस्तुत करने का काम तत्काल, एक ही स्ट्रोक से हो जायेगा, जितने सेकेण्ड आपने बनाली परिदर्शन किया उतने ही क्षणों में
संवादरत व्यक्तियों को प्रदर्शित किया जायेगा जो सत्यापन के लिए अनिवार्य है।
भू0 ह0: हिन्दी कहानी की वर्तमान स्थिति पर आपकी क्या राय
है?
गं0प्र0 वि0: सृजनात्मक लेखन और ललित लेखन के प्रति रूझान की कमी दिखाई देती है। ऐसा पर्यवेक्षक
और दूसरे वार्ताकार कहते भी हैं। राजनैतिक लेखन, इतिहास, मिथक और जीवन की अन्य
शास्त्रीय घटनाओं के लेखन के प्रति रूझान बढ़ा है। ऐसा देखने में भी आया है। इससे यह
निष्कर्ष तो नहीं निकलता कि सृजनात्मक लेखन अर्थहीन है। संभवतः यह उत्तर आधुनिकता का
संक्रमण है। हम अभी नये माध्यमों का विकास देख रहे हैं, उनमें तकनीकी कारणों से जो सामंजस्य बिठाना पड़ता है,
उसमें भी ललित लेखन की जगह कम है। कहानी सृजनात्मक
ललित लेखन है, और जैसा कि समूचा
वर्तमान हमारे वैज्ञानिक तकनीकी स्पर्धा से प्रभावित है-लेखन भी उससे अछूता नहीं रह
सकता। इसीलिए कहानी की वर्तमान स्थिति अपने समय के दबावों से प्रभावित है फिर भी साहित्यिक
लेखन में कहानी की भागीदारी सबसे ज्यादा है। आज भी मुख्यधारा का उल्लेख करते ही कहानी
का नाम याद आता है जो सचमुच मुख्यधारा है, तो हम पाते हैं कि कहानी एक प्रतिनिधि साहित्यिक गतिविधि है, तथा वह लेखन की दिशाओं को सुनिश्चित करने की भूमिका
निभाती है।
भू0 ह0: मूल्यहीनता की विकरालता और उसके दबाव में लिखी जा
रही कहानी पर आप की क्या राय है।
गं0प्र0 वि0: दबाव बहुत क्रूर है। एक सच्चा लेखक इन्हें झेलता है। मुठभेड़ के उपरान्त पराजित
ही सही फिर लेखन द्वारा शक्ति जुटाकर भिड़ जाता है। यह एक सतत प्रक्रिया है। हिन्दी
कहानी का जादुई सफर जारी है। कहानियॉं इस बदलते परिवेश का आलेखन अपने ढंग से करती हैं,
और सतत पाठकों से संवाद करती हुई ऐसी रणनीति की
रचना करती हैं कि प्रभाव का कोई अंश छूट न जाय। मैं उन नये कथा लेखकों की ओर कृतज्ञता
से देखता हॅूं जो उस कुछ भूल कर वक्त को रूपायित करने में लगे हैं। हिन्दी कहानी की
नई भूमि नये उत्तरों के रूप में सन्नद्ध दीखती है।
भारतीय समाज पर जिस तरह से पश्चिम हावी हो रहा है,
उससे लगता है कि भारतीयता विरल चीज़ रह जायेगी,
अर्थात् क्या सभ्यता के उपकरण संस्कृति का बदल सकते
हैं? ‘टेक्नालॉजी‘ के कारण जीवनशैली में जो परिवर्तन आए हैं,
क्या वे परम्परागत शैलियों को समाप्त कर सकते हैं?
इस प्रश्न का उत्तर नहीं मैं होगा, क्योंकि सांस्कृतिक प्रभाव ज्यादा गहरे,
ज्यादा अर्थवान होते हैं, तथापि विश्वव्यापी बाज़ारवाद ने विश्वग्राम की कल्पना
को भी साकार किया है। इससे उत्पन्न होने वाली जटिलताओं ने स्थानिक या लोक जीवन के अस्तित्व
पर प्रश्नचिह्न लगाए हैं, देखना है कि उन दबावों
को मानवजाति कैसे झेल पायेगी। अभी एकदम इस समस्या का निदान सामने नहीं आ पा रहा है।
भू0 ह0: एक कहानीकार के लिए ‘विजन‘ या ‘जीवनदृष्टि‘ का अर्थ क्या है?
गं0प्र0 वि0: कहानीकार शब्दचेता व्यक्ति है। उसमें और चिन्तक या समाजवेत्ता में अन्तर है। कथा
लिखना ललित लेखन के निकट है-चिन्तक और विश्लेषक के निकट नहीं है। परन्तु लिखने वाले
की दृष्टि एक कहानीकार, कवि, समाज विज्ञानी, समाजशास्त्री तथा जीवन के बारे में सकारात्मक सोच रखने वालों
की स्थूल रूप से एक ही होगी। तथापि एक कहानीकार यदि हम उसमें थोड़ा गल्प, थोड़ा लोकानुभव, थोड़ा भविष्य, थोड़ा अतीतराग, थोड़ा विनोद,
थोड़ा रत्यानुराग, थोड़ा श्रमजीवी, थोड़ा भ्रमजीवी, थोड़ा सत्यधर्मी,
थोड़ा असत्य साधक वाले गुण देखते हों तो वह जो कल्पना
भी करेगा उसमें सत्यांश का स्पर्श ही उस विजन या दृष्टि सम्पन्नता को परिपक्व कर डालेगी
जो आश्चर्य से कम मूल्यवान नहीं होगी। जीवन दृष्टि एक प्रकार की सजगता है जो आद्योपान्त
अपने को प्रखर कर भविष्य का अर्थबोध प्रदान करती है।
यह एक तरह का भविष्य प्रश्न है। मनुष्य के रूप में हर व्यक्ति का अवतरण एक अपेक्षा
रखता है। वह सोचे कि वह क्यों, किसलिए आया है,
तो इस अन्तर्मंथन में उसे अपने लक्ष्य की कार्यविधि
का बोध हो जायेगा। स्पष्ट है वह उसी लक्ष्य प्राप्ति के लिए सक्रिय रहेगा। जीवन दृष्टि
का संबल ही कार्यक्षेत्र की सक्रियता निर्धारित करेगा। इसमें संदेह नहीं कि किसी बड़ी
रचना की तैयारी के लिए वृहदानुभव के साथ-साथ एक बड़े लक्ष्य या सपने की भी जरूरत रहती
है।
भू0 ह0: क्या कहानीकार के
लिए वैचारिक प्रतिबद्धता का होना आप जरूरी मानते हैं। यदि हां तो क्यों? यदि नहीं तो क्यों?
गं0प्र0 वि0: वैचारिक प्रतिबद्धता यदि सिर्फ एक जिद है तो वह
नये प्रकार की गुलामी को जन्म देने वाली है। कहानीकार या सामान्य रूप से सृजेता की
दृष्टि में जिद की जगह जो तत्त्व होगा वह सकारात्मक दृष्टि सम्पन्नता वाले व्यक्ति
में ही होगा। अगर वह एक पूर्व सोचे गये रूपायन को अनुकूलता के अनुरूप ही आगे बढ़ने की
दबावमुक्त कोशिश तो आतंकधर्मी लक्ष्यों से सम्पन्न लोगों में ही होती है, लेखक में नहीं। अतः इस प्रश्न के उत्तर से पूर्व
यह जानना जरूरी है कि इन धाराओं का लक्ष्य निम्न धाराओं का लक्ष्य क्या है-वे अपने
अनुरूप बनाना ही श्रेयस्कर समझते हैं तो उनकी परीक्षा करनी होगी, क्योंकि अनुदार दृष्टियॉं संदेह पैदा करती हैं।
भू0 ह0: लेखन एक सामाजिक दायित्व है। अतः आप बताइए कि लेखक
का क्या कुछ भी निजी नहीं रह पाता?
गं0प्र0 वि0: जब तक रचना लेखक के भीतर है तभी तक वह निजी है।
शब्द का वाक् में बदलने का अर्थ ही सामाजिक हो जाना है। अभिव्यक्ति निजी कही जा सकती
है परन्तु सार्वजनिक होने पर वह निजता के संपत्तिधारक अहंकार से मुक्त हो जाती है।
यह बहस दुनिया भर में चलती है। राजनीतिज्ञों ने
भाषा का जितना अहित किया है उतना हत्यारों, तस्करों और षडयन्त्रकारियों ने न किया होगा। इसलिए मैं व्यक्तिगत
तौर पर और बात के बाहर आ जाने के कारण सार्वजनिक तौर पर कहता हॅूं कि राजनेता नफरत
की वस्तु हैं। उन्होंने अपने कथनों से सामाजिक जीवन में सकारात्मकता को नष्ट किया है।
सृजन या रचना या लेखन बुनियादी तौर पर निसर्ग का ही एक उद्यम है। अतः स्पष्ट है कि
लेखक यदि सचमुच लेखक है तो एक शरीर के रूप में वह व्यक्तिगत है अन्यथा वह सामाजिक है।
इस बात को हम यह कहकर भी समझ सकते हैं ‘जन्म आलोक का प्रसार करता है और आलोक सबके लिए प्रकाशित होता है।‘ विचार, भावना, अनुभावना, सबके सब आलोक के ही सहचर हैं।
भू0 ह0: क्या आज की कविता भी प्रेमचन्दी मनोभूमि को ग्रहण
कर पायी है। आप की कविता इसके कितने करीब है।
गं0प्र0 वि0: मूल प्रश्न यही है। पहले प्रेमचन्दी समय को समझ लें। साहित्य कला की दृष्टि से
नहीं, बल्कि लोकप्रियता की दृष्टि
से देखें। तो प्रेमचन्द ने सरल कथाओं के द्वारा लोकचित्र को प्रभावित किया। वह इस हद
तक प्रभावित करते चले गए कि अक्षर के प्रति श्रद्धा का ज्वार प्रेमचन्द की ओर उमड़ पड़ा।
प्रेमचन्द हमारे समाज के प्रतीक पुरूष बन गये। अगर गहराई से पड़ताल करें तो प्रेमचन्द
कर क्या रहे थे ? प्रेमचन्द ग्राम समाज
के सामाजिक सम्बन्धों की भूल खोजने के बहाने एक आंचलिक इलाके की मानसिकता के तत्त्वों
की खासियत रेखांकित करने लगे और उससे करुणा और दया का भाव बटोरने लगे।
समाज एक जटिल सा विधान है। उसकी जटिलताओं को केवल सम्बन्धों से विश्लेषित नहीं
किया जा सकता। जटिलता के मुख्य बिन्दु को टोहना बहुत जरूरी है। हिंदी में यह काम नहीं
हुआ। यह तो स्वीकार करना पड़ेगा कि प्रेमचन्दकालीन दृष्टि केवल प्रेमचन्दयुगीन सत्य
है। चाहे वह समाज के स्तर पर हो या फिर व्यवस्था के स्तर पर। उसे आप सर्वत्र लागू नहीं
कर सकते न उनके समाजिक सम्बन्धों को, न उनके मूल्य विधान सम्बन्धी निर्णयों को। मौटे तौर पर उन्हें सार्वभौमिक आदर्श
भी नहीं माना जा सकता।
कविता के क्षेत्र में यह स्वीकार करने योग्य है। क्योंकि प्रेमचन्द युगीन सत्य
सार्वकालिक नहीं माने जा सकते।
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