मुक्त छंद पर कुंकुम कविता
पुष्पिता अवस्थी के काव्य संग्रह ‘शब्दों में रहती है वह‘ की समीक्षा
पुष्पिता अवस्थी के काव्य संग्रह ‘शब्दों में रहती है वह‘ की समीक्षा
कहा जाता है कि-‘अपारे काव्य संसारे कविरेव प्रजापतिः।‘ अर्थात् कवि भी प्रजापति की तरह सम्पूर्ण संसार की रचना करता है, बस उसके सरोकार कविता में ही प्रतिफलित होते हैं। फिर भी कवि के वैयक्तिक सरोकारों का सम्बन्ध इस सृष्टि से ही होता है, जिन्हें वह सृष्टि से लेकर सृष्टि को ही कविता के रूप में पुनः प्रेषित कर देता है। यह प्रेषण इतना प्रभावकारी होता है कि इससे सहृदय, आह्लादित हुए बिना नहीं रह पाता। उसका साधारणीकरण इस प्रकार हो जाता है, मानो यह सहृदय के ही भाव हों। इस तरह के साधारणीकरण को प्रतिफलित करने वाला एक कविता संग्रह इन दिनों चर्चा में है, और उस संग्रह का नाम है-‘शब्दों में रहती है वह‘। यह संग्रह नीदरलैंड में निवासरत् भारतीय मूल की सुपरिचित लेखिका पुष्पिता अवस्थी की सिसृक्षा और सृजनधर्मिता का परिणाम है। उन्होंने अपने जीवन की विभिन्न अनुभूतियों को इस कविता संग्रह में इस प्रकार पिरोया है, जैसे एक माली माल्य निर्मिती की प्रक्रिया में उत्तम पुष्पों को गॅूंथता है। उनके इस कविता संग्रह में अन्यानेक छोटी एवं लम्बी कविताएॅं संग्रहीत हैं, और प्रत्येक कविता अपना एक नया एवं विशिष्ट अर्थ प्रस्फुटित करती है। शब्दों की संस्कृति, उपयोगिता, साथ ही शब्दों की चारित्रिक विशेषता, शब्द और अर्थ के सम्बन्ध के साथ-साथ विभिन्न प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी व्यक्तियों, रचनाकारों एवं कलाकारों इत्यादि को तो इसमें कविता के माध्यम से पिरोया गया है ही, साथ ही साथ उसमें भारतीय संस्कृति की अस्मिता, उसकी महत्ता, के अलावा जीवन-मूल्यों की उपयोगिता जो कि पौरस्त्य परम्परा की एक विशिष्ट पहचान है, का भी कविता के माध्यम से अभिव्यक्तिकरण किया गया है। इस संग्रह से तदाकार करने के बाद लगता है कि जैसे उनका यह ग्रंथ, कविता संग्रह न होकर एक भूमण्डलीय ऐतिहासिक ग्रंथ हो, जो हमें भारत ही नहीं बल्कि वैश्विक प्राकृतिक परिवेश की सैर कराता है, एवं विभिन्न संस्कृतियों का साक्षात्कार कराने के साथ ही एक तुलनात्मक नजरीया भी पाठक में उत्पन्न करता है। यह संग्रह, आज के दुरूह दौर की मानवीय सभ्यता के त्रासदीय युग का पाठक से साक्षात्कार है। वर्तमान में जिस प्रकार अराजकता, अमानवीयता और हिंसा के बहसीपन का जो आलम चारों ओर व्याप्त है, उसके प्रति प्रत्येक व्यक्ति का ध्यान आकर्षित होना अत्यन्त लाज़मी है, और इस ध्यानाकर्षण का महनीय प्रयास इस संग्रह में किया गया है-गाहे-बगाहे/बच्चों की हथेलियों में सौंपती रहती है/वे मखमली कोमल खिलौने/जिससे शहरों में बचे रहें-चिड़ियाघर/और बच्चे पहचानते रहें ‘जानवर‘/और जानवरपन/कि मनुष्य से अधिक हिंसक/अभी नहीं हुआ है-जानवर। इसीलिए इस संग्रह की कविता ‘अपील है शोषक और सत्ताखोरांे से, हिंसा और आतंक की तस्वीरों से जिसके कारण ‘पिसती है-आम जनता/पानी की तरह बहता है खून/कूड़े की तरह लगता है-लाशों का ढेर/शिनाख्त के परे हो जाती हैं-मौंते/पहचान से परे चली जाती हैं-लाशें।‘ इस सम्पूर्ण संग्रह में कहीं न कहीं उन विषयों की पड़ताल की गई है, जो मानवीय अस्मिता के अस्तित्व, उसकी पहचान, एवं संरक्षण के लिए अत्यंत आवश्यक है। चाहे वास्तविक प्रेम और दैहिक प्रेम का अंतर हो या प्रकृति या पर्यावरण प्रदूषण का प्रश्न सभी पर विमर्श इस संग्रह में उपलब्ध है। विदूषित राजनीति की वजह से उनकी कविता में ‘पार्लियामेंट प्रश्न/पी हुई सिगरेट का टुकड़ा है/जिसका धुऑं/जी लिया है-संसद के फेफड़ों ने। अवस्थी जी के इस कविता संग्रह के ऊपर अगर सारगर्भित चर्चा की जाए तो सिर्फ इतना कहना ही समीचीन होगा की उनकी कविता पाश्चात्य परिवेश में भारतीय संस्कृति की उपलब्धता है। इसमें पाश्चात्य का भारतीयकरण एवं भारतीय का पाश्चात्यीकरण, अभ्यांतर के बाह्यीकरण के माध्यम से किया गया। इस संग्रह की एक-एक कविता अपना एक नया अर्थ देती है-इसमें अटलांटिक महासागर का अजोर-उजाला द्वीप है, जिसका सौंदर्य देखते ही बनता है, सीशिल नामक ग्रीन हार्ट-ब्राजील और गयानी तटों के जलजीवी वृक्ष है, नवातुर गर्भिणी है जो अपनी अनदेखी खुशी पर आनंदित है, ईशत्व को बचाए रखने की ‘धारणा‘ है, बाजारू भीड़ में बाजारीकरण के कारण आदमी और औरत रूपी ‘सामान‘ है, कैरेबियाई सागर का सौंदर्य प्रतिनिधि सेंट लूशिया द्वीप है, शीर्षस्थ तबला वादक जाकिर हुसैन के तबले का नाद है, उनके राग में बजती लय और लय में लिरजती धुन है। इतिहास की अवधारणा है, जागृत समाधि है, प्रणय ब्रह्मांड है। गर्भस्थ शिशु से लेकर सम्पूर्ण नारी जीवन, और उसके विविध आयामों के साथ-साथ जोंक, नाखून, और ताबूत जैसी चीजों के माध्यम से उसके दैहिक शोषण का यह संग्रह स्पष्टीकरण है, कुल मिलाकर वह सब कुछ है जो एक पाठक को चाहिए। इस संग्रह में विभिन्न कविताओं के माध्यम से विविध प्रतीकों, बिम्बों को कविता में इस प्रकार संजोया गया है कि कविता से साक्षात्कार करने वाले प्रत्येक पाठक के सामाने एक ऐसा बिम्ब उभरता है जो उसके दिल को झंझोड़े बगैर नहीं रह पाता। ऐसा लगता है, जैसे इस संग्रह मंे कोई विषय अछूता ही न रहा हो। इस संग्रह की कविता भूमण्डल की कविता है, भारत की कविता है, भारत के गॉंव और उसकी संस्कृति के साथ सम्पूर्ण विश्व की कविता है। भाषा सधी हुई एवं साधनारत है कहा जा सकता है कि इस संग्रह की प्रत्येक कविता मुक्त छंद पर कुंकुंम हैं।
रचनाकार-पुष्पिता अवस्थी
प्रकाशक-किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली
संस्करण-2014
मूल्य-तीन सौ नब्बे रुपये।
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