शुक्रवार, 23 अक्टूबर 2020

हूंक

🕉🕉🛐
👀चालाकियां 
चारों तरफ,
➖➖➖
विरक्तियां 
सब के मन में,
➖➖➖
मजबूरियां
फॅंसती हैं सबके साथ,
➖➖➖
सुनना
किसी की नहीं है,
➖➖➖
समझदार 
सब ,
❓❓❓
समझना
कोई नहीं चाह रहा,
🤔🤔🤔
जमाना
बदलता जा रहा ,
➿➿➿
संवेदनाएं
मर चुकी हैं,
🎶🎶🎶
करुणा
गुजरे जमाने की बात हुई,
🔯🔯🔯
धन
माई बाप सबका,
💲💲💲
त्यागी
बनना नहीं चाहता कोई,
♦♦♦
त्याग 
सब चाहते हैं  दूसरों से,
🔔🔔🔔
पालिटिक्स
गांव गांव घर-घर
🎭🎭🎭
डॉ. भूपेन्द्र हरदेनिया

आइऐ जाने असली पर्यावरण योद्धा पीपल बाबा कोजिन्होंने लगाए दो करोड़ से अधिक पौधे

पीपल बाबा या स्वामी प्रेम परिवार एक पर्यावरणविद् है जिन्होंने अपनी टीम के साथ भारत के 18 राज्यों में 202 जिलों में 20 मिलियन से अधिक पेड़ लगाए हैं। 

मिलिए दो करोड़ से भी ज्यादा पेड़ लगवाने वाले पीपल बाबा से!

पीपल बाबा का मानना है कि अगर कोई 16 पेड़ काटेगा तो वह 16 हज़ार पेड़ लगा देंगे।

जलती धरती जलता आसमान
दिन दिन झेल रहे प्रदूषण की मार
साथ में आ पड़ी ये आपदा विकराल
अब कौन करेगा इसका समाधान

अगर पीपल बाबा की मानें तो इन सबका सिर्फ एक ही समाधान है और वो हैं पेड़। इस बात को हममें से शायद ही कोई नकारेगा। इसलिए तो पीपल बाबा यानी स्वामी प्रेम परिवर्तन ने पेड़ लगाने को ही अपनी रोज की नौकरी बना ली और जीवन इसी सेवा भाव में न्यौछावर कर दिया। पीपल बाबा ने पिछले करीब 44 साल में 2 करोड़ से ज्यादा पेड़ लगाए हैं और उनका ये सफर इस कोरोना काल में भी जारी है।

उन्होंने उत्तर प्रदेश, दिल्ली-एनसीआर, हरियाणा, महाराष्ट्र, जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और राजस्थान समेत 18 राज्यों के करीब 202 जिले में पेड़ लगवाए हैं और इनका साथ दे रहे हैं देश के करीब 14 हजार वॉलेंटियर। जबकि इनके खुद के ‘एनजीओ गिव मी ट्रीज ट्रस्ट’ में 30 फुल टाइम वर्कर काम करते हैं।

स्वामी प्रेम परिवर्तन उर्फ़ पीपल बाबा

कैसे हुई शुरुआत?

ये साल 1977 की बात है। स्वामी प्रेम परिवर्तन का बचपन का नाम आजाद था और पिता सेना में डॉक्टर थे। चौथी कक्षा में पढ़ने वाले आजाद को उनकी टीचर अक्सर पर्यावरण के महत्व के बारे में बताती थीं। साथ ही सचेत भी करती थीं कि आगे चलकर नदियां सूख जाएंगी। तो 10 साल के आजाद ने 26 जनवरी के दिन अपनी मैडम से पूछ ही लिया कि मैडम हम क्या कर सकते हैं? इसका जवाब मैडम ने ये दिया कि क्लाइमेट चेंज, ग्लोबल वॉर्मिंग, प्रदूषण सबका उपाय पेड़ है। आजाद ने घर आकर ये बात अपनी नानी को बताई। नानी भी पेड़ों के महत्व को अच्छे से जानती थीं। आजाद जब उदास भी होते तो उन्हें पेड़ों के नीचे ही बैठने के लिए कहती थीं। तो उस दिन भी नानी ने कहा कि हाँ तुम पेड़ लगाओ।

प्रेम बताते हैं, ‘‘मैं उसी दिन अपने माली काका की साइकिल पर बैठकर गया, नर्सरी से 9 पौधे खरीदे। वो आज भी आपको रेंज हिल रोड, खिड़की कैंटोनमेंट, पुणे में 9 पेड़ आपको मिल जाएंगे।’’ उस दिन के बाद से उनकी जो यात्रा शुरू हुई है वो आज भी जारी है। पीपल बाबा सिर्फ पेड़ लगाकर छोड़ नहीं देते हैं बल्कि उनका ख्याल भी रखते हैं।

बच्चों के साथ पेड़ लगाते पीपल बाबा

पीपल बाबा ने अपनी पढ़ाई इंग्लिश में पोस्ट ग्रेजुएशन तक की है। इसके बाद उन्होंने अलग-अलग कंपनियों में 13 साल तक इंग्लिश एजुकेशन ऑफिसर के तौर पर काम किया। इसी के साथ ही उनकी पेड़ लगाने की यात्रा चलती रही। इसके बाद उन्होंने इसे फुल टाइम काम बना लिया। हालांकि अपने जीवनयापन और फैमिली के लिए वो ट्यूशन्स देते रहे और आज भी देते हैं। परिवार ने उनका इस काम में पूरा साथ दिया।

साल 2010 में फिल्म स्टार जॉन अब्राहम ने इनके काम को नोटिस किया। उन्होंने ही एक इस काम को बड़े स्केल पर ले जाने और सोशल मीडिया पर आने की सलाह दी। जिसके बाद पीपल बाबा ने 2011 में गिव मी ट्रीज ट्रस्ट की स्थापना की।

कोरोना में भी जारी है पेड़ लगाने का काम?

पेड़ लगाने की तैयारी करते हुए पीपल बाबा के एनजीओ के लोग

पीपल बाबा करीब 44 साल से पेड़ लगा रहे हैं। क्योंकि पिता मिलिट्री में थो देश के हिस्सों में काम करने का मौका मिला। पिछले 20 साल से उन्होंने दिल्ली को अपना बेस कैंप बनाया हुआ है। अपनी संस्था के जरिए देशभर में पेड़ लगवाते हैं। इसी सिलसिले में पौधे लेने के लिए 19 मार्च को वह हरिद्वार पहुंचे थे। वह जहां गए थे वहां कोरोना पोजेटिव केस आने की वजह से इलाके को सील कर दिया गया। वहां रहते हुए भी उन्होंने आसपास के गांवों में 1 हजार 64 पेड़ लगवा दिए। इसके अलावा दिल्ली लौटने के बाद उन्होंने लखनऊ, नोएडा और दिल्ली में पड़े लगवाए। कुल मिलाकर कोरोना काल में भी पीपल बाबा ने अब तक 8064 पेड़ लगवा दिए हैं।

एक-एक पेड़ का हिसाब रखने पर जब उनसे सवाल पूछा गया तो उन्होंने कहा, “हमें अपने कर्मों को ऑडिट करते रहना चाहिए। तभी मैं एक एक पेड़ का हिसाब रखता हूँ। मेरे पास पुरानी फाइल्स भी हैं जिनमें से आप जबका पूछोगे मैं तब बता सकता हूं कि कौन सा पेड़ कब लगाया।”

पीपल बाबा नाम कैसे पड़ा?

पीपल बाबा ने जो 2 करोड़ से ज्यादा जो पेड़ लगाए हैं, उनमें करीब सवा करोड़ पेड़ नीम और पीपल के हैं। उनका कहना है, “हम इंडियन अपनी रूट से जुड़े हैं जिन्हें आम चीजें ज्यादा समझ आती है, लोगों को नीम, पीपल और बरगद के पेड़ ज्यादा समझ आते हैं। वैसे हम जामुन, अमरूद, इमली और जगह के हिसाब से अलग अलग पेड़ लगाते हैं। लेकिन पीपल पवित्र पेड़ माना जाता है। इस पेड़ से कई तरह की धार्मिक भावनाएं जुड़ी होती हैं, कई मान्यताएं और पौराणिक महत्व भी हैं। जिससे वैसे तो कोई इसे लगाता नहीं लेकिन लगा दिया तो इसे कोई काटने नहीं आता।”

पहली बार किसने बुलाया पीपल बाबा?

स्वामी प्रेम परिवर्तन बताते हैं, “मैं राजस्थान के पाली जिला में गया था किसी के साथ। तो किसी ने कहा कि कुएं सूख रहे हैं तो इसका उपाय बताइए। तो हमने बचपन में पंजाब के किसानों से सुना था कि आप बड़ का पेड़ लगाएँ क्योंकि उसकी जड़ें पानी खींचती हैं। वो वहां आसपास के कई जिलों पर हमने पीपल और बड़ के बहुत पेड़ लगाए। तो पाली में एक चौपाल लगी थी और वहां के सरपंच ने मेरा इंट्रोडक्शन पीपल बाबा के नाम से कराया। जिसे सुनकर मैं खुद चौंक गया और उसे बाद हर तरफ मुझे पीपल बाबा ही कहा जाने लगा।”

क्या पेड़ों को बचाने की भी किसी मुहिम में हिस्सा लेते हैं पीपल बाबा?

वॉलंटियर्स के साथ पीपल बाबा

इस पर पीपल बाबा कहा कहना है, “इस जीवन में मेरे पास धरना देने या ऐसी चीजों का समय नहीं है। मैं अगर आधा घंटा भी बैठूंगा तो इनती देर में मेरे 7-8 पेड़ और लग जाएंगे। कितने पेड़ काटेंगे? 16 काटेंगे हम 16 हजार लगा दें। मेरी नानी कहा करती थीं आप पेड़ लगाने वालों की संख्या बढ़ाओ, आप पेड़ काटने वालों की संख्या घटा नहीं सकते।”

पीपल बाबा आम लोगों से भी आग्रह करते हैं कि हम सभी को पेड़ लगाने चाहिए। अगर आप भी पीपल बाबा के वॉलेंटियर बनना चाहते हैं या उनकी किसी तरह से मदद करना चाहते हैं तो उनकी संस्था गिव मी ट्रीज ट्रस्ट से जुड़िए। या उन्हें 88003 26033 पर संपर्क कर सकते हैं।

https://www.google.com/amp/s/hindi.thebetterindia.com/40194/meet-peepal-baba-who-has-planted-more-than-two-crore-trees-ecofriendly-rohit-maurya/

आज हमारे पास डिग्रियां तो बहुत हैं पर नैतिक मूल्य नहीं है

मशहूर फिल्म कलाकार आशुतोष राणा की शिक्षा व्यवस्था पर एक अच्छी पोस्ट-

आज मेरे पूज्य पिताजी का जन्मदिन है सो उनको स्मरण करते हुए एक घटना साझा कर रहा हूँ।

बात सत्तर के दशक की है जब हमारे पूज्य पिताजी ने हमारे बड़े भाई मदनमोहन जो राबर्ट्सन कॉलेज जबलपुर से MSC कर रहे थे की सलाह पर हम ३ भाइयों को बेहतर शिक्षा के लिए गाडरवारा के कस्बाई विद्यालय से उठाकर जबलपुर शहर के क्राइस्टचर्च स्कूल में दाख़िला करा दिया। 
मध्य प्रदेश के महाकौशल अंचल में क्राइस्टचर्च उस समय अंग्रेज़ी माध्यम के विद्यालयों में अपने शीर्ष पर था। 

पूज्य बाबूजी व माँ हम तीनों भाइयों ( नंदकुमार, जयंत, व मैं आशुतोष ) का क्राइस्टचर्च में दाख़िला करा हमें हॉस्टल में छोड़ के अगले रविवार को पुनः मिलने का आश्वासन दे के वापस चले गए।

मुझे नहीं पता था कि जो इतवार आने वाला है, वह मेरे जीवन में सदा के लिए चिह्नित  होने वाला है, 

इतवार का मतलब छुट्टी होता है लेकिन सत्तर के दशक का वह इतवार मेरे जीवन की छुट्टी नहीं "घुट्टी" बन गया। 

इतवार की सुबह से ही मैं आह्लादित था, ये मेरे जीवन के पहले सात दिन थे,  जब मैं बिना माँ- बाबूजी के अपने घर से बाहर रहा था। 
मेरा मन मिश्रित भावों से भरा हुआ था, हृदय के किसी कोने में माँ,बाबूजी को इम्प्रेस करने का भाव बलवती हो रहा था , 
यही वो दिन था जब मुझे प्रेम और प्रभाव के बीच का अंतर समझ आया। 

बच्चे अपने माता पिता से सिर्फ़ प्रेम ही पाना नहीं चाहते वे उन्हें प्रभावित भी करना चाहते हैं। 

दोपहर ३.३० बजे हम हॉस्टल के विज़िटिंग रूम में आ गए•• 

ग्रीन ब्लेजर, वाइट पैंट, वाइट शर्ट, ग्रीन एंड वाइट स्ट्राइब वाली टाई और बाटा के ब्लैक नॉटी बॉय शूज़.. ये हमारी स्कूल यूनीफ़ॉर्म थी। 

हमने विज़िटिंग रूम की खिड़की से, स्कूल के कैम्पस में- मेन गेट से हमारी मिलेट्री ग्रीन कलर की ओपन फ़ोर्ड जीप को अंदर आते हुए देखा, जिसे मेरे बड़े भाई मोहन जिन्हें पूरा घर भाईजी कहता था, ड्राइव कर रहे थे और माँ बाबूजी बैठे हुए थे। 

मैं बेहद उत्साहित था मुझे अपने पर पूर्ण विश्वास था कि आज इन दोनों को इम्प्रेस कर ही लूँगा। 
मैंने पुष्टि करने के लिए जयंत भैया,  जो मुझसे ६ वर्ष बड़े हैं, उनसे पूछा मैं कैसा लग रहा हूँ ? 

वे मुझसे अशर्त प्रेम करते थे, मुझे ले के प्रोटेक्टिव भी थे, बोले, शानदार लग रहे हो !   

नंद भैया ने उनकी बात का अनुमोदन कर मेरे हौसले को और बढ़ा दिया।

जीप रुकी.. 

उलटे पल्ले की गोल्डन ऑरेंज साड़ी में माँ और झक्क सफ़ेद धोती - कुर्ता ,गांधी - टोपी और काली जवाहर - बंडी में बाबूजी उससे उतरे, 

हम दौड़ कर उनसे नहीं मिल सकते थे, ये स्कूल के नियमों के ख़िलाफ़ था, सो मीटिंग हॉल में जैसे सैनिक विश्राम की मुद्रा में अलर्ट खड़ा रहता है , एक लाइन में हम तीनों भाई खड़े-खड़े  माँ बाबूजी का अपने पास पहुँचने का इंतज़ार करने लगे, 

जैसे ही वे क़रीब आए, हम तीनों भाइयों ने सम्मिलित स्वर में अपनी जगह पर खड़े- खड़े  ही Good evening Mummy!
 Good evening Babuji ! कहा। 

मैंने देखा good evening सुनके बाबूजी हल्का सा चौंके फिर तुरंत ही उनके चेहरे पे हल्की स्मित आई,  जिसमें बेहद लाड़ था !

मैं समझ गया कि ये प्रभावित हो चुके हैं ।

 मैं जो माँ से लिपटा ही रहता था,  माँ के क़रीब नहीं जा रहा था ताकि उन्हें पता चले कि मैं इंडिपेंडेंट हो गया हूँ .. 

माँ ने अपनी स्नेहसिक्त - मुस्कान से मुझे छुआ, मैं माँ से लिपटना चाहता था किंतु जगह पर खड़े - खड़े मुस्कुराकर अपने आत्मनिर्भर होने का उन्हें सबूत दिया। 

माँ ने बाबूजी को देखा और मुस्कुरा दीं, मैं समझ गया कि ये प्रभावित हो गईं हैं। 

माँ, बाबूजी, भाईजी और हम तीन भाई हॉल के एक कोने में बैठ बातें करने लगे हमसे पूरे हफ़्ते का विवरण माँगा गया, और 

६.३० बजे के लगभग बाबूजी ने हमसे कहा कि अपना सामान पैक करो, तुम लोगों को गाडरवारा वापस चलना है वहीं आगे की पढ़ाई होगी•• 

हमने अचकचा के माँ की तरफ़ देखा।  माँ बाबूजी के समर्थन में दिखाई दीं। 

हमारे घर में प्रश्न पूछने की आज़ादी थी।  घर के नियम के मुताबिक़ छोटों को पहले अपनी बात रखने का अधिकार था, सो नियमानुसार पहला सवाल मैंने दागा और बाबूजी से गाडरवारा वापस ले जाने का कारण पूछा ? 

उन्होंने कहा,  *रानाजी ! मैं तुम्हें मात्र अच्छा विद्यार्थी नहीं, एक अच्छा व्यक्ति बनाना चाहता हूँ !* 

*तुम लोगों को यहाँ नया सीखने भेजा था पुराना भूलने नहीं !* 

*कोई नया यदि पुराने को भुला दे तो उस नए की शुभता संदेह के दायरे में आ जाती है,*

*हमारे घर में हर छोटा अपने से बड़े परिजन,परिचित,अपरिचित , जो भी उसके सम्पर्क में आता है, उसके चरण स्पर्श कर अपना सम्मान निवेदित करता है !*

   *लेकिन हमने  देखा कि इस नए वातावरण ने मात्र सात दिनों में ही मेरे बच्चों को, परिचित छोड़ो , अपने माता पिता से ही चरण-  स्पर्श की जगह Good evening कहना सिखा दिया। मैं नहीं कहता कि इस अभिवादन में सम्मान नहीं है, किंतु चरण स्पर्श करने में सम्मान होता है,  यह मैं विश्वास से कह सकता हूँ !*

*विद्या व्यक्ति को संवेदनशील बनाने के लिए होती है संवेदनहीन बनाने के लिए नहीं होती !* 

*मैंने देखा , तुम अपनी माँ से लिपटना चाहते थे लेकिन तुम दूर ही खड़े रहे, विद्या दूर खड़े व्यक्ति के पास जाने का हुनर देती है , नाकि अपने से जुड़े हुए से दूर करने का काम करती है !* 

*आज मुझे विद्यालय और स्कूल का अंतर समझ आया, व्यक्ति को जो शिक्षा दे, वह विद्यालय और  जो उसे सिर्फ़ साक्षर बनाए वह स्कूल !*

*मैं नहीं चाहता कि मेरे बच्चे सिर्फ़ साक्षर हो के डिग्रियों के बोझ से दब जाएँ, मैं अपने बच्चों को शिक्षित कर दर्द को समझने, उसके बोझ को हल्का करने की महारत देना चाहता हूँ !* 

*मैंने तुम्हें अंग्रेज़ी भाषा सीखने के लिए भेजा था, आत्मीय भाव भूलने के लिए नहीं!* 
*संवेदनहीन साक्षर होने से कहीं अच्छा, संवेदनशील निरक्षर होना है इसलिए बिस्तर बाँधो और घर चलो !*

 हम तीनों भाई तुरंत माँ बाबूजी के चरणों में गिर गए, उन्होंने हमें उठा कर गले से लगा लिया.. व शुभ -आशीर्वाद दिया कि 

*किसी और के जैसे नहीं स्वयं के जैसे बनो..* 

पूज्य बाबूजी ! जब भी कभी थकता हूँ या हार की कगार पर खड़ा होता हूँ तो आपका यह आशीर्वाद "किसी और के जैसे नहीं स्वयं के जैसे बनो" संजीवनी बन नव ऊर्जा का संचार कर हृदय को उत्साह उल्लास से भर देता है । आपको प्रणाम
Ashutosh Rana
नोट :- *अपनी संस्कृति , सभ्यता और आचरण की सहज सरलता भुलाकर डिग्री भले हासिल हो जाये ,ज्ञान नहीं प्राप्त हुआ , निःसंदेह*। आज हमारे पास डिग्रियां तो बहुत हैं पर नैतिक मूल्य नहीं है पैसे की अंधी दौड़ में हम आगे तो बढ़े चले जा रहे हैं लेकिन हम अपने आसपास के और चारों के माहौल को बिगाड़ते जा रहे हैं, पर्यावरण की चिंता भी हमें नहीं हो रही। संस्कृति के विभिन्न पहलू क्षीण होते जा रहे हैं, आपसी वैमनस्यता बढ़ती जा रही है, घर से बाहर सभी जगह केवल प्रतियोगिता का दौर है क्या यही है हमारी वास्तविक शिक्षा।

महिला किसान

एक अलग ही खाके में रची बसी रहती हैं वे,
अपार पुरुषत्व, वज्र देह,
अपने मजबूत हाथों
और पैरों की फटी विमाइयों के साथ
नाप लेती हैं अपनी पूरी जिंदगी की धरती
घर से खेतों की मेंढ़ों तक
फिर वापस अपने ज़हान में,

सबसे पहले उन्हें ही पता पड़ता है
सुबह का,

रात भी बतियाती है उन्हीं से,

ब्रह्म बेला में चौपायों के गले की घंटी से
शुरू उनकी जिंदगी 
खेत में काम करते हुए
चिलचिलाती झुलसा देने वाली धूप
और बहुत कुछ वज़न के साथ चलती रहती है,

सुकून पाती हैं धान की फुनगियां भी
उसकी देह की छांव में

सब काम निपटाकर
किसानी के लिए अपने हार पर जाना
लौटते हुए सिर पर घास का गट्ठर
हाथ में एक बाल्टी पानी और हंसिया सहित
काटती हैं अपनी ज़िंदगी,

महिला किसान का सफर
घर के सभी सदस्यों के भोजन,  बर्तन तक भी
खत्म नहीं होता, 

सभी को सुलाकर 
वह ठंडी पड़ जाती है रात की तरह
सुबह-सुबह फिर से जो तपना है उसे।
करना है युद्ध हर दिन की तरह।

महिला किसान 
वाकई में होती हैं
तप की देवियां 
वही होती हैं वास्तव में
विधाता की भी विधाता।

© डॉ. भूपेन्द्र हरदेनिया

महाभोज अतिथि विद्वानों पर

उन्होंने दिए धरने 
कुछ सत्ताधारी आये 
वे वादा करके चले गए
और उन्होंने धरना खत्म किया…....

वे भूल गए।

उन्होंने फिर धरने दिए

वे फिर आए, 
अब विपक्ष में थे वे,

सरकार में आने पर 
वादा पूरा करने का आश्वासन 
दिया गया 
फिर से
कहा गया अबकी पक्का।

सत्ता में आते ही
वे फिर भूल गए, प्रवृत्तिगत
अबकी ऐसा भूले
कि पहचानने से ही कर रहे
इंकार,

सत्ता, विपक्ष और फिर सत्ता में आने के अंतराल में
कई धरनाकार मारे गए,
कइयों के बच्चे हुए अनाथ
कई हुईं विधवाएं

 गरीबी, 
अभाव, 
कुछ बीमारी का इलाज
न करा पाने के कारण

पर वादाकारों के कांनों
रेंगी नहीं जूं तक

हमेशा सरकारें, नेता
या वास्तव में वे अभिनेता
धरनाकारों के अरमानों से खेलते रहे हैं,
वे सपने बेचते रहे हैं।

इस प्रकार
अतिथि विद्वानों
जो धरनाकार थे कभी
उनकी लाशों पर
करते रहे हैं वे महाभोज श्वानों की तरह

© डॉ. भूपेन्द्र हरदेनिया

वास्तविक शिक्षा

अगर हम अपने आस-पास के माहौल से हैं अनभिज्ञ
नहीं सोचते अपनी संस्कृति के बारे में।

वे छोटी-छोटी सी चीजें जो धीरे-धीरे
आ रहीं हैं अपने वृहद और विकराल रूप में
बन रहीं हैं मानव जीवन को खतरा
उनसे नहीं हैं हम वाकिफ
या करते रहते हैं नजरअंदाज उन्हें।

हमारे अंदर अगर प्रस्फुटित नहीं होतीं
मानवीय संवेदनाएं
कपट, कुटिलता, चालाकियों और छद्माभेष से
करते रहते हैं, अपने घर से लेकर बाहर तक सबको भग्न।

हम अगर नहीं करते फ़िक्र
अपने आस पड़ोस, गली मोहल्ले, शहर, देश
वहां की आवोहवा की
प्रकृति, पर्यावरण, नदियों, तालाबों और पहाड़ों की।

प्रदूषित होने देते हैं नदियों को।

टूटने देते हैं पहाड़ों को
बदलने देते हैं उन्हें खदानों और गहरे गड्ढों में,
कटने देते हैं हरे भरे पेड़ों को,
नष्ट होने देते हैं
जंगल और निरीह जीव जंतुओं को।

तालाब में छेद कर मरने छोड़ देते हैं उसे
मुर्गे को हलाल कर छोड़ देते हैं जिस तरह
ताकि की जा सके खेती,
बन सके वहां भी मकानात
घेरा जा सके उस जगह को भी कभी

ध्यान नहीं रखते स्वच्छता का
बस करते रहते हैं अधारणीय विकास

बहने देते हैं वगैर टोंटी वाले नलों से बेतहाशा पानी 
कई लीटर जल बर्बाद होने पर हमारी आत्मा 
यदि हमें नहीं कचोटती 
तो वाकई हम 
आदिमानव से भी गये बीते होते हैं।

हो सकते हैं हम धनवान
कई उपाधियां और सम्मान 
भले ही हों हमारे नाम
साक्षर ही होते हैं हम बस तब
वास्तविक शिक्षित नहीं।

© डॉ. भूपेन्द्र हरदेनिया

शनिवार, 5 सितंबर 2020

अच्छी भावनाएं



अच्छी भावनाएं
जो हम रखते हैं
अपनों के प्रति,

सर्वत्र होती भी हैं
अपने बीज रूप में,

अंकुरित होता है प्रेम उसमें
पल्लवित होती हैं
सद्भावनाएं
निश्चलता से,

लेकिन
कई बार लग जाते हैं
उसमें चालाकियों के कीड़े
डाल दिया जाता है
दुर्भावनाओं का कम्पोस्ट,

कुटिलता की
झुलसा देने वाली गर्मी
जला देती है
प्रेम के पौधे को
कपट की सड़ांध
बढ़ने नहीं देती उसे,

अच्छी भावनाओं का पौधा
लगने और सब सहने के बाद भी
फलित नहीं होता फिर
वह घुन लगा
काठ हो जाता है बस।

© भूपेन्द्र हरदेनिया
चित्र गूगल से साभार

शनिवार, 1 अगस्त 2020

माँ

कहने को शब्द मात्र, एक उद्बोधन
उस स्त्री के लिये
जो हमारी जन्मदात्री है|
पर वह अपनी गुरुता में
दुनिया के सभी शब्दों से भारी है|

वह एक ध्वनि है 
नाद के मामले में सबसे अधिक ध्वन्यात्मक,

एक अंतर्ध्वनि है वह
जो गुंजायमान होती है हृदय पटल से लेकर
आत्मा की उन गहराइयों में
जहाँ सदैव ऊँकार रहता है विद्यमान,

परा तक पहुँचकर वह शब्द घुला लेता
अपने में परमात्मा के उस उच्चारण को भी
जिसे हम माँ से विलग कर जपते हैं हमेशा,

एक कठोर ढाल है वह
विपत्ति के समय तूणीरों और तलवारों के समक्ष 
आकर अड़ जाती है उससे जो उसके
अंश के लिए घातक है

माँ वह शब्द जो देयता में सर्वोच्च दानवीर है| 
हम
सब याचक हैं उसके समक्ष,

फिर भी हम भागते हैं कई बार
काल के और माया के वशीभूत होकर 
इस शब्द से,

लेकिन वह करता रहता है
पीछा हमेशा और हम दौड़ते रहते हैं
अपने प्रमाद में,
हम दौड़ते रहते हैं अपने सामर्थ्यानुसार,

पर थककर रुकते ही यह शब्द
आ पकड़ता है फिर हमारी बाँह 
धँस जाता है हृदय की
अंतरतम गहराइयों में फिर से
अपने दुलार, वात्सल्य, प्रेम 
और बचपन की उन खूबसूरत यादों के साथ 
जिनका लौटना संभव नहीं है अब

वे सारे बिम्ब हमारे समक्ष
उभर आते हैं, वैसे ही जैसे
हम जीते थे तब अपने अबोध रूप में
और फिर हम कहते हैं
सिर्फ़ और सिर्फ़
माँ!  हे माँ!

लेकिन 
माँ नहीं होती 
फिर!
(पूर्णत: स्वरचित, अप्रकाशित और मौलिक)

© डॉ. भूपेन्द्र हरदेनिया
सबलगढ़ जिला मुरैना मध्य प्रदेश

*जंगल के स्कूल का रिजल्ट :-*

हुआ यूँ कि जंगल के राजा शेर ने ऐलान कर दिया कि अब आज के बाद कोई अनपढ़ न रहेगा। हर पशु को अपना बच्चा स्कूल भेजना होगा। राजा साहब का स्कूल पढ़ा-लिखाकर सबको Certificate बँटेगा।

सब बच्चे चले स्कूल। हाथी का बच्चा भी आया, शेर का भी, बंदर भी आया और मछली भी, खरगोश भी आया तो कछुआ भी, ऊँट भी और जिराफ भी।

FIRST UNIT TEST/EXAM हुआ तो हाथी का बच्चा फेल। अब हाथी की पेशी हुई स्कूल में, मास्टरनी बोली,"आपने पैदा करके मुसीबत छोड़ दिये हो मेरे लिये ? औलाद पर ध्यान दीजिए, फेल हो गए हैं। जनाब, इनके कारण मेरा रिजल्ट खराब होगा। तुम्हारे नालायक बेटे के कारण मेरा रिजल्ट खराब हो, ये मुझे मंजूर नहीं।" "किस Subject में फेल हो गया जी?" "पेड़ पर चढ़ने में फेल हो गया, हाथी का बच्चा।" "अब का करें?" "ट्यूशन रखाओ, कोचिंग में भेजो।" अब हाथी की जिन्दगी का एक ही मक़सद था कि हमारे बच्चे को पेड़ पर चढ़ने में Top कराना है।

किसी तरह साल बीता। Final Result आया तो हाथी, ऊँट, जिराफ सब फेल हो गए। बंदर की औलाद first आयी। Principal ने Stage पर बुलाकर मैडल दिया। बंदर ने उछल-उछल के कलाबाजियाँ दिखाकर। गुलाटियाँ मार कर खुशी का इजहार किया। उधर अपमानित महसूस कर रहे हाथी, ऊँट और जिराफ ने अपने-अपने बच्चे कूट दिये। नालायकों, इतने महँगे स्कूल में पढ़ाते हैं तुमको, ट्यूशन-कोचिंग सब लगवाए हैं। फिर भी आज तक तुम पेड़ पर चढ़ना नहीं सीखे। सीखो, बंदर के बच्चे से सीखो कुछ, पढ़ाई पर ध्यान दो।

फेल हालांकि मछली भी हुई थी। बेशक़ Swimming में First आयी थी पर बाकी subject में तो फेल ही थी। मास्टरनी बोली,"आपकी बेटी  के साथ attendance की problem है।" मछली ने बेटी को ऑंखें दिखाई। बेटी ने समझाने की कोशिश की कि,"माँ, मेरा दम घुटता है इस स्कूल में। मुझे साँस ही नहीं आती। मुझे नहीं पढ़ना इस स्कूल में। हमारा स्कूल तो तालाब में होना चाहिये न?" नहीं, ये राजा का स्कूल है। तालाब वाले स्कूल में भेजकर मुझे अपनी बेइज्जती नहीं करानी। समाज में कुछ इज्जत Reputation है मेरी। तुमको इसी स्कूल में पढ़ना है। पढ़ाई पर ध्यान दो।"

हाथी, ऊँट और जिराफ अपने-अपने Failure बच्चों को कूटते हुए ले जा रहे थे। रास्ते में बूढ़े बरगद ने पूछा,"क्यों कूट रहे हो, बच्चों को?" जिराफ बोला,"पेड़ पर चढ़ने में फेल हो गए?"

बूढ़ा बरगद सबसे पते की बात बोला,"पर इन्हें पेड़ पर चढ़ाना ही क्यों है ?" उसने हाथी से कहा,"अपनी सूंड उठाओ और सबसे ऊँचा फल तोड़ लो। जिराफ तुम अपनी लंबी गर्दन उठाओ और सबसे ऊँचे पत्ते तोड़-तोड़ कर खाओ।" ऊँट भी गर्दन लंबी करके फल पत्ते खाने लगा। हाथी के बच्चे को क्यों चढ़ाना चाहते हो पेड़ पर।मछली को तालाब में ही सीखने दो न?

*दुर्भाग्य से आज स्कूली शिक्षा का पूरा Curriculum और Syllabus सिर्फ बंदर के बच्चे के लिये ही Designed है। इस स्कूल में 35 बच्चों की क्लास में सिर्फ बंदर ही First आएगा। बाकी सबको फेल होना ही है। हर बच्चे के लिए अलग Syllabus, अलग subject और अलग स्कूल चाहिये।*

हाथी के बच्चे को पेड़ पर चढ़ाकर अपमानित मत करो। जबर्दस्ती उसके ऊपर फेलियर का ठप्पा मत लगाओ। ठीक है, बंदर का उत्साहवर्धन करो पर शेष 34 बच्चों को नालायक, कामचोर, लापरवाह, Duffer, Failure घोषित मत करो। *मछली बेशक़ पेड़ पर न चढ़ पाये पर एक दिन वो पूरा समंदर नाप देगी।*

यह बात माता-पिता / अभिभावक को समझने चाहिए।🙏🙏🙏🙏🙏🙏

तूतीनामा

आजकल 
बोला जा रहा है अधिकाधिक
राजनीति पर
भ्रष्टाचार पर
चाटुकारिता पर,

उन तथाकथितों द्वारा
विशेष तौर पर
जिनके सरोकार कभी रहे
इन्हीं से,

आज वे गरिया रहे हैं
उन तुच्छ नेताओं को
जिनके विपक्षी से 
सरकार होने पर करवाते रहे, 
स्थानांतरण और नियुक्तियां,

क्या उनके सरोकार 
नहीं रहे कभी राजनीतिक
भ्रष्ट आचरण किया न होगा
उन्होंने कभी,

आज हर कोई बोल रहा है उसी पर,
जो पहले खुद भी करता था वही,

मनसा वाचा कर्मणा 
कह सकता है कोई
हमेशा रहे वे बिल्कुल पाक साफ,
यदि नहीं तो आज के हमारे वचन
सिवाय बेईमानी के कुछ भी नहीं।

आज हम सिर्फ चरितार्थ करते
'सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली'
मुहावरे को,

पाप के घट में
बूंद बूंद का परिणाम है 
आज की राजनीति
जिसके जिम्मेदार भी हम ही हैं,

सही होते यदि हम, आप और वे सभी 
जो आज हांक रहे हैं डींगें
तो न देखना पड़ते ये दिन,

पर अब सभी की आवाज़ 
उस तूतीनुमा है
जो नक्कारखाने में बज रही है।

© डॉ. भूपेन्द्र हरदेनिया

प्रेमचंद की प्रासंगिक उक्तियां-(प्रेमचंद जयंती पर स्मृति शेष-सादर नमन)

हिन्दी के महान कथाकार मुंशी प्रेमचंद पहले ऐसे साहित्यकार रहे हैं, जिन्होंने भाषा-साहित्य को नया कलेवर प्रदान किया। प्रेमचंद से पहले हिन्दी में साहित्य के नाम पर पौराणिक व काल्पनिक कथाओं का ही चलन था। कई भाषाओं पर अच्छी पकड़ रखने वाले प्रेमचंद का समाज के वंचित तबके से खास जुड़ाव रहा और ये उनकी रचनाओं में भी झलकता रहा. उनकी रचनाओं की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है.

दुनिया को लेखन के नए आयामों से परिचित कराने वाले प्रेमचंद का साहित्यिक सफर खास लंबा नहीं रहा लेकिन थोड़े ही समय में उन्होंने कई कालजयी रचनाएं लिखीं. नाटक लेखन से शुरुआत कर उन्होंने कहानियां, उपन्यास, बच्चों के लिए कहानियां लिखीं और अनुवाद भी किया. कितने ही तो संपादकीय लिखे. दर्जनभर से ज्यादा उपन्यास और तीन सौ के लगभग कहानियां लिखने वाले प्रेमचंद ने लेखन में नए-नए प्रयोग किए. एक तरफ गोदान जैसा उपन्यास तो दूसरी ओर चंद पंक्तियों में खत्म होने वाली कहानी राष्ट्र का सेवक दोनों ही अपने में अनुपम हैं.
प्रेमचंद की अनुभूयमान संवेदनाओं की अभिव्यक्ति, भोग्यमान संवेदनशील अभिव्यक्ति से कहीं कमतर नहीं हैं, उनके कथा साहित्य के विभिन्न पात्रों में केवल प्रेमचंद ही नहीं जीते, बल्कि आप हम और हर अन्त्यज जीवंत हो जाता है| जितना मर्म अपनी रचनाओं में प्रेमचंद उत्पन्न करते हैं वह असाधारण कार्य है| अभी तक मैं आतंकवादी फतवों को जानता था, लेकिन साहित्यिक आतंकवाद से अब रू-ब-रू हो रहा हूँ,  वह भी सिर्फ़ कुख्यात या प्रख्यात होने की सोची समझी गई साजिश के साथ| धन्य हैं आज के विचारक| मुझे तो लगता है कि प्रायोजित हरकतें चंद लोगों की आदतें बन गई हैं |
आधुनिक कथा साहित्य के तुलसीदास मुंशी प्रेमचंद ने यथार्थवादी लेखन की शुरुआत कर हिंदी में एक नई परंपरा को चलन में लाया वह पुनर्जागरण के प्रबल समर्थक थे, उनकी कई उक्तियां आज भी प्रासंगिक हैं-

१- अमीरी की कब्र पर बनती हुई गरीबी बड़ी जहरीली होती है।
२- सफलता में दोषों को मिटाने की विलक्षण शक्ति है।
३- डरपोक प्राणियों में सत्य भी गूंगा हो जाता है।
४- लगन को कांटों की परवाह नहीं होती।
५- यश त्याग से मिलता है धोखाधड़ी से नहीं।
६- दया मनुष्य का स्वाभाविक गुण है।
७- आत्म सम्मान की रक्षा हमारा सबसे पहला धर्म है।
८- कर्तव्य कभी आग और पानी की परवाह नहीं करता कर्तव्य पालन में ही चित्त की शांति है।
९- जीवन का वास्तविक सुख दूसरों को सुख देने में है ना कि उन्हें लूटने में।
१०- विपत्ति से बढ़कर अनुभव सिखाने वाला कोई विद्यालय आज तक नहीं खुला।
११- चिंता रोग का मूल कारण है।
१२- अन्याय में सहयोग देना अन्याय के ही समान है।
१३- कार्य कुशल व्यक्ति की सभी जगह जरूरत होती है।
१४- मन एक भीरु शत्रु है जो सदैव पीठ के पीछे से वार करता है।
१५- चापलूसी का ज़हरीला प्याला आपको तब तक नुकसान नहीं पहुँचा सकता जब तक कि आपके कान उसे अमृत समझ कर पी न जाएँ।
१६- महान व्यक्ति महत्वाकांक्षा के प्रेम से बहुत अधिक आकर्षित होते हैं।
१७- जिस साहित्य से हमारी सुरुचि न जागे, आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न मिले, हममें गति और शक्ति न पैदा हो, हमारा सौंदर्य प्रेम न जागृत हो, जो हममें संकल्प और कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने की सच्ची दृढ़ता न उत्पन्न करे, वह हमारे लिए बेकार है वह साहित्य कहलाने का अधिकारी नहीं है।
१८- आकाश में उड़ने वाले पंछी को भी अपने घर की याद आती है।
१९- जिस प्रकार नेत्रहीन के लिए दर्पण बेकार है उसी प्रकार बुद्धिहीन के लिए विद्या बेकार है।
२०- न्याय और नीति लक्ष्मी के खिलौने हैं, वह जैसे चाहती है नचाती है।
२१- युवावस्था आवेशमय होती है, वह क्रोध से आग हो जाती है तो करुणा से पानी भी।
२२- अपनी भूल अपने ही हाथों से सुधर जाए तो यह उससे कहीं अच्छा है कि कोई दूसरा उसे सुधारे।
२३- देश का उद्धार विलासियों द्वारा नहीं हो सकता। उसके लिए सच्चा त्यागी होना आवश्यक है।
२४- मासिक वेतन पूरनमासी का चाँद है जो एक दिन दिखाई देता है और घटते घटते लुप्त हो जाता है।
२५- क्रोध में मनुष्य अपने मन की बात नहीं कहता, वह केवल दूसरों का दिल दुखाना चाहता है।
२६- अनुराग, यौवन, रूप या धन से उत्पन्न नहीं होता। अनुराग, अनुराग से उत्पन्न होता है।
२७- दुखियारों को हमदर्दी के आँसू भी कम प्यारे नहीं होते।
२८- विजयी व्यक्ति स्वभाव से, बहिर्मुखी होता है। पराजय व्यक्ति को अन्तर्मुखी बनाती है।
२९- अतीत चाहे जैसा हो, उसकी स्मृतियाँ प्रायः सुखद होती हैं।
३०- मैं एक मज़दूर हूँ। जिस दिन कुछ लिख न लूँ, उस दिन मुझे रोटी खाने का कोई हक नहीं।
३१- बल की शिकायतें सब सुनते हैं, निर्बल की फरियाद कोई नहीं सुनता।
३२- दौलत से आदमी को जो सम्‍मान मिलता है, वह उसका नहीं, उसकी दौलत का सम्‍मान है।
३३- संसार के सारे नाते स्‍नेह के नाते हैं, जहां स्‍नेह नहीं वहां कुछ नहीं है।
३४- जिस बंदे को पेट भर रोटी नहीं मिलती, उसके लिए मर्यादा और इज्‍जत ढोंग है।
३५- खाने और सोने का नाम जीवन नहीं है, जीवन नाम है, आगे बढ़ते रहने की लगन का।
३६- जीवन की दुर्घटनाओं में अक्‍सर बड़े महत्‍व के नैतिक पहलू छिपे हुए होते हैं!
३७- नमस्‍कार करने वाला व्‍यक्ति विनम्रता को ग्रहण करता है और समाज में सभी के प्रेम का पात्र बन जाता है।
३८- अच्‍छे कामों की सिद्धि में बड़ी देर लगती है, पर बुरे कामों की सिद्धि में यह बात नहीं।
३९- स्वार्थ की माया अत्यन्त प्रबल है |
४०- केवल बुद्धि के द्वारा ही मानव का मनुष्यत्व प्रकट होता है 
४१- सौभाग्य उन्हीं को प्राप्त होता है, जो अपने कर्तव्य पथ पर अविचल रहते हैं |
४२- कर्तव्य कभी आग और पानी की परवाह नहीं करता | कर्तव्य~पालन में ही चित्त की शांति है |
४३- अन्याय में सहयोग देना, अन्याय करने के ही समान है |
४४- मनुष्य कितना ही हृदयहीन हो, उसके ह्रदय के किसी न किसी कोने में पराग की भांति रस छिपा रहता है| जिस तरह पत्थर में आग छिपी रहती है, उसी तरह मनुष्य के ह्रदय में भी ~ चाहे वह कितना ही क्रूर क्यों न हो, उत्कृष्ट और कोमल भाव छिपे रहते हैं|
४५- जो प्रेम असहिष्णु हो, जो दूसरों के मनोभावों का तनिक भी विचार न करे, जो मिथ्या कलंक आरोपण करने में संकोच न करे, वह उन्माद है, प्रेम नहीं|
४६- मनुष्य बिगड़ता है या तो परिस्थितियों से अथवा पूर्व संस्कारों से| परिस्थितियों से गिरने वाला मनुष्य उन परिस्थितियों का त्याग करने से ही बच सकता है|
४७- चोर केवल दंड से ही नहीं बचना चाहता, वह अपमान से भी बचना चाहता है| वह दंड से उतना नहीं डरता जितना कि अपमान से|
४८- जीवन को सफल बनाने के लिए शिक्षा की जरुरत है, डिग्री की नहीं| हमारी डिग्री है ~ हमारा सेवा भाव, हमारी नम्रता, हमारे जीवन की सरलता| अगर यह डिग्री नहीं मिली, अगर हमारी आत्मा जागृत नहीं हुई तो कागज की डिग्री व्यर्थ है|
४९- साक्षरता अच्छी चीज है और उससे जीवन की कुछ समस्याएं हल हो जाती है, लेकिन यह समझना कि किसान निरा मुर्ख है, उसके साथ अन्याय करना है|
५०- दुनिया में विपत्ति से बढ़कर अनुभव सिखाने वाला कोई भी विद्यालय आज तक नहीं खुला है|
५१- हम जिनके लिए त्याग करते हैं, उनसे किसी बदले की आशा ना रखकर भी उनके मन पर शासन करना चाहते हैं| चाहे वह शासन उन्हीं के हित के लिए हो| त्याग की मात्रा जितनी ज्यादा होती है, यह शासन भावना उतनी ही प्रबल होती है|
५२- क्रोध अत्यंत कठोर होता है| वह देखना चाहता है कि मेरा एक~एक वाक्य निशाने पर बैठा है या नहीं| वह मौन को सहन नहीं कर सकता| ऐसा कोई घातक शस्त्र नहीं है जो उसकी शस्त्रशाला में न हो, पर मौन वह मन्त्र है जिसके आगे उसकी सारी शक्ति विफल हो जाती है|
५३- कुल की प्रतिष्ठा भी विनम्रता और सद्व्यवहार से होती है, हेकड़ी और रुबाब दिखाने से नहीं|
५४- सौभाग्य उन्हीं को प्राप्त होता है जो अपने कर्तव्य पथ पर अविचल रहते हैं|
५५- दौलत से आदमी को जो सम्मान मिलता है, वह उसका नहीं, उसकी दौलत का सम्मान है|
५६- ऐश की भूख रोटियों से कभी नहीं मिटती| उसके लिए दुनिया के एक से एक उम्दा पदार्थ चाहिए|
५७-किसी किश्ती पर अगर फर्ज का मल्लाह न हो तो फिर उसके लिए दरिया में डूब जाने के सिवाय और कोई चारा नहीं|
५८- मनुष्य का उद्धार पुत्र से नहीं, अपने कर्मों से होता है| यश और कीर्ति भी कर्मों से प्राप्त होती है| संतान वह सबसे कठिन परीक्षा है, जो ईश्वर ने मनुष्य को परखने के लिए दी है| बड़ी~बड़ी आत्माएं, जो सभी परीक्षाओं में सफल हो जाती हैं, यहाँ ठोकर खाकर गिर पड़ती हैं|
५९- नीतिज्ञ के लिए अपना लक्ष्य ही सब कुछ है| आत्मा का उसके सामने कुछ मूल्य नहीं| गौरव सम्पन्न प्राणियों के लिए चरित्र बल ही सर्वप्रधान है|
६०- जीवन का वास्तविक सुख, दूसरों को सुख देने में हैं, उनका सुख लूटने में नहीं |
६१- उपहार और विरोध तो सुधारक के पुरस्कार हैं |
६२- जब हम अपनी भूल पर लज्जित होते हैं, तो यथार्थ बात अपने आप ही मुंह से निकल पड़ती है |
६३- अपनी भूल अपने ही हाथ सुधर जाए तो, यह उससे कहीं अच्छा है कि दूसरा उसे सुधारे |

बतकही

मुखिया ने कहा
मंत्रियों ने सुना,

मंत्रियों ने
कहा अधिकारियों से,
 
उन्होंने ने भी वैसे ही सुना
जैसे मंत्रियों ने सुना था,

कर्मचारियों के कान तक,
पहुँची वही बात 
जो अधिकारियों के द्वारा
सरकार से चली थी
जनता तक पहुँचा दी गई,

जनता कह रही है  जनता से ही
अब वही बात, 

हमारी बतकही 
सरकार की बात के साथ
सिर्फ विस्तार पाती है बस

© डॉ. भूपेन्द्र हरदेनिया

गुरुवार, 16 जुलाई 2020

पुनर्जन्म

अभी तक पुनर्जन्म के
सुने और सुनाये गये
किस्से कई,

कई बार सिरे से
किया गया खारिज
इस अवधारणा को

अनसुलझे से
रह गये प्रश्न कई 

माना जाता रहा 
इसके बारे में 
व्यक्ति के इहलोक
त्यागने के बाद होता है
पुनर्जन्म अनेकों बार

पर 
हम शायद
बहुत दूर की कौड़ी 
खोज रहे होते हैं उस समय,

नहीं जानते
बच्चों के जन्म के साथ ही
हम ले लेते हैं पुनर्जन्म
हमारा दुहराव
समक्ष  रहता है हमारे,

वर्ण, स्वर, आकृति
सत्व, बुद्धि 
बच्चे का सब कुछ तो 
होता ही वैसा 
जैसे होते अभिभावक,

इस उत्पत्ति में 
माता-पिता की 
आत्मा का होता है प्रवेश
संतान में 

और दोनों की आत्मा ही 
संचार करती है संतान में,

वह अवयवी होकर
बच्चों में ही जन्म लेते हैं
इसी तरह चलता रहता
पुनर्जन्म का सिलसिला
पीढ़ी दर पीढ़ी
परिवेश और समाज के साथ 
एक नये रूप में 

डाॅ. भूपेन्द्र हरदेनिया

सोमवार, 13 जुलाई 2020

न्यायकारिता

आज पुनः मार दिया
एक कुख्यात 
प्रख्यात,
दहशतगर्द
हत्यारा
गुंडा
अपने हत्यारे
साथियों के साथ,

कुछ अन्य 
खाकी
खादी 
मित्रों की
मिली भगत से,

और बच गये वे सभी
जो थे अन्य कई
हत्याओं और वारदातों के दोषी,
 
कब्र में दफना दिये गये 
कई राज
कई भेद
काले कारनामों के चिट्ठे
फिर से जला दिये गये
पहले की तरह ही,

न्यायकारिता
जाँच एजेंसियांँ
हमेशा की तरह हासिए
पर हैं, 

स्वाभाविक भी है
इनमें भी समाहित हैं,
अन्याईयों की शक्तियांँ|

डाॅ. भूपेन्द्र हरदेनिया

सत्य हाशिए पर रहता है

हर व्यक्ति समझदार होता है
कब तक ?

जब तक
उसमें झूठ सहन करने की
छल को झेलने की 
कपट को पी जाने की
दुराव-छुपाव के साथ
की गई चालाकियों को 
समझते हुए भी
नासमझ रहने की 
सारे भावों-कुभावों
को हृदय की गुहा में
समाये रखने की
चाटुकारिता की
चारणवृत्ति की
विरुदावली गायन की
दलगत भावना को
बनाये रख
केवल दृष्टा बने रहने की
रहती है समझदारी ,

जब सारे भाव 
छलकते हैं
कुम्भोच्छलनवत्
अतिरेक होने से,

कहने लगता है
सत्य वह
यथार्थ के साथ
जिसे करता था
नज़रअंदाज कभी,

लोगों को 
लगने लगते हैं
विद्रोही स्वर

माना जाने लगता है
अब नहीं रहा
समझदार वह
कई तथाकथितों की 
नज़रों में,

सबका होते हुए भी
नहीं रहता किसी का,
उनका भी जिनका कभी था,

आखिर
हाशिए पर 
रख दिया जाता है वह
हर जगह 
सत्य के साथ|

डाॅ. भूपेन्द्र हरदेनिया

सोमवार, 6 जुलाई 2020

ग़ज़ल जिन्दगी की, गीत सावन का



बादल घिर आएँ सावन में,  तो मजा लीजिएगा
पर गुज़िश्ता की सताए याद, तो क्या कीजिएगा|

वे छूटे खूबसूरत पल, वैसा नहीं दिखता ज़माना
कोई बिगड़कर बिछड़ जाये, तो क्या कीजियेगा|

कोयल की कूक सुकून सी, मन खुश होता था,
किसी दिल में उठे  हूक,  तो क्या कीजियेगा|

मतवारी मल्हारें मधुर,  झूलों के किस्से सावन के
कोई समझ न पाए मर्म,    तो क्या कीजियेगा|

हल्की बूँदें हवाओं के गीत, आम की खट्टी कैरियाँ|
कड़वे  रिश्तों में छायी उदासी,  तो क्या कीजियेगा|

आसमान छूती पतंगों की लटकती डोरियाँ हाथों में|
हारे प्रेम में होंसले पस्त हो, तो क्या कीजियेगा|

पानी में डालते ही तैर गईं, बच्चों की कश्तियांँ
बड़प्पन में सारे ख्वाब डूब जाए, तो क्या कीजियेगा

मोरों का नर्तन और कीर्तन, बीज फूटते सावन में
हो जाए फ़ाक़ाकश इंसान , तो क्या कीजियेगा|

रिमझिम फुहारों के मौसम, फैली बहार हर तरफ
 मन रेगिस्ताँ दिल दश्त हो, तो क्या कीजियेगा

अब उपमानों में ही रह गया है, वो मदमस्त सावन
प्यार का अहसास बदल जाये, तो क्या कीजियेगा

सब चलता है, चलता रहेगा ये जीवन "मौलिक" है |
व्यस्त जिन्दगी भूले बचपन, तो क्या कीजिएगा||

डाॅ. भूपेन्द्र हरदेनिया "मौलिक"

गुजिश्ताँ-भूतकाल
दश्त-उजाड़ जंगल
फ़ाक़ाकश-रोजी रोटी को मोहताज़
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1221254858213451&id=636372536701689

शनिवार, 27 जून 2020

अनकट जैम होते हैं कुछ रिश्ते

कुछ रिश्ते

वास्तविक रूप में
इलास्टिक के दो छोर की तरह ही
होते हैं 

जिनमें गुण होता है प्रत्यास्थता का
बाह्य बल विकृति पैदा करता है उनमें
दोनों ओर खिचाब का कारण भी वही होता है

लेकिन 
हम उन्हें कितना ही तान लें
किसी के भी नाम पर
कोई भी वजह हो
नहीं होते अलग 

जैसे ही गलतफहमियों 
का खिचाव,
शिकवों की हथेलियों से छूटता है
तो बल टूटता है
फिर दुगने वेग से  मिलते हैं 

वे आते हैं अपनी मूल स्थिति में
खुशफहमियों के साथ

कुछ
सच्चे रिश्ते 
अनकट जैम होते हैं,

- डाॅ. भूपेन्द्र हरदेनिया

सोमवार, 15 जून 2020

बिखराव

कदली वृक्ष की झालर 
जिसमें कई सैंकडो़ं फल
रहते हैं लटके,

दिन ब दिन 
परत दर परत
एक के बाद एक
खुलते जीवन पुष्प
में फलित संतानों
और उन सब के बढ़ते 
भार के साथ ही
वृक्ष लगातार झुकता जाता है,

वो झालर
जिसे सम्भाले रखा था 
बहुत दिनों से वृक्ष ने
अपनी क्षमता से अधिक
एक दिन टूट जाती है वह
फल बिखर जाते हैं जमीन पर
और वृक्ष हो जाता है 
रीढ़ विहीन,

जीवन भर
अत्यधिक बोझ
वहन करने
सब कुछ सहने के बाद भी
हाथ लगता है
तो सिर्फ बिखराव
कई बार जीवन में,

वे फल 
जिन्होंने 
जीवनी शक्ति ली
अपने मूल से
और फलते फूलते रहे
उसकी वजह से ही
वे आते हैं अब
काम दूसरों के|

-डाॅ. भूपेन्द्र हरदेनिया

रविवार, 14 जून 2020

जनपदीय भारत में अन्त्यजीय संवेदना का धर्मशास्त्र(डॉ. देवेन्द्र दीपक के कविता संग्रह ‘मेरी इतनी-सी बात सुनो की समीक्षा)समीक्षक-डॉ. भूपेन्द्र हरदेनिया

आज के साहित्यिक परिवेश में दलित चिंतन एक विमर्श के साथ एक गम्भीर मुद्दा भी है|  विषय उन दलितों का जिन्हें आज हम पंचम वर्ण या अन्त्यज भी कहते हैं। ‘चातुर्वण्यं मया सृष्टं‘ कहते हुए गीता में भी कृष्ण ने बताया था कि संसार में उनके द्वारा सिर्फ चार वर्णाें का ही सृजन हुआ है, लेकिन समाज के उच्च वर्ग की स्वार्थपरक वृत्ति के कारण उस पंचम वर्ण का भी निर्माण हुआ। ये वर्ण आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक धरातलों पर उपेक्षित ही नहीं अस्पृष्य भी माने जाते हैं। 
 परम्परागत हिन्दू समाज ने इस वर्ण को दलित या दमवित वर्ग का नामकरण भी किया था। आज इसी दलित को उनके अधिकार दिलाने और शोषण से मुक्ति दिलाने हेतु अनेक दल, अनेक संगठन एवं राजनैतिक पार्टियॉं अपने स्तर अपनी-अपनी दलित रोटी सेकने में लगीं हैं, लेकिन यथार्थ में अगर कोई कार्य हुआ है तो वह साहित्य के क्षेत्र में। साहित्य में अनेक विचारकों और चिंतकों ने दलितों पर अपनी लेखनी चलाई है, और उस लेखनी से दलितों की मार्मिक व्यथा और कथा को लोगों तक पहुंचाने का स्तुत्य कार्य भी किया है, लेकिन एक विवाद इसमें भी चल पड़ा कि दलितों की कथा दलित ही लिख सकते हैं, क्यों कि जो भोगता है, वही उसे सही ढंग से व्यक्त कर पाता है, इसीलिए एक कहावत भी चल पड़ी है कि दलितों की कहानी दलितों की ही जुवानी। प्रायः ऐसा माना जाता रहा है कि जो भोग्यमान अनुभूति है, वही सही ढंग से अभिव्यक्त हो सकती है। जो जिसने भोगा ही नहीं, उसे वह कैसे अभिव्यक्त कर सकता है, पर यह अंशतः सत्य हो सकता है, पूर्णतः नहीं, अगर ऐसा होता तो प्रेमचन्द अमर न होते। आज हिन्दी कथा की अगर कहीं बात होगी तो प्रेमचन्द के उल्लेख के बगैर वह बात अधूरी ही रहेगी। इसी प्रकार यह भी यथार्थ है कि अनुभूयमान अनुभूति भी लगभग वैसे ही होती है या हो सकती है, जैसी भोग्यमान अनुभूति होती है। इस संसार में करुणा एक ऐसा शब्द है जो अगर न होता तो मानवता ही न होती। क्यों कि करुणा के माध्यम से हम दूसरे के दर्द को महसूस कर सकते है, भले ही वह दर्द, वह कष्ट भोगा न हो, लेकिन महसूस जरूर किया होगा। यह सब अनुभूयमान अनुभूति के कारण ही होता है। इस अनुभूयमान अनुभूति की सशक्त अभिव्यक्ति जो कि अन्त्यजीय संवेदना को एकदम सजीव कर देती है, वह हमें दिखाई देती है, प्रसिद्ध रचनाकार डॉ0 देवेन्द्र दीपक की रचनाओं में। इस तरह की अभिव्यक्ति को लेकर हाल ही में उनका एक महत्वपूर्ण काव्य संग्रह ‘मेरी इतनी-सी बात सुनो‘ प्रकाष में आया है, साहित्य जगत में भी इसकी खासी चर्चा है। इस काव्य संग्रह का शीर्षक ही बहुत थोड़े में बहुत कुछ कह जाता है, अर्थात सामासिकता लिए हुए है। यह सम्पूर्ण काव्य संग्रह अन्त्यज अनुभूतियों या दलित चेतना को समर्पित है। इसमें वे कहते हैं वे कहते हैं "मेरी जात मत पूछ, कलम की जात पूछ|"
रचनात्मकता की तिलस्मी दुनिया के सुपरिचित, तेजस्वी और सशक्त हस्ताक्षर डॉ. देवेन्द्र दीपक का यह नवीनतम कविता संग्रह उनकी अनूठी कृति है। इस संग्रह की विषय-वस्तु पर अगर दृष्टिपात किया जाए तो कहा जा सकता है कि यह संग्रह जनपदीय भारत का अस्पृश्यीय धर्मशास्त्र है। इस संग्रह में दलित समस्या के ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक संज्ञान के साथ, दलितीय जीवन के बहुत बड़े क्षितिज को भी ढॅूंढा और उन संकटों के विरुद्ध एक नई दृष्टि विकसित की है। इस हेतु इस संग्रह की कविताएँ  दलित समस्या के अपने नए भाव-बोध और दृष्टि को उकेरते हुए एक नए परिवेश में प्रवेश करती है। जाहिर है उनकी काव्य दृष्टि तत्कालीन अंतराल के साथ, स्मृति के वैभव से टकराती है। इसीलिए उनकी कविताएँ दलित चिंतन को इस कदर जीवंत कर देती हैं, मानो वह रचनाकार की भोग्यमान रचना ही हो। देवेन्द्र दीपक के इस संग्रह की साधारण, सहज और सरलता से समझ आने वाली कविताओं में दलित विमर्श को एक विशिष्ट और नवीन तरीके से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। 
दीपक जी के इस संग्रह से जब आत्मसात होता है तो जॉंक देरिदा का विखंडनवाद याद आता है, जो पाठ के पुनर्पाठ, उसके अन्तर्पाठ, उसकी पड़ताल और उस पाठ के विखंडन पर बल देता है, लेकिन दीपक जी के इस संग्रह की कविता विखंडन की कतई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि उनकी कविताएँ बगैर विखंडन के शहद का स्वाद और शहद की सेहत एक साथ दे देती है। आदमी और आदमी की छाया की तरह उनकी कविता अन्वयात्मक तरीके से व्यक्त होती है। उन्होंने स्वयं भी इस संग्रह की भूमिका में लिखा है कि ‘‘मेरी प्रत्येक कविता में आपको एक अन्विती मिलेगी। विचार की, भाव की, प्रभाव की। कविता में प्रयुक्त होते ही मानो शब्द को हल्दी लग जाती है और साधारण-सा शब्द एकदम महत्त्वपूर्ण हो जाता है। मेरी कविता में प्रत्येक शब्द किसी आशय से विन्यस्त है। मेरी अभिधा, व्यंजना-गंधी है। मेरी कलम ‘साफ बयानी‘ और ‘सपाट बयानी‘ के अन्तर को समझती है। मेरी कविता का एक पाठ प्रत्यक्ष है, लेकिन उसके भीतर एक अन्तर्पाठ भी है। मेरी कविता अपने पाठक को उस अन्तर्पाठ तक सहज ले जाती है।‘‘ 
माना जा सकता है कि इस संग्रह की कविता मार्ग और लक्ष्य की कविता है, वह आपका मार्ग भी है और लक्ष्य भी। लक्ष्य कौन सा? लक्ष्य मुक्ति का। अब मुक्ति किससे? तो मुक्ति उस मानसिकता से जो आज हमारे समाज में दलितों और अस्पृश्यों के सामान्य वर्ग के लोगों में व्याप्त है। मुक्ति व्यवहार से जो उच्च वर्ग निम्न वर्ग के प्रति करता है, मुक्ति उस यातना से जो अन्त्यज को तिल-तिल मरने को बाध्य कर रही है। सच तो यह है कि यह कविताएँ सिर्फ विरोध की कविताएँ ही नहीं हैं बल्कि विरोध के मुखर न होने की स्थिति और उन पीड़ाओं से जूझते मनः स्थिति की पारदर्शी कविताएँ हैं। ‘‘उनकी कविता सवर्ण समाज के अन्तर्विरोध पर अपने को फोकस करती है। यह उसकी मुख्य भूमिका है। लेकिन अस्पृश्य समाज के अपने अन्तर्विरोध भी हैं। उन अन्तर्विरोधों की चर्चा कहीं होगी? लोग इस बात से दुःखी है कि उनके कंधे पर किसी का पॉंव है। दुःखी होना स्वाभाविक है। लेकिन वह यह भूल जाते हैं कि उनके पॉंव के नीचे भी कोई कंधा है जो दबाव की पीड़ा से आहत है। ऊपर वाले से मुक्ति चाहते हो तो नीचे वाले को भी मुक्ति देनी होगी।
दीपक जी के इस संग्रह की कविताएँ सवर्ण और दलित के अन्तर्विरोधों से मुक्ति की कविताएँ हैं इसी मुक्ति की आकांक्षा लिए इस संग्रह में दलितों के प्रति सवर्ण मानसिकताओं के कई कटु-सत्य परत-दर-परत सामने तो आते ही हैं, साथ ही सवर्ण मानसिकता में अस्पृश्यता की गहरी पैठ का दुष्परिणाम भी सामने होता है। इस संग्रह की कविताएँ उच्च वर्ण के मनस्तत्त्व में विद्यमान क्रूर, कठोर और कटु अन्त्यजीय मनःस्थिति की पड़ताल करते हुए, उन तमाम घटनातीत गंभीरता को समेटते हुए या फिर उन वैचारिक विसंगतियों की जमीन पर, वर्तमान में घटित उन तमाम कराह और तिक्तता को भी गहरे ढंग से चिन्हित करती है। लिहाजा सहृदय दलितीय जन-चेतना, उनकी खोई सांस्कृतिक परंपराओं, उनके भाव-संसार और इतिहास के पन्नों से अलग होते द्वंद्व के वर्तमान से परिचित तो होते ही हैं, साथ ही विचलित भी। 
सामाजिक दृष्टि से अगर देखा जाए तो भारत की कई मामलों में स्थिति प्राचीनकाल से ही अत्यंत दुर्बल रही है। प्राचीन काल में जाति-उपजातियों का विभाजन इसके प्रमाण थे। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-इन चारों वर्णों के अतिरिक्त समाज का एक बहुत बड़ा भाग ऐसा था जिसे ‘अन्त्यज‘ पुकारते थे। इन्हें समाज के किसी भी वर्ग में स्थान प्राप्त न था।  जुलाहे, मछुआरे, टोकरी बुनने वाले, चमडे़ की सामग्री बनाने वाले, शिकारी आदि इस वर्ग में सम्मिलित थे। इनमें भी निम्न स्तर हादी, डोम, चाण्डाल, वधाटु आदि वर्गों का था जो सफाई और स्वच्छता के कार्यों में लगे हुए थे, परन्तु इन्हें नगरों और गॉंवों के बाहर रहना पड़ता था। वैश्या तथा शूद्रों को वेद और धार्मिक शास्त्रों को पढ़ने का अधिकार न था। यदि इनमें से कोई ऐसा करता था तो उनकी जबान काट ली जाती थी। समाज से पृथक वर्गों की स्थिति का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उनकी स्थिति तो वैश्यों को शूद्रों से भी निम्न थी। इसीलिए सिसृक्षु डॉं0 देवेन्द्र दीपक का अन्तर्मन, विवेकानन्द के उन्मन मन के रूप में जातीय दम्भ रखने वाले समाज के ठेकेदारों से प्रष्न कर रहा है और कह रहा है-उन्मन, उन्मन, उन्मन/तुम्हारा प्रेम भरा मन/बंधु/तुम्हरे उन्मन मन में/चींटियों के लिए है आटा/पक्षियों के लिए दाना/मछलियों के लिए गोलियॉं/बंदरों के लिए चने/कुत्ते के लिए रोटी/और गाय के लिए गो-ग्रास!/यह सब अच्छा है।/बंधु,/अछूत के लिए/तुम्हरे उन्मन मन में/क्या है/तुम्हारे पास?/यह सवाल मैं नहीं/विवेकानंद पूछ रहा है!

‘मेरी इतनी-सी बात सुनो‘ संग्रह की इक्यावन कविताएँ संग्रह की मणिमाला हैं या यूँ कहें जिस प्रकार मालाकार माल्य निर्मिति के समय पुष्पों का चुनाव कर एक श्रेष्ठ माला का निर्माण करता है, उसी प्रकार इस संग्रह की कविताओं का पुष्प की तरह ही चुना गया है, लेकिन देखने में पुष्पित और पल्लवित इस संग्रह की कविताएँ उनसे भी बढ़कर माणिक्य और मोती है, जो कभी बासी नहीं होते, हमेशा दैदीप्यमान रहते हैं। वह रत्न जणित एक ऐसा सुन्दर हार है जिसे अगर पहन लिया जाए तो निश्चित ही जन-कल्याण सम्भव है। 
इस संग्रह की पहली कविता शीर्षकीय कविता है, जो कि पीड़ीगत होते दलितीय अत्याचार के आक्रोश का बीचवपन भी कही जा सकती है। जिन्होंने हमेशा अत्याचार सहे, अस्पृश्यता के नाम पर कष्ट सहे वही आज अपना स्वर शोषकों के प्रति मुखर किए हुए हैं, अपनी बात को, अपनी आवाज को उन तक पहुॅंचाने और अपनी संवेदनाओं को व्यक्त करने के लिए वह मुखर है, वह सब सहते हुए भी अन्जान नहीं है, इसीलिए वह कहता है-बहरे नहीं हो/और सुन सकते हो/तो/मेरी इतनी-सी बात सुनो-/‘बंदूक हॅूं,/कंधा नहीं हॅूं मैं/अन्त्यज हुआ तो क्या/अंधा नहीं हॅूं मैं?‘ चिरकाल तक सहा गया कष्ट या लम्बे समय से सहा गया दुःख का, जब अतिरेक हो जाता है, तब कुम्भोच्छलनवत वह भाव या दुख, वह कष्ट आक्रोश के रूप में छलक उठता है, तत्समय हम महसूस करते हैं और देखते हैं कि अतीत की कचोटती घटनाओं से मुक्ति की छटपटाहट, भीतर ही भीतर प्रतिशोध, अपनी बेचैनी की मुक्ति का आक्रोश, समक्ष हो उठता है। दीपक जी के लिए इस संग्रह की कविताएँ-कबीरदास का कर्घा है/रविदास की कटौती/सेन का उस्तरा/और नामदेव की सुई है। उनकी कविता पसीने की गंध का सौंदर्यशास्त्र है, उत्पीड़न के बखान का धर्मशास्त्र है, एवं अन्त्योदय से सर्वोदय तक फैला समाजशास्त्र भी है। इसीलिए इस संग्रह की कविताओं में कवि की महीन दलितीय संवेदना, दृष्टि सम्पन्नता, अपने आलोचनात्मक विमर्शों के माध्यम से अस्पृश्यता की जमीनी पड़ताल त्रिशास्त्रीय तरीके से करने का प्रयास किया गया है। यह संग्रह विभिन्न अन्त्यज अनुभूतियों की हकीकत के साक्ष्य पाठक के समक्ष रखने का सफल प्रयास करता है। 
शोषण का इतिहास बहुत पुराना है, लेकिन यह शोषण किस कारण और बजह से। सिर्फ इसलिए ताकि उस पर शोषक सिर्फ अपनी रोटी सेक सके। हर व्यक्ति का अपना जीवन होता और उसे वह जीवन अपने ही तरीके से जीने का अधिकार भी होता है, उसके जीवन में कोई हस्तक्षेप करे तो द्वंद्व की स्थिति पैदा होती ही है, आज वह द्वंद्व दलित और शोषक के बीच भी उपस्थिति है, क्यों कि तबका कोई भी हो वह अपना जीवन अपने स्तर से जी सकता है, ज्यादा न सही कम में ही सही, इसीलिए इस संग्रह का शोषित जो कि दलितीय भूमिका में कहता है-मेरी आग इसलिए नहीं/कोई दूसरा/इस आग पर आपनी रोटियॉं सेंके।/मेरी आग मेरी अपनी है/मेरी आग इसलिए नहीं/कोई दूसरा/इसे अपनी पॅूंजी समझे/और अपना धंधा चलाए।/मेरी आग/मेरी रोटी/पतली हो या मोटी।
 
इस संग्रह की प्रत्येक कविता एक सवाल उत्पन्न करती है और उसके जबाव की तह तक ले जाने का महनीय प्रयास भी। निश्चय ही वह सवाल दलितीय संवेदना से जुड़ा हुआ है और उसका जबाव भी वही। जिसकी रचनात्मकता का अपना विशिष्ट प्रवाह है जहॉं हमारी संवेदनाओं पूर्णतया अन्त्यज जीवन और उनसे जुड़ी दारुण गाथाओं के लिए संवेदित हैं। इसीलिए इस संग्रह की एक कविता ‘सूत्रधार‘ में उस सूत्रधार को पकड़ने की बात कही गई है जो शोषणीय घटना का प्रमुख है, कवि कहता है कि-हर घटना के पीछे कोई हाथ होता है/उस हाथ के पीछे भी होता है कोई हाथ/.....................और यह जो आखिरी हाथ है/बस, वही सूत्रधार है.........../हम सूत्रधार को पकड़ें। 
शोषण चाहे मानसिक हो या समाजिक, आर्थिक हो या धार्मिक, शोषण तो शोषण ही होता है। शोषण स्त्री या पुरुष किसी का भी हो सकता है। लेकिन शोषण जहॉं होगा वहॉं कभी न कभी विद्रोह भी होगा। चाहे उसमें कितना भी समय लग जाए। शताब्दियों से धर्म की रूढ़ियों के नाम पर हमारे देष में एक वर्ग का सामाजिक, मानसिक और आर्थिक शोषण किया गया है। लेकिन जैसे ही मानवीयता के भाव जागे और शोषित वर्ग के साथ सभी वर्गोे में चेतना आई तो परिणाम स्वरूप विद्रोह का विस्फोट हुआ और रामू जैसे लोग पैदा हुए जिन्होंने अपनी चेतना को जाग्रत कर अपने ऊपर हो रहे अत्याचार को समूल नष्ट करने की ठानी। इसीलिए इस संग्रह की कविता ‘रामू खुद लड़ेगा‘ का रामू आज अपने अतीत को याद करते हुए मोर्चा सम्भाले हुए अन्यानेक शोषकों जिन्होंने कभी उसके साथ अत्याचार किया से लड़ने के लिए तत्पर है, रामू कहता है-मैं अछूत हॅूं/मेरा नाम रामू है।/मेरी तनातनी, कहा-सुनी, गिला-शिकवा/जो कुछ भी है/वह पंडित रामदीन/ठाकुर रामसिंह/लाला रामदयाल से है।/रामू अपनी लड़ाई खुद लड़ेगा/....... रामू जानता है/उसके सिर पर मैले का टोकरा/क्यों, कब और कैसे आया ? स्मृतियॉं कभी नष्ट नहीं होतीं और वो स्मृतियॉं तो कभी नहीं जो जीवन और मृत्यु के प्रश्नों से जुड़ी होती हैं। ऐसी स्मृतियॉं जिसमें जुड़े होते हैं मौत से साक्षात्कार और जीवन को हर हाल में बचा लेने की उत्कृष्ट लालसा के प्रसंग, वे काल के नेपथ्य में जाकर वर्तमान से संवाद करती रहती हैं। वे मनुष्य के अवचेतन में बीज रूप में अवस्थित रहती हैं, जो स्थान, काल और परिवेश के साम्य के साथ पुनर्जीवित होकर सामने आ जाती हैं, तथा वर्तमान को झकझोर भविष्य को आशंकाओं से भर देती है। रामू जानता है कि आज जिस स्थिति में वह है, किसकी देन है। 
आज हमारे देश का सबसे बड़ा ज़हर है अस्पृश्यता के वातावरण ने भारतीय समाज में जिस कदर वर्ग वैषम्य और वर्ग विभेद का ज़हर घोला है, उससे आज का सम्पूर्ण भारतीय समाज अपनी मृण्यमयी भूमिका में है। दलितों को अस्पृश्य और नीच जाति के मानने के कारण समाज में इनका जीवन दूभर हो जाता है। फलस्वरूप वे मानव होकर भी समाज के अन्य लोगों के जैसे स्वतंत्र रूप से जीवन बिता नहीं सकते हैं। सार्वजनिक स्थानों पर विचरना वर्जित है। अस्पृश्यता की यह रीति दलितों के लिए अभिशाप बन गई है। हमें अस्पृश्यता के दुष्परिणाम मालूम होते हुए भी आज हम पर वह इस तिलिस्म के साथ हावी हो चुकी है, कि हम उसके जादुई आवरण से उबर नहीं पा रहे है। इस बात से हम बहुत अच्छी तरह वाकिफ हैं कि अस्पृश्यता अवैदिक है/अस्पृश्यता अधार्मिक है/अस्पृश्यता अनैतिक है/अस्पृश्यता हिंसा है/अस्पृश्यता पक्षपात है/अस्पृश्यता शोषण है/अस्पृश्यता समाजिक रोग है/अस्पृश्यता सामाजिक रोग है/अस्पृश्यता तामसी है।......इतना सब-कुछ है/अस्पृश्यता के खिलाफ!.........फिर भी ताल ठोककर/ऑंखें तरेरकर/नथुने फुलाकर/बदकलाम अस्पृश्यता/ललकारती है यहॉं-वहॉं/गॉंव-नगर द्वार-द्वार/बार-बार/साफ़-साफ़ ! क्यों कि हमारे जो आज प्रयास हैं वे भरसक नहीं है, वे नाकाफी हैं इस अस्पृश्यता के ज़हर को कम करने के लिए। वस्तुतः उच्च होने का भारतीय समाज के सवर्ण वर्ग मेें जो कूट-कूट कर भरा हुआ है, उस अहं का दम्भ उसे इस अस्पृश्यता मानसिकता से उबरने नहीं देता। आज जिस कदर जातीय दम्भ हमारे समाज में व्याप्त है, वह उस अस्पृश्यता को पीढ़ी-दर-पीढ़ी पोषित और पल्लवित करने के लिए काफी है। इसीलिए तुम्हारे बाबा ने/प्याले में भर दिया जातीय दम्भ/और तुम्हारे पिता ने/उसे दूध की तरह/पी लिया!/तुम्हारे पिता ने/प्याले में भर दिया जातीय दम्भ/और तुमने/उसे रूहअफ़जा की तरह/पी लिया/और अब तुमने/प्याले में भर दिया जातीय दम्भ/और तुम्हारा बेटा/उसे शराब की तरह पी रहा है! 
आर्थिक और सांस्कृतिक मजबूतीे से अपना प्रभाव दिखाने वाले उच्च वर्णों के सामने यह दलित वर्ग दब जाता है। उनमें समाज के घातक प्रथाओं के विरोध करने की हिम्मत नहीं होती। वे लोग इस अंधविश्वास में रहते हैं कि छोटे-बड़े भगवान के घर में बनकर आते हैं। फलस्वरूप रीति-रिवाजों के पालन में कई लोग कष्ट झेलते रहते हैं। दबंग की दबंगई से हमेशा डरते हैं, लेकिन यह वास्तविक है कि आज भारतीय ग्रामीण परिवेश में जिस कदर राजनीति का दबंगईकरण हो गया है उससे तो ऐसा लगता है कि दबंग जब चुनाव जीतेगा/बंदूक चलाएगा/गोलियों पर गोलियॉं चलाएगा/खुषियॉं मनाएगा/कोई मरे/उसकी बला से/.....दबंग जब चुनाव हारेगा/वह भी किसी दलित से/दबंग बंदूक चलाएगा/गोलियों पर गोलियॉं चलाएगा/हारने वाले को सबक सिखाएगा। 
कविता संग्रह की कविताएँ दलितीय आत्म-दुःखबोध से भरी कविताएँ हैं, उसमें इतिहास है उस परम्परा का जिसमें एक सामान्य आदमी किस तरह अपनी अन्त्यजीय भूमिका में आ जाता है, किस तरह वह अस्पृश्यता के कुचक्र में फॅंस जाता है, किसी का भला करने के चक्कर में। और फिर उस चक्रव्यूह में वह इस तरह फॅंस जाता है कि वह उससे कभी उबर ही नहीं पाता। वह छुआ-छूत के इस गहरे दलदल में धॅंसता ही चला जाता है, क्यों कि जिसका उद्धार किया गया वह नहीं चाहता है कि उद्धारक फिर कभी उठे। इस पुरावृत्तीय भूमिका को इस संग्रह की एक कविता ‘घोड़ा बनने की भूल‘ में बखूबी बताया गया है-उस दिन पथ में बड़ी दलदल थी/और हमारा रथ दलदल में/बुरी तरह फॅंसा था/हमने तुम्हें लगाम सौंपी/और खुद हम सब/आदमी से घोड़ा बन गए थे।/रथ को खींचने में/हमारी गर्दनें छिल गई थीं/और आज यह सूखी-सख्त चमड़ी/गवाह है/कि हम सचमुच आदमी से घोड़ा बन गए थे।/बा मशक्कत, बा मुश्किल/ रथ दलदल से निकल/जब डामर की पक्की और चौड़ी/सड़क पर आया तो हमने सोचा/कि अब तो सड़क पक्की है/डामर की है/और चौड़ी भी है/तो फिर हम भी अपने को/
क्यों न समझना शुरू करें आदमी !/लेकिन इससे पहले/कि हममें से कुछ लोग/अपने को आदमी समझते/तुम चाबुक चटकाने लगे/कुछ ऐसे/जैसे हम आदमी नहीं/सचमुच घोड़े ही थे। दलित समाज को हर स्तर पर संघर्ष करना पड़ता है............ब्लाटिंग पेपर/जिस तरह सोख लेता है/स्याही की तरलता का/उसी तरह अस्पृश्य भाव ने/मानव का स्वाभिमान को सोख लिया।..............ऐसे स्वाभिमान शून्य ‘बहिष्कृत भारत‘ के/‘मूक नायक‘ के लिए तुम्हारा संघर्ष:/पानी के लिए संघर्ष/ज्ञान के लिए संघर्ष/दर्शन के लिए संघर्ष/आच्छादन के लिए संघर्ष/भीतर संघर्ष/बाहर संघर्ष/संघर्ष ही तुम्हारे जीवन का/बन गया स्थायी भाव/सौ अभावों के बीच/बस यही भाव!
भारत के आधुनिक समाज की यह विडम्बना ही कही जाएगी कि लोकतांत्रिक विचारों और मूल्यों तथा समानता और भाईचारे के प्रचार-प्रसार के बावजूद जातिगत भेदभाव एवं छुआछूत जैसी बीमारियॉं हमारे समाज का अपरिहार्य अंग बनी हुई है। प्रगतिशील और जनवादी विचारों और मूल्यों का समर्थन करने वाले लोग भी अपने जातिवादी संस्कारों का मोह नहीं त्याग पा रहे हैं। लेकिन सेक्स के मामले में कुछ छलिए सवर्ण समाज के लोग अपनेे जातिवादी चेहरे को छुपा लेते हैं या स्थगित कर देते हैं और यौन-वृत्ति के बाद पुनः ब्राह्मणवादी संस्कारों के खोल में लौट जाते हैं। इसीलिए इस संग्रह की एक रचना भारत की प्रजा और उसके प्रजातंत्र को धिक्कारती हैं। उस मानसी प्रवृत्ति को धिक्कारती है जो औरत की अस्मत को सिर्फ अपने भोग विलास की चीज समझते हैं, और उसे सरेराह लूट लेते हैं, उसे लज्जित करने का प्रयास करते हैं, इसीलिए कवि कहता है कि गन्ने के खेत में/रेत-रेत होती/औरतों की अस्तमत!/भारत के लस्टम-पस्टम प्रजातंत्र/तू धन्य है, तुझे धिक्कार है!/दरिन्दो जाओ/अपनी पत्नियों से जाकर/अपनी इस मर्दानगी का/बखान करो/देखो, उनकी ऑंखों में/तुम्हारा महिमामण्डित देवत्व/आज खण्डित है/तुम्हारे बच्चे/तुम्हें पिता नहीं/पिशाच समझेंगे।
जातिप्रथा नामक कलंक के कारण ही दलित वर्ग जीवन की महत्वपूर्ण सुविधाओं और आवष्यकताओं से वंचित रहा है। जीवन जीने की असुविधाओं ने इस वर्ग को हीन भावना से ग्रसित कर दिया है। जिससे वह उभरना चाहते हुए भी उभर नहीं पा रहा है। दलितों का हर जगह समाज में अनादर ही होता रहा है। यहॉं तक कि देहात में तो उनकी स्थिति और भी बद्तर है। उनको दो जून की रोटी पेट भरने तक के लिए मयस्सर नहीं है। इसलिए मेरे हाथ में मेरी भूख है/लेकिन रोटी नहीं,/मेरे हाथ में नंगापन है/लेकिन लंगोटी नहीं/मेरे हाथ में मेरी जहालत है/लेकिन नहीं किताब/मेरे इन सवालों का मॉंगे कौन जवाब? इस स्थिति को तभी समझा जा सकता है जब वह दर्द हमने भोगा हो। क्यों कि वगैर भोगे दलित वर्ग के प्रति वह संवेदना लाना थोड़ा मुश्किल है, कहते हैं न घायल की गति घायल जाने। दीपक जी के इस संग्रह का दलित इस वर्ग वैषम्य की पराकाष्ठा की वजह से ही सवर्ण वर्ग और षोषक वर्ग को कहता है कि ‘तू अछूत बनकर देख......../तू अछूत बनकर देखेगा/देखेगा तो देगा दिखाई/बार-बार/तेरे मुख से उच्चरित/‘वसुधैव कुटुम्बकम‘ का नारा/नौटंकी का खेल/जा, अपने घर जा/अपने चार बच्चों में से किसी एक बच्चे के माथे पर/काला टीका लगा,/उसका नाम ‘बुद्धू‘ रख, उसे बात-बात पर दुत्कार,/उसे ‘कमीन‘ कहकर पुकार/साधन-सुविधाओं के बॅंटवारे में/गैर-बराबरी का उसके साथ/करके बरताव देख/फिर अपने उस बच्चे का ताव देख!‘
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि दीपक जी का यह संग्रह दलित समाज को वैचारिक आधार पर संगठित करके सामन्ती ब्राह्मणी शोषण, उत्पीड़न और जातिगत भेदभाव से मुक्ति के लिए संघर्ष की प्रेरणा देता है। उनके इस संग्रह की कविताएँ दलित समुदाय से जुड़कर उनके साथ आत्मीय संबंध बनाकर और उनसे मिले जीवनानुभवों को पकड़कर रचनात्मक स्तर तक ले जाने में पूर्णतया कामयाब हुई हैं। उनकी समस्याएँ पाठकों को आश्वस्त करती नजर आती हैं। इस संग्रह की कविताँ दलित की समस्याओं को, उनके विभिन्न पक्षों को, विविध आयामों में अभिव्यक्त करने की ईमानदार कोशिश है। साथ ही विषम राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक परिवेश में दलित, शोषित निम्नवर्ग एवं उपेक्षित वर्ग की शोषणजन्य पीड़ा तथा शोषण मुक्ति के हेतु उनमें प्रस्फुटित संघर्षशील दलित चेतना की अभिव्यक्ति दीपक जी के इस संग्रह में बखूबी देखी जा सकती है। बेगार के विरूद्ध समय-समय पर दलित वर्ग में जो प्रतिक्रियाएँ हुई उनका प्रतिबिंब भी उनके संग्रह में प्रतिबिम्बित होता है। इसमें दलितों के प्रति अपनी सहानुभूति ही नहीं व्यक्त की गई है अपितु उनके प्रति आक्रोश भी व्यक्त किया गया है। इसमें सर्वण मानसिकता और दलित मनः स्थिति के मूल मर्म और गर्हीत प्रभाव को समझकर उसे उसकी ही जमीन पर धराशायी किया है।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि दीपक जी का यह संग्रह दलित समाज को वैचारिक आधार पर संगठित करके सामन्ती ब्राह्मणी शोषण, उत्पीड़न और जातिगत भेदभाव से मुक्ति के लिए संघर्ष की प्रेरणा देता है। उनके इस संग्रह की कविताएँ दलित समुदाय से जुड़कर उनके साथ आत्मीय संबंध बनाकर और उनसे मिले जीवनानुभवों को पकड़कर रचनात्मक स्तर तक ले जाने में पूर्णतया कामयाब हुई हैं। उनकी समस्याएँ पाठकों को आश्वस्त करती नजर आती हैं। इस संग्रह की कविताएँ दलित की समस्याओं को, उनके विभिन्न पक्षों को, विविध आयामों में अभिव्यक्त करने की ईमानदार कोशिश है। साथ ही विषम राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक परिवेश में दलित, शोषित निम्नवर्ग एवं उपेक्षित वर्ग की शोषणजन्य पीड़ा तथा शोषण मुक्ति के हेतु उनमें प्रस्फुटित संघर्षशील दलित चेतना की अभिव्यक्ति दीपक जी के इस संग्रह में बखूबी देखी जा सकती है। बेगार के विरूद्ध समय-समय पर दलित वर्ग में जो प्रतिक्रियाएँ हुई उनका प्रतिबिंब भी उनके संग्रह में प्रतिबिम्बित होता है। इसमें दलितों के प्रति अपनी सहानुभूति ही नहीं व्यक्त की गई है अपितु उनके प्रति आक्रोश भी व्यक्त किया गया है। इसमें सर्वण मानसिकता और दलित मनः स्थिति के मूल मर्म और गर्हीत प्रभाव को समझकर उसे उसकी ही जमीन पर धराशायी किया है।
इस संग्रह की कविताओं में श्रमशील मानवता का चित्रण है। इस संग्रह के माध्यम से दीपक जी वर्ग वैषम्य, संघर्ष और दबाव तथा मूल्यों के हृास का अहसास तीव्रता से कराया है, और अपने रचनात्मक चिंतन द्वारा जीवन निर्माण के लक्ष्य को व्यंजित किया है। नव निर्माण के प्रति अपनी सजगता को ध्वनित किया हैं, उनकी कविताएँ जीवन के इतिहास को भोगे हुए यथार्थ के रूप में प्रस्तुत करने में सफल हुई हैं।
स्वानुभूति की प्रगाढ़ता, मार्मिक मानवीय संवेदन और दारुण त्रासदी की नंगी सच्चाईयों के सम्मुचय से अनुस्यूत इस संग्रह को ऑंखों देखा वृतांत भी कह सकते है, स्मृतियों का कोलाज कुछ भी कह सकते हैं, लेकिन भोग्यमान भयावह यथार्थ से इंकार नहीं कर सकते। अभी तक आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की बात की जाती थी, लेकिन दीपक जी के इस संग्रह की कविताएँ यथार्थोन्मुख आदर्शवादी स्वरूप लिए आत्मालाप और संवाद की कविताएँ हैं, जिसमें वास्तविकता और व्यावहारिकता का भी ध्यान भी रखा गया है।
यह संग्रह भाव-पक्ष और कला-पक्ष दोनों ही दृष्टियों से नयापन लिए हुए है। विषय-वस्तु बेहद रोचक है और षैली अत्यंत प्रभावशाली
देवेन्द्र दीपक सदैव से ही प्रयोगधर्मी रचनाकार रहे हैं। हर बार उनकी रचनाएँ पाठक को चकित करने की मंशा के साथ प्रकाशित होती रही हैं। यह संग्रह पाठक को बिल्कुल ही एक नए जगत में ले जाता है। इस संग्रह की कविताओं में गहन अन्तर्वेदना है, भावों के ज्वार के पीछे विचारों की गहनता है तथा कोरी भावुकता के स्थान पर गंभीर बौद्धिकता है। उन्होंने यथार्थ को विश्लेषित करने और शोषण के आतंक को साक्षात करने के लिए रहस्यमय और भय की पद्धति न अपनाते हुए उसमें अपनी सामाजिक-राजनीतिक समझ को आद्यन्त कायम रखा है। उनका यह संग्रह चुनौतियों, सवालों और समस्याओं से भरा हुआ है। उनकी कविताओं में नाटकीय तत्वों का समावेश उनकी प्रमुख विशेषता है।
वस्तुतः इस संग्रह से उम्मीद बंधती है कि दलितों की आवाज को जनमानस तक न केवल पहुॅंचाने बल्कि समाज के सभी वर्गों में अस्पृशीय मानसिकता को बदलने में कामयाब होगा, एवं दलित साहित्य के क्षेत्र में भी इसका पर्याप्त आदर और सम्मान होगा।
संग्रह का नाम-मेरी इतनी-सी बात सुनो
रचयिता-डॉ. देवेन्द्र दीपक
प्रकाशक-इन्द्रप्रस्थ प्रकाशन, दिल्ली
संस्करण-प्रथम, 2016
मूल्य-200

समीक्षक का पता-                  कवि का पता-
डॉ. भूपेन्द्र हरदेनिया               डॉ. देवेन्द्र दीपक           
चरोरे पाड़ा, बड़ा बाजार         डी-15, शालीमार गार्डन,
तहसील रोड़, सबलगढ़           कोलार रोड़, भोपाल, म.प्र.
जिला मुरैना, मध्यप्रदेश              पिन-462042
पिन-476229

इबादत खाना

वे स्थान
जहाँ पूजते,
करते रहे इबादत उसकी
कई अर्से से, 
भय मुक्त होकर|

उस भरोसे से
कि वह रहता है वहीं
मिलेगा भी उसी जगह,
माँगते रहे
कुछ न कुछ|

भयातुर हो
टपक गया भ्रम,
पतझर के पत्तों के माफ़िक|

आस्था-विश्वास के साथ
अब वो घर में ही है
हमारे पास,
और हम जीने लगे
यथार्थ में|

-डाॅ. भूपेन्द्र हरदेनिया

भैया मैं तो चुनाव लडूँगा

भैया मैं तो चुनाव लडूँगा,
जनता मरती है  तो मरती रहे
अपना उल्लू सीधा कर
हर बात पर अडूँगा,
भैया मैं तो चुनाव लडूँगा|

मौका मिला है पहली बार
नहीं करना पडे़गा प्रचार
वेब कैम और मीडिया पर ही
सबसे मुखा़तिब होऊँगा
भैया मैं तो चुनाव लडूँगा|

लाॅकडाउन से आर्थिक हानि
अनलाॅक से तिजोरी भरनी|
नहीं हुए ठेके तो, कैसे चलेंगे काम
कमीशन से ही तो मैं बनूँगा
भैया मैं तो चुनाव लडूँगा|

गाँवों मैं मरी पडी़ है,
पर मुझे अपनी पडी़ है
बीमारी के बहाने
नित आपके दर्शन का,
सौभाग्य प्राप्त करूँगा
भैया मैं तो चुनाव लडूँगा|

जनता पगली भोली भाली
हर बात वो मानने वाली
करे विश्वास जैसे घरवाली 
गरीब की गाय वो बेचारी
जैसे चाहूँ वैसे हाकूँगा
भैया मैं तो चुनाव लडूँगा

बात-बतोले करना जाने
मौके को हरदम पहचाने
घोषणावीर हूँ सब पहचाने
एम. बी.ए.  का बापू बनकर
फिर सपने बेचूँगा
भैया मैं तो चुनाव लडूँगा|

मुझे कुर्सी जान से प्यारी
देश की जनता गरीब बेचारी
लाक-अनलाक सबसे हारी
चुनाव नतीजे आते ही
फिर लाकडाउन करूँगा
भैया मैं तो चुनाव लडूँगा|

डाॅ. भूपेन्द्र हरदेनिया
चित्र-साभार गूगल

प्रेम का सलीका

कुछ दिनों से
अमुवा के तले 
मैं देख रहा हूँ बैठा
कि तोते अक्सर
कैरियाँ खाने की ख़्वाहिश से ,
बैठते हैं उसकी पतली 
लटकनों पर,
और चोंच गढा़ते ही 
टपक जाती हैं 
अपने भार से वे
उन्हें सम्भाला नहीं जा सका
गिरकर फट जाती हैं,
भोग की वस्तु नहीं होता प्रेम
वह चाहता है सलीक़ा
स्वार्थ कहाँ पलता है उसमें|

-डाॅ. भूपेन्द्र हरदेनिया

समझदार की हत्या

अक्लमंदी 
समझदारी
होशियारी
ये वे शब्द हैं
जिनके नाम पर
लोगों को
हमेशा से ही ठगा गया है,
बनाया गया है बेवकूफ | 
मूर्ख
भी करते हैं, अक्सर होशियारी 
पर नहीं समझते 
अपनी होशियार हरकतों से
समझदार की हत्या 
कर देते हैं, वे|
डाॅ. भूपेन्द्र हरदेनिया
चित्र साभार - प्रतिलिपि डाट काम

शनिवार, 6 जून 2020

पाँच दोहे प्रेम के

प्रेमन धागा सूत का, खींचत रह  दिन रैन
दोउ और से बच सके, एकै टूटे बैन

प्रेम धागा दोउन का, गुण व दोष सब संग
जो दोषन देखन फिरै, प्रेम नहि बाके ढिंग|

राग द्वेष जो ले फिरे, प्रेम न मिल्यो बाय|
छल कपट ते न मिल सके, प्रेम न हाट बिकाय||

तन काँचा मन न साँचा, मन को रूप कुरूप,
कपट कुचाल की मति से, प्रेम न मिलिये भूप|

मैं और तू मिलके ही, होवत प्रेम अगाध
मेरे तेरे ते करत, बिगरत सबरो राग|

बुधवार, 3 जून 2020

बिटिया रानी

बिटिया रानी, बडी़ सयानी
कहने को वो छोटी मुन्नी,
फितरत जैसे, दादी नानी
सब पर लाड़, सब पर गुस्सा
घर में जैसी गौरैया रानी|
वात्सल्य, प्रेम उढे़लती ऐसे
जैसे टिप टिप बरस रहा हो पानी
शरारतों में सबसे आगे,
सहपरिवार सबने मानी
वाकचातुर्य में वो अव्वल, 
याद दिलादे सबको नानी|
भॅंवरे की तरह इधर उधर
धीरे चलना कभी न जानी
भाव, कुभाव समझती सब कुछ
मन निश्छल है, मधुर वाणी
फैशन पाउडर, अभी से लाली,
कानों में पहने है बाली|
बात बात में मोहित करती
ऐसी हमारी बिटिया रानी|-भूपेन्द्र हरदेनिया

रविवार, 31 मई 2020

वास्तु और दोष

घर वास्तु का 
बनवाकर पूजास्थली
कलुषित, कुंठित, कलंकित 
मन में आराधना का भाव न हो 
तो क्या कीजिएगा?

सौर, कॉस्मिक, तापीय, 
चुंबकीय, प्रकाशीय 
और न जाने कौन-कौन सी 
ऊर्जा पर आधारित होता है यह वास्तु
सारी ऊर्जाएँ देती शांति, समृद्धि और सफलता,
ऐसा माना जाता रहा अक्सर इसमें
पर जिंदगी में ज़हर घुला हो
तो क्या कीजिएगा?

गृह निर्माण के पहले
की जाती है पृथ्वी की पूजा
लेकिन फिर भी हम उसे मॉं न मानें 
करते जाएँ उसका दोहन 
तो क्या कीजिएगा?

कमरों में कोणों, लंबाई, चौड़ाई का 
रखा जाता है विशेष ध्यान
लेकिन मन के कोंण बिगड़े,
दिल छोटा हो तो 
क्या कीजिएगा?

कहा जाता है
मिलता सुकून
प्रत्येक कक्ष, दरवाजों के निर्माण में
अगर रखा जाए 
दिशाओं का विशेष ध्यान,
घर पर मांगलिक चिन्हों
का कर प्रयोग,
खुद लिप्त होकर
अमांगलिक कार्यों में,
जीवन की दिशा भटके हों 
तो क्या कीजिएगा?

शौचालय और स्नानघर 
स्वच्छ, वास्तु अनुसार।
मन में मैल, घर के बाहर गंदगी
तो क्या कीजिएगा?

होना चाहिए 
जीवन का लक्ष्य 
मजबूत, वास्तुदोष मुक्त घर 
लेकिन हम कमजोर, भयग्रस्त
या कई मानवीय दोषों से युक्त हों 
तो क्या कीजिएगा?

गुरुवार, 28 मई 2020

मुरैना जिले की लोक देवियॉं-मत, मान्यता और परम्परा


संक्षेपिका-मानव की सांस्कृतिक क्षमता का रहस्य उसकी जैविक रचना में निहित है। जब किसी संस्कृति के आधारभूत मूल्य किसी समाज के बहुसंख्यक वर्ग को प्रेरित करना बन्द कर देते हैं, तो क्रमश: संस्कृति का अवसान हो जाता है, लेकिन अगर ये मूल्य एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक संवाहित होते रहते हैं, तो संस्कृति वैयक्तिक संवृद्धि का साधन तो बनी ही रहती है, यह सामाजिक व्यवस्था को जीवंतता भी प्रदान करती रहती है। यह बड़े गर्व की बात है कि पौरस्त्य संस्कृति का अस्तित्व अभी भी यथावत बरकरार है, क्योंकि आज भी इसके मूलभूत मूल्यों को समाज की स्वीकृति प्राप्त है, लेकिन अधुनातन भारतीय संदर्भ में अगर लोक संस्कृति की बात की जाए तो यह धीरे-धीरे विलुप्ती की कगार की ओर अग्रसर है। हमारे चारों ओर पनपते जा रहे भौतिक एवं पाष्चात्य सभ्यता के वातावरण के कारणवह क्षीण होती जा रही है । इस समय ऐसे षोधकार्यों की महती आवष्यकता जो भारतीय संस्कृति में उपस्थित लोक जीवन की संस्कृति को उजागर कर सके और उसे संरक्षित कर सके। ताकि उन्हें हम अपनी आगामी पीढ़ी के लिए सुरक्षित कर पाएॅं। 
भारतीय संस्कृति में पर्वों, परम्पराओं, देवताओं, देवियों की प्राचीन मान्यताओं, अनुष्ठानों की एक अपनी महत्ता है। इसमें देवीय मान्यताओं को लोक में अपनाना या उसका अनवरत प्रवाह होना भारतीय संस्कृति का अध्यात्मिक पक्ष है। लोक देवी-देवताओं के प्रति हमारी धार्मिक आस्था जो प्राचीन मान्यताओं के आवरण में अपने को लपेटे हुए होती है, वही उस लोक के जनमानस में एक सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न करती है। कुछ ऐसे स्थान होते जहॉं पहुॅंचकर मनुष्य अपनी सतत् आपाधापी की जिंदगी में कुछ समय के लिए राहत महसूस करता है। इसे हम यॅू भी कह सकते हैं कि धार्मिक आस्थाएॅं, मान्यताएॅं और विष्वास, चिलचिलाते धूप भरे रास्ते पर बीच-बीच में लगे एक छायादार वट वृक्ष हैं। जो कि उसके स्मरण मात्र से परेशान हारे थके राहगीर को कुछ समय के लिए आराम प्रदान करता है, शुकून देता है और नकारात्मक ऊर्जा को डायनामों की भॉंति सकारात्मक ऊर्जा में परिवर्तित कर व्यक्ति को आत्मविश्वास से आपूरित कर देता है। मैं इस लेख के अंतर्गत जो प्रस्तुत करने जा रहा हूॅं, वह विशाल भारतीय संस्कृति सागर की एक बॅूंद के बराबर है, लेकिन उसकी अपनी एक उपादेयता है, क्योंकि कंुभ में जाने वाली एक-एक बॅूंद उस कुंभ को पानी से सराबोर कर देती है। हमारे देश में लोक देवियों की कई मान्यताएॅं प्रचलित हैं, जो कि जनकल्याण से जुड़ी हुई हैं। मुरैना जिले मंे भी कई लोक देवियों सम्बन्धी जन-मान्यताएॅं हैं, जो कि यहॉं की संस्कृति का अभिन्न अंग हैं। आइए जाने मुरैना जिले की लोक देवियों और उनसे सम्बन्धित प्राचीन मान्यताओं के बारे में)-
     जिला मुरैना अपनी चंबल क्षेत्रीय संस्कृति, ऐतिहासिकता और लोक परम्परा के कारण सर्वप्रसिद्ध है। कहा जाता है कि महान स्वतंत्रता सेनानी रामप्रसाद विस्मिल का भी जन्म तोमर वंष के अंतर्गत मुरैना जिले के एक छोटे से गॉंव वरवई में हुआ था। इसके अलावा इस जिले की एक तहसील अंबाह में स्थापित शैव (ककनमठ) मंदिर, जिसे शनि की जन्मस्थली भी कहा जाता है। अपनी ऐतिहासिकता, अर्वाचीनता और पुरातात्त्विक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
     चंबल क्षेत्रीय भू-भाग मुरैना ब्रज क्षेत्र के अलावा बुंदेलखण्ड तथा राजस्थान से भी प्र्रभाव ग्रहण किए हुए है। जिसके कारण इस अंचल विषेष की भाषा न तो षुद्ध बंुदेली ही है और न ही शुद्ध ब्रजी तथा राजस्थानी। ब्रज क्षेत्र के संपर्क में ज्यादा होने के कारण हम यहॉं की भाषा बुंदेली मिश्रित ब्रजी भी कह सकते हैं। इस भाषा के रूप की झलक मुरैना के लोक देवियों सम्बन्धी पर्व, उनके अनुष्ठानों और मान्यताओं में स्पष्ट दिखाई देती है। मुरैना जिले में कई प्रमुख लोक देवियॉं हैं-माता बहरारे वाली, माता निरारे वाली माता बसैया, सेढ़ वाली,  जलालगढ़ वाली माता, जवाहरगढ़वाली माता,  डंगैयावाली, लोक देवी सांझी आदि। इनमें से कुछ देवियों का संक्षिप्त परिचय हम यहॉं प्रस्तुत कर रहे हैं-
1-माता बहरारे वाली:-
इन पौरत्स्य चिंतन में आदि शक्ति की आराधना का विधान है, और प्रत्येक देवी की कोई न कोई लोक मान्यताएॅं और दन्तकथाएॅं प्रचलित होती हैं। महाभारत काल से जुड़ी हुई कुछ ऐसी ही कहानी है बहरारे वाली माता की। भारत में यूॅं तो माता के कई प्राचीन मंदिर हैं लेकिन पहाड़गढ़ के जंगलों में मॉं बहरारे वाली माता विराजमान है। नवरात्र के दिनों में मॉं बहरारे की मूर्ति रोज बड़ा रूप धारण करती है और नवमी के दिन मॉं की मूर्ति गर्भ गुभा से बाहर आ जाती है। बहरारे वाली माता के मंदिर के बारे में कहा जाता है कि यहॉं पांडवों ने अज्ञातवाष के दौरान अपनी कुलदेवी की पूजा की थी और इस पूजा के दौरान कुलदेवी एक विशाल शिला में समा गई थीं। उस शिला को कई बार स्थानीय लोगों ने मूर्ति रूप देने का प्रयास किया लेकिन सभी कोशिशे बेकार साबित हुईं बताया जाता है कि यहॉं माता को पांडव लाये थे और माता की प्रतिष्ठा कराई थी। उस वक्त यहॉं बहुत घना जंगल था और दूर-दरे तक कोई भी नहीं रहता था। उसके बाद संवत 1152 में बिहारी ने बहरारा बसाया था। तदुपरांत संवत 1621 में खांडेराव भगत ने बहरारा माता के मंदिर का निर्माण कराया था। तब से लेकर आज तक मंदिर परिसर को श्रद्धालुओं के सहयोग से विकसित किया गया और हर नवरात्रि पर मेला और भक्तों का तांता लगा रहता है।
बताया जाता है कि पांडवों की पूजा के बाद प्रसन्न हुई कुलदेवी ने अर्जुन से यथेच्छ वर मॉंगा। कुलदेवी ने अर्जुन से कहा कि हे अर्जुन, मैं तुम्हारी भक्ति और पूजा से खुश हॅूं। बताओ तुम्हें क्या वरदान चाहिए। तब अर्जुन ने कहा हे मॉं, मुझे आपसे वरदान में ज्यादा कुछ नहीं चाहिए, न ही मैंने आपकी पूजा किसी वरदान के लिए की है। मेरी तो बस ये इच्छा है कि समय और नीति के अनुसार हम पांॅच भाइयों को 12 वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास का समय व्यतीत करना है, इसलिए मैं चाहता हॅॅं कि आप प्रसन्नता पूर्वक मेरे साथ चलें। तब कुलदेवी ने कहा कि हे अर्जुन मैं तुम्हारी भक्ति से बहुत खुश हूॅं।.....तुम मेरे कृपापत्र बन गए हो, मैं चाहते हुए भी तुम्हें मना नहीं कर सकती, अर्जुन मैं तुम्हारे साथ चलने के लिए तैयार हॅूं पर मेरी एक शर्त है कि तुम आगे चलोगे और मैं पीछे। जहॉं भी तुमने मुझे पीछे मुड़कर देखा मैं वहीं पर स्थाई रूप से विराजित हो जाऊॅंगी। अर्जुन ने अपनी कुल देवी की बात मान ली और वह आगे-आगे चल दिया। काफी समय चलने के बाद जब अर्जुन जंगलों के रास्ते से गुजरते हुए विराट नगरी पहुॅंचे तो उन्हें लगा कि देख लॅूं कि कुल देवी कहीं पीछे तो नहीं रह गई। तभी अर्जुन ने पीछे मुड़कर देख लिया।। अर्जुन के पीछे मुड़ते ही हस्तिनापुर से पीछे-पीछे चल रही कुलदेवी एक शिला में प्रवेश कर गई। तब अर्जुन को कुलदेवी को दिया हुआ वचन याद आया। अर्जुन ने बार-बार कुलदेवी से विनती की लेकिन कुलदेवी ने कहा, अर्जुन अब मैं यही पर इस शिला के रूप में ही रहॅूंगी। तब से आज तक पांडवों की कुल देवी आज भी शिला के रूप में ही पूजी जाती है।
 
                                   माता बहरारे वाली, पहाड़गढ़ 
माता के चरणों में है कभी न सूखने वाला जलकुंड-मुरैना से लगभग 70 किलोमीटर की दूरी एवं कैलारस से लगभग 20 किलोमीटर दूरी पर माता बहरारे का मंदिर स्थित है। यहॉं प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में श्रद्धालू माता के दर्षन करने आते हैं। बहरारे वाली माता मंदिर से लोगों की अटूट श्रद्धा और आस्था जुड़ी हुई है मंदिर में माता के चरणों में जल कुंड है। इसका जल कभी भी नहीं सूखता है। इस जल को ग्रहण करने वालों की मनोकामना पूर्ण होती है और सारे रोग दोष क्लेश नष्ट हो जाते हैं। इसे जनकल्याण की देवी कहा जाता है। ऐसा भी माना जाता है कि इसके जल सेवन से चेचक जैसा असाध्य रोग भी ठीक हो जाता है। 

2-माता निरारे वाली:-
मुरैना जिले की जौरा तहसील की लोक देवी अंतर्गत आने वाली निरारे वाली माता के बारे में भी कई लोक मान्यताएॅं प्रचलित हैं। सर्वप्रचलित मान्यता के अनुसार इसे नेत्र की देवी कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि इसके दर्शन मात्र से असाध्य से असाध्य नेत्र रोग ठीक हो जाता है। निरार माता पर प्रतिवर्ष वैषाख माह की चतुर्थी से मेला भी शुरू होता है। जिसका आयोजन नवमी तक किया जाता है। माता के दर्शन के लिए प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु दर्शन के लिए पहुॅंचते हैं। यह जौरा से लगभग 20 किलोमीटर की दूर जंगलों में निरार माता विराजमान है।
 
                            माता निरारे वाली, जौंरा


अ. तेंदूफल का स्वाद चखते हैं लोग-
तेंदूफल का स्वाद आमतौर पर लोग नहीं चख पाते हैं। सिर्फ निरार माता का मेला ही ऐसा स्थान है जहॉं लोग इस फल का स्वाद चख पाते हैं। जंगली इलाकों में पैदा होने वाली यह गहरे पीले रंग का फल आकार व स्वाद में चीकू की तरह होता है और बाजार में उपलब्ध नहीं होता, लेकिन निरार मेले में आसपास के ग्रामीण जंगलों से इन्हें लाकर यहॉं बेचते हैं।
ब. मंदिर परिसर में नृत्य कर मॉं की कृपा का पात्र बनते हैं श्रद्धालु-
निरार माता के दरबार में ज्यादातर श्रद्धालु नृत्य करते हैं चाहे कुछ देर के लिए ही करें। ऐसा मानना है कि मैया के दरबार में नृत्य करने से मॉं की कृपा बरसती है। इसलिए महिलाएॅं तो अधिकांश नृत्य करती हैं। नगाड़े व ढोल वाले मैया के दरबार में मेले के समय उपस्थित रहते हैं। ढोल-नगाड़े वालों को नृत्य करने वाली महिला के परिवारजन न्यौछावर करते हैं।

स. नेजा चढ़ाने और कनकदंडवत देने की प्रथा-
निरार माता के दरबार में लोगों की मुराद पूरी होने पर नेजा चढ़ाए जाते जाते हैं और कनकदंडवत देकर मैया आषीर्वाद प्राप्त किया जाता है।
3-माता बसैया:-
माता बसैया मन्दिर मुरैना जिले का प्राचीन ऐतिहासिक व लोक प्रसिद्ध मंदिर है। प्रतिवर्ष 15 से 16 लाख श्रद्धालु यहॉं आते हैं। यहॉं प्रसिद्ध दक्षिण काली के एवं मॉं चामुण्डा के अद्भुत विग्रह हैं। लोगों में इसके प्रति भक्तिभाव व श्रद्धा के साथ काम्य सिद्धि भी काफी है।
 

4-सेढ़ वाली माता:-
यह सम्पूर्ण मुरैना जिले और विशेष तौर पर सबलगढ़ अंचल में पूजी जाने वाली लोक देवी है। सबलगढ़ अंचल में नव विवाहित बहू को सबसे पहले सेढ़ वाली माता के ही दर्षन कराए जाते हैं, नवदुर्गा महोत्सव के दौरान महिलाओं द्वारा नौं दिल जल चढ़ाने का विधान है।
5-सॉंझी:-
   पौरस्त्य संस्कृति अर्वाचीन और विविध आयामी है, और इन आयामों मेें से एक आयाम है, पौरस्त्य संस्कृति के पर्व। इन पर्वों में कुछ लोक बाल पर्व भी आते हैं, जैसे-सॉंझी, टेसू और झॉझी। यह पर्व आंचलिकता, परम्परा, मनोरंजन, ऐतिहासिकता, लोक चित्र शैली और आध्यात्मिकता की दृष्टि से तो अति महत्त्वपूर्ण हैं ही, साथ ही ये पर्व भारतीय लोक-पर्वों के एक अंग के रूप में स्थापित हैं, जिनसे तत्कालीन समाज और संस्कृति के साथ-साथ पुरावृत्तीयता और पुरातनता की झॉंकी हमारे सम्मुख प्रस्तुत होती है।  भारत का केन्द्र बिन्दु मध्यप्रदेश पौरस्त्य संस्कृति के विविध फलकों को अपने में सजाए हुए है, जिनमें से एक फलक लोक बाल पर्व रूप भी हैं। इन पर्वों में मुरैना की सॉंझी एक प्रमुख लोक बाल पर्व है। सॉंझी बालिकाओं की प्रतीकात्मक लोक देवी है।
               
     बलिकाओं द्वारा मनाये जाने वाले इस पर्व (सॉंझी) का नामकरण सायंकालीन बेला में मनाये जाने के कारण ‘सॉंझी‘ (मालवा मेें संजा) हुआ।
     मुरैना अंचल में बालिकाएॅं दीवार पर गोबर से सॉंझी का चित्रांकन करती हैं। प्रचलित पारम्परिक मान्यताओं के अनुसार सॉंझी लोक देवी आदिशक्ति पार्वती का ही एक प्रतीक रूप है। सॉंझी के पूजन में मुख्यतः कन्याएॅं सुन्दर वर, चिर सौभाग्य, सुखी दाम्पत्य जीवन के अलावा पारिवारिक सदस्यों की सुख-शांति की कामना भी करती हैं।
     मुरैना में सॉंझी के निर्माण और इस पर्व को मनाने की प्रक्रिया श्राद्धारम्भ के प्रारंभ दिवस भाद्रपक्ष शुक्ल पूर्णिमा से शुरू होती है। जिसका प्रतिदिन नवीन रूप में चित्रांकन किया जाता है। यह पर्व पंद्रह दिन तक सतत् रूप से मनाया जाता है। जिसमें विविध लोकगीतों के माध्यम से सॉंझी की आरती, बधाई, प्रशसा आदि बालिकाओं द्वारा की जाती है, जिसमें मनोकामना की भावना भी निहित रहती है।
     मुरैना के लोकबाल पर्व सॉंझी के प्रथम दिन ‘पंचगुटा‘ का चित्र बनाया जाता है। यह ‘पंचगुटा‘ एक ऑंचलिक खेल चौपड़ का प्रतीक है, लेकिन फिर भी ‘पंचगुटा‘ को खेलने का तरीका चौपड़ से कुछ भिन्न होता है। इस खेल में लड़कियॉं पत्थर के पॉंच गुट्टे बनाकर उनसे खेलती हैं।
     संजा पर्व के प्रथम दिन ‘पंचगुटा‘ को गोबर से निर्मित कर उसे विविध फूल पत्तियों से सजाया जाता है, तत्पश्चात एक थाली में कुमकुम, चावल, दीपक आदि रखकर सॉंझी के इस प्रथम रूप की आरती उतारी जाती है, और भोग लगाया जाता है-
                तुम करौ चंदा लल की बैन, संजाबाई की आरती करौ।
                प्यारे का फल होय, भईया फल होय, भतीजो फल होय।
                मेरी माई संजा की आरती करौ।।
आरती और भोग का क्रम प्रतिदिन चलता रहता है, इसके अतिरिक्त कुछ अन्य गीत भी प्रतिदिन इस अवसर पर गाये जात हैं-
1- छोटी सी गाड़ी लुड़कत जाय, बामे सॉंझी बाई बैठी जाय।
   चूड़ला खनकाती जाय, घाघरो घुमकाती जाय।
   छोटी सी गाड़ी लुड़कत जाय, लुड़कत जाय।।
2- हमारी सॉझी रानी,
   कुम्हार की मौड़ी कानी
   भल्ला बेटा पानी।।
3- हमाई सॉंझी लडुआ खाय, पेड़ा खाय।
   औरन की सॉंझी रोटी खाय, साग खाय।।
   हमाई सॉंझी कचौड़ी खाय, समौसा खाय।
  औरन की सॉंझी भूखी मरे, प्यासी मरे।।
4- हल्दी गांठ गठीली, भैया बैठके गइयो।
   ऊपर मोर नचईयो, नीचे घॅुंघरू बजइयो।।
    मुरैना में संजा पर्व के दूसरे दिन चौक बनाया जाता है, जो कि भारतीय लोक संस्कृति में किसी मेहमान और त्यौहार के आगमन का प्रतीक तो है ही साथ ही मंगल का प्रतीक भी है। यह संजा पर्व के आरम्भ का प्रतीक भी है। संजा पर्व के तीसरे दिन ‘गणेश‘ जी का चित्र गोबर के माध्यम से निर्मित किया जाता है। ‘गणेश‘ किसी भी मंगल कार्य के आरम्भ का प्रतीक होने के साथ-साथ, एकाग्रता और धैर्य का प्रतीक हैं। चौथे दिन गमले में लगा तुलसी का पौधा बनाया जाता है, जो कि हमारी भारतीय संस्कृति में पूज्य माना जाता है, साथ ही वह देवी-देवताओं और पितृ-गणों का निवास स्थान माना जाता है। पॉंचवे दिन सॉंतिया बनाया जाता है जो सुख-समृद्धि और किसी शुभ कार्य में होने वाले विघ्न बाधा को दूर करने, अमंगल का नाश करने और मंगल का विधान करने का प्रतीक है। छटवें दिन चॉंद तारे और सूरज का रूप बनाया जाता है। सूरज जहॉं ऊष्मा और प्रकाश का प्रतीक है, वहीं चॉंद तारे शीतलता का प्रतीक हैं ।    सातवें दिन मोर निर्मित किया जाता है, जो हमारा राष्ट्रीय पक्षी है। आठवें दिन हाथी बनाया जाता है, जोकि धीर और गम्भीरता का प्रतीक है। नौवे दिन चक्र बनाया जाता है, जो कि श्री कृष्ण के सुदर्शन चक्र के साथ-साथ सुरक्षा की भी प्रतीक है। दशवें दिन बीजना का निर्माण किया जाता है, जो कि मुरैना जिले की लोक परम्परा (जिसमें शादी के अवसर पर बीजने से भोजन के लिए बैठे मेहमानों की हवा बतौर मेहमाननवाजी घर की महिलाओं द्वारा की जाती है) का प्रतीक तो है ही, साथ ही महिलाओं द्वारा इसे शुभ भी माना जाता है। ग्यारहवें दिन मेहतर-मेहतरानी (सफाई कर्मी) का चित्र बनाया जाता है, जोकि साफ और स्वच्छता का प्रतीक है। बारहवें दिन ऊॅं का चित्र बनाया जाता है जो कि एकाग्रता और शांति का प्रतीक होने के साथ-साथ ब्रह्म-प्राप्ति का सूत्र भी है। तेरहवें दिन कमल बनाया जाता है जो कि मॉं सरस्वती का आसन होने के साथ-साथ हमारा राष्ट्रीय पुष्प भी है। चौदहवें दिन मूड़फोड़ा का चित्र बनाया जाता है, जिसे सॉंझी का भाई माना जाता है, और वह उसे लिवाने के लिए आता है, लेकिन वह सॉंझी के लिए उपहार स्वरूप कुछ नहीं लाता, तब बालिकाएॅं यह गीत गाती हैं-
ऐरे मूड़फोरा हमाई सॉंझी का बिन्दा कौं नई लाओ।
अबकी तो भूलो बहना, परकी लियांगो।
अबकी परकी तू करै, बिन्दा कबहॅूं न लावे।
ऐरे मूड़फोरा हमाई सॉंझी को झुमका कौं नई लाओ।
अबकी तो भूलो बहना, परकी लियांगो।।
इस तरह बालिकाएॅं गीत के माध्यम से मूड़फोरा से परस्पर संवाद करती हैं, और प्रष्न पूछती हैं।
     मुरैना जिले में सॉंझी पर्व के पंद्रहवें और आखिरी दिन किला कोट बनाया जाता है, जिसमें  सॉंझी का रूप प्रस्तुत किया जाता है, और उन सम्पूर्ण चित्रों को भी उस किलाकोट मंे पुनः एक साथ चित्रित किया जाता है, जो पूर्व में चौदह दिन तक बनाए जाते हैं । इस अवसर पर यानि कि सॉंझी के आखिरी दिन कुछ विशेष भोजन इत्यादि का आयोजन किया जाता है, तथा उस सॉंझी के एकत्रित गोबर इत्यादि सामग्री को जल में विसर्जित कर दिया जाता है, और इस तरह इस लोक बाल पर्व का समापन हो जाता है।
   मुरैना जिले में और भी कई लोक देवियॉं और उनकी मान्यताएॅं तथा कथाएॅं, जिनकी पड़ताल ग्रामीण अंचलों में जाकर की जाए तो कई महत्वपूर्ण तथ्य उजागर लोक देवियों से सम्बन्धित हो सकते हैं। मुरैना जिले की सहरिया जनजातियों की लोक देवियों सम्बन्धी मान्यताओं खोजने की असीम सम्भावनाएॅं भी यहॉं विद्यमान हैं। मुरैना जिले की अम्बाह, पोरसा, दिमनी तहसीलों में भी कई लोक देवियॉं और उनकी मान्यताएॅं हैं, जिनकी सम्पूर्ण जानकारी यहॉं दे पाना संभव नहीं है, फिर भी अगर यह परियोजना स्वीकृत होती है, तो मेरे द्वारा किया गया कार्य आपकी वृहद परियोजना के लिए अति महत्त्वपूर्ण साबित होगा।
 अंततः कहा जा सकता है कि किसी क्षेत्र विशेष की परंपरा से प्राप्त वहॉं के मानव-समूह की निरंतर उन्नत मानसिक अवस्था, उत्कृष्ट वैचारिक प्रक्रिया, व्यावहारिक षिष्टता, आचारगत पवित्रता, सौन्दर्याभिरुचि आदि की परिष्कृत, कलात्मक और सामूहिक अभिव्यक्ति ही वहॉं की लोक संस्कृति है। मानव समूह की भाषा-बोली, धर्म दर्षन, साहित्य शिल्प, कला, सामाजिक परंपराओं एवं मूल्यों, जातीय आदर्शो, संस्कारों, अनुष्ठानों और लोक विश्वासो आदि के रूप में उसकी लोक संस्कृति के विविध आयाम दृष्टिगत होते हैं। मध्यप्रदेश की संस्कृति विशाल भारतीय संस्कृति का ही एक लघु संस्करण है। 
मुरैना जिले की लोक देवियॉं, उनकी विविधता, प्रचलित लोक मान्यता, अनुष्ठान, विधान, और विशिष्ट मूर्तिशिल्प के कारण अपना विशिष्ट स्थान रखती हैं। इन देवियों के स्थानों पर मनाए जाने वाले पर्वों में धार्मिक सौहार्द, संवादात्मकता, हास्य-व्यंग्यात्मकता तत्कालीन प्रचलित खेलकूद, लोक मान्यताएॅं, राष्ट्रीय बोध, लालित्य बोध, शांति, सुरक्षा, आदि का पुट होने के साथ ही इसमें आनुष्ठानिक बोध स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। लोक देवियों से मान्यताएॅं, रीति-रिवाज एवं सामाजिक मान्यताओं की स्थापना करते हैं। इनसे सम्बन्धित होने वाले आयोजनों से समाज में फैली विविध कुप्रथाओं को समाप्त कर परस्पर आत्मीयता, सहयोग, उत्तरदायित्व की भावना एवं जिज्ञासा वृत्ति आदि गुणों को विकसित किया जाता है। इनके दर्शन मात्र से मस्तिष्क की उर्वरता व तर्क शक्ति का विकास होता है 
   मुरैना जिले में आज से लगभग पन्द्रह से बीस वर्ष पूर्व इन देवियों का आध्यात्मिक स्वरूप और स्पष्ट तथा मान्यताएॅं अपने चरम पर थीं, परन्तु आज यह बिल्कुल समाप्ति की ओर है। इसका कारण बदलता हुआ परिवेष, नगरीकरण, आधुनिक और पाश्चात्य मानसिकता है। लेकिन फिर भी हम मुरैना जिले से सम्बन्धित लोक देवियों से सम्बन्धि सूत्रात्मक अभिज्ञानता को सहेजकर, सुरक्षित कर भारतीय संस्कृति के इन अंगों को क्रियात्मक रूप में नही ंतो, अभिलेखित रूप में तो जीवित रख सकते हैं।